बरोदा/चंडीगढ़: बरोदा की जनता उम्मीदवारों की किस्मत लिखने के लिए तैयार है. इस उपचुनाव में इनेलो इस चुनाव में अपनी जीत बता रही है, तो कांग्रेस बरोदा को अपनी सीट मानकर चल रही है, लेकिन इस बार बीजेपी-जेजेपी अपनी जीत का परचम लहराना चाहती है, ऐसे में इस बार बरोदा में किसका पलड़ा भारी है, इसका पता बरोदा विधानसभा के चुनावी इतिहास की स्टडी से ही होगा.
बरोदा का चुनावी इतिहास
सोनीपत जिले का हिस्सा यह विधानसभा क्षेत्र सोनीपत लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आता है. वर्ष 1967 से लेकर 2005 तक बरोदा विधानसभा क्षेत्र आरिक्षत रहा है. साल 2009 से यह क्षेत्र सामान्य हो गया है. सामान्य सीट होने पर यहां से कांग्रेस के श्रीकृष्ण हुड्डा लगातार 2009, 2014 और 2019 के विधानसभा क्षेत्रों में विजयी होते रहे हैं. बरोदा विधानसभा क्षेत्र में 1 लाख 76 हजार 305 कुल मतदाता हैं. पहले बरोदा इनेलो का गढ़ माना जाता था और वर्ष 2009 से निरंतर इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा है.
बरोदा में अब तक किसने लहराया परचम?
सबसे पहले 1967 विधानसभा आम चुनावों में कांग्रेस के राम धारी यहां से विजयी हुए, जबकि इसके अगले ही वर्ष 1968 के चुनावों में विशाल हरियाणा पार्टी से श्याम चंद जीते. 1972 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी से फिर श्याम चंद बने. देश में इमरजेंसी हटने के बाद वर्ष 1977 के चुनावों में देवी लाल के नेतृत्व में इस सीट से जनता पार्टी के भाले राम, 1982 में लोकदल से फिर भाले राम, 1987 में लोकदल से रिटायर्ड आईएएस अधिकारी किरपा राम पूनिया, इसके बाद 1991 में जनता पार्टी से रमेश कुमार खटक, 1996 में समता पार्टी से फिर रमेश कुमार, 2000 के चुनावों में इनेलो से एक बार फिर रमेश कुमार जबकि 2005 के चुनावों में इनलो से रामफल चिराना विजयी हुए.
वर्ष 2008 में परिसीमन के बाद इस सीट को अनारक्षित कर दिया गया, जिसके बाद पहली बार अक्टूबर 2009 में यह हल्का सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के चुनाव खोला गया. बहरहाल तब तक हुए कुल 10 चुनावों में देवी लाल और ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी का प्रत्याशी 7 बार विजयी हुआ जबकि दो बार कांग्रेस और एक बार कांग्रेस से टूट कर बनी राव बीरेंदर सिंह की विशाल हरियाणा पार्टी का उम्मीदवार इस सीट से विधायक बना. दिवंगत श्री कृष्ण हूडा लगातार तीन बार अर्थात अक्टूबर 2009, फिर अक्टूबर 2014 और फिर गत वर्ष अक्टूबर 2019 में लगातार तीन बार कांग्रेस पार्टी की टिकट पर बड़ौदा से विधायक बने.
अक्टूबर, 2019 के चुनावों में श्री कृष्ण हूडा ने ओलिंपियन एवं कुश्ती चैंपियन भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े योगेश्वर दत्त को 4840 वोट से हराया था. इन चुनावों में हूडा को 34.67 प्रतिशत वोट जबकि योगेश्वर को 30.73 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए. रोचक बात यह है कि प्रदेश सरकार में भाजपा की सांझेदार जजपा के उम्मीदवार भूपिंदर मालिक ने भी इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया एवं वो साढ़े 32 हजार वोट (26 .45 प्रतिशत) वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे.
बरोदा में दो बार हुआ त्रिकोणिए मुकाबला
साल 1967 से लेकर अब 2020 तक 53 सालों में बरोदा की जनता ने 12 बार स्पष्ट जनादेश दिया है. सिर्फ दो बार ऐसा हुआ है कि मुकाबला त्रिकोणीय रहा है, वरना तो हर बार बरोदा के लोग सिर्फ दो प्रत्याशियों या दलों के बीच ही चुनाव करते आए हैं. जिन दो बार मुकाबला त्रिकोणीय रहा, वो साल 1977 और 2019 के विधानसभा चुनाव रहे हैं. जहां पर बहुत ही कम अंतर से जीत और हार का फैसला हुआ है.
साल 1977 में जहां जीत का अंतर 4,319 था, वहीं 2019 में सिर्फ 4,840 मतों ने हार-जीत का अंतर तय किया था. इन्हीं दो चुनावों में तीन-तीन प्रत्याशियों पर जमकर वोट बरसें. जबकि अन्य सभी चुनावों में केवल दो प्रत्याशियों के बीच ही चुनाव लड़ा गया. खास बात ये है कि अब उप-चुनावों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनती दिखाई दे रही है.
क्या हुआ था 1977 में?
वर्ष 1977 के विधानसभा चुनावों के दौरान आजाद प्रत्याशी दरया सिंह, विहीप के रामधारी और जेएनपी के भलेराम के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हुआ था. उस समय बरोदा विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित था. इसी वजह से तीनों ही प्रत्याशी जातिगत आधार पर लगभग एक समान थे. इन चुनावों में बरोदा की जनता ने 10,672 वोट आजाद प्रत्याशी दरया सिंह को, 10,386 वोट विहीप प्रत्याशी रामधारी को और 14,705 वोट जेएनपी के भलेराम को दिए थे. इस तरह से इन चुनावों में 4 हजार 319 मतों से भलेराम ने जीत दर्ज की थी. भले ही भलेराम ने उस समय जीत दर्ज की थी, लेकिन चुनाव लड़ने में तीनों ही प्रत्याशियों के पसीने छूटे थे.
साल 2019 ने दोहराई थी 1977 की कहानी
1977 की ही तरह 2019 में भी बरोदा की जनता के लिये विधायक चुनना आसान नहीं था. कांग्रेस प्रत्याशी श्रीकृष्ण हुड्डा केवल 4,840 मतों से जीते थे. श्रीकृष्ण हुड्डा को 42,566 मत मिले थे. दूसरे नंबर पर भाजपा के योगेश्वर दत्त ने 37,726 मत प्राप्त किए थे. तीसरे स्थान पर जजपा के भूपेंद्र मलिक ने 32,480 वोट प्राप्त किए थे. इस तरह से यह मुकाबला भी त्रिकोणीय रहा था. खास बात ये है कि 1977 में जहां इनेलो वजूद में नहीं थी, वहीं 2019 तक इनेलो का वजूद का बंटवारा हो गया था. 2019 के विधानसभा चुनावों में श्रीकृष्ण हुड्डा लगातार तीसरी बार जीतने वाले विधायक बने थे.
बरोदा विधानसभा सीट
- कुल मतदाता- 1,78,250
- जाट मतदाता- 94,000
- ब्राह्मण- 21,000
- एससी- 29,000
- ओबीसी- 25,000
लिंग के आधार पर मतदाता
- पुरुष मतदाता- 98580
- महिला मतदाता- 79414
बरोदा में जातीय समीकरण रहता है हावी!
वैसे तो हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां मंचों से ये दावा करती हैं कि वो जातिगत या धार्मिक राजनीति नहीं करती. यही हमारे लोकतंत्र की नीति भी कहती है, लेकिन ये एक कड़वी सच्चाई है कि दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरी रियासत में हर टिकट जातिगत समीकरण देखकर दिया जाता है. यही बरोदा पर भी लागू होता है.
क्या इस बार बदलेगा इतिहास?
यही वजह है कि बरोदा उपचुनाव में इस बार भी कांग्रेस और इनेलो ने जाट चेहरों को टिकट दी है, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन इस बार बरोदा में दूसरी बार एक ब्राह्मण को टिकट देकर अपनी अलग छवि पेश करना चाहता है.हालांकि 2019 में हार के बाद बीजेपी प्रत्याशी योगेश्वर दत्त ने लोगों का विश्वास जीतने के लिए काफी मेहनत की है, लेकिन बरोदा का इतिहास बताता है कि यहां जाट प्रत्याशियों का दबदबा रहा है. बहरहाल अब 10 नवंबर को ही पता चलेगा, कि इसबार बरोदा इतिहास बदलता है या फिर एक बार फिर खुद को दोहराता है.
रिपोर्ट: जानिए बरोदा विधानसभा सीट पर जातीय समीकरण का सही गणित कितना है जरूरी