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धुंधला होता इतिहास! प्राचीन काल में राह दिखाने वाली कोस मीनार अब तलाश रही खुद का अस्तित्व

जब हम किसी राष्ट्रीय मार्ग या राज्य मार्ग पर लंबी दूरी की यात्रा करते हैं, तो रास्ते में लगे दिशा सूचक बोर्ड के जरिए हमें जानकारी मिलती है कि हम सही रास्ते पर पर जा रहे हैं या नहीं. या हम अपने गंतव्य से कितने किलोमीटर दूर है. इन यात्राओं के दौरान कई बार आपने कोस मीनार (kos minar) भी देखी होगी, लेकिन हम ये सोच भी नहीं पाते हैं कि इन मील के पत्थरों का भी एक इतिहास है.

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Published : Nov 13, 2022, 10:06 PM IST

पानीपत: कहा जाता है कि वर्तमान की जड़ें कहीं ना कहीं हमारे इतिहास में छुपी हैं. जैसे-जैसे हम समय के साथ आगे बढ़ते गए, तकनीकी रूप से प्रगतिशील हुए, हम अपने इतिहास को भी कहीं ना कहीं भूलते जा रहे हैं, लेकिन आज भी हमारे वर्तमान में इतिहास और विज्ञान के कई प्रारूप या यू कहें कि रहस्य छुपे हैं, जिनके बारे में हमें पता ही नहीं है. हम बात कर रहे हैं कोस मीनार (kos minar) की.

जब हम किसी राष्ट्रीय मार्ग या राज्य मार्ग पर लंबी दूरी की यात्रा करते हैं, तो रास्ते में लगे दिशा सूचक बोर्ड के जरिए हमें जानकारी मिलती है कि हम सही रास्ते पर पर जा रहे हैं या नहीं. या हम अपने गंतव्य से कितने किलोमीटर दूर है. इन यात्राओं के दौरान कई बार आपने कोस मीनार भी देखी होगी, लेकिन हम ये सोच भी नहीं पाते हैं कि इन मील के पत्थरों का भी एक इतिहास है. प्राचीन काल में रास्ता मापने का कोई यंत्र या फिर दिशा सूचक बोर्ड नहीं होते थे.

kos minar history and features kos minar in haryana
कोस मीनारों की ऊंचाई 30 फीट के लगभग होती थी.

तब राजा-महाराजा रास्ता मापने के लिए अलग-अलग मापकों का इस्तेमाल करते थे. इनमें से एक थी कोस मीनार (kos minar). उस समय दूरी नापने का कोई निश्चित पैमाना नहीं हुआ करता था, इसलिए कोस मीनार को रास्ता नापने के लिए बनाया गया. इन कोस मीनारों के आसपास यात्रियों के रुकने के लिए सराय और पानी के कुओं की व्यवस्था होती थी. कोस मीनारों की ऊंचाई 30 फीट के लगभग होती थी. इनका निर्माण ईंटों और चूने के पत्थरों से किया जाता था.

इन मीनारों पर खड़े होकर सैनिक आवागमन पर नजर रखते थे. माना जाता है कि साल 1540 से 1545 के बीच राजाओं ने वर्तमान में दिल्ली, सोनीपत, पानीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर यहां तक की कोलकाता, पेशावर तक कोस मीनार का निर्माण करवाया. ये कोस मीनारें रास्ते का सूचक-यंत्र हुआ करती थीं. इन्हीं कोस मीनारों द्वारा राज्य की सेना एवं डाक लाने वाले डाकिये सही स्थान पर पहुंच पाते थे. वर्तमान में हरियाणा राज्य में 49 कोस मीनारें (kos minar in haryana) शेष हैं, जिसमें से 17 फरीदाबाद, 7 सोनीपत, 5 पानीपत, 10 करनाल, 9 कुरुक्षेत्र और रोहतक में 1 मीनार बची है.

ये भी पढ़ें- स्मार्ट सिटी की डर्टी तस्वीर: फरीदाबाद में गंदगी का ढेर, आवारा पशुओं का आतंक, राहगीर परेशान

अंबाला में सभी मीनारें देखरेख के अभाव में नष्ट हो गई हैं. इतिहासकार रमेश पुहाल बताते हैं कि गाय के रांभाने की आवाज को प्राचीन काल में क्रोश कहा जाता था. जहां तक ये आवाज पहुंचती थी, वहां तक की दूरी को एक कोस के तौर पर माना जाता था. समय के बदलाव के साथ क्रोश कोस में बदल गया. कोस शब्द दूरी नापने का एक पैमाना था, लेकिन आज देखरेख के अभाव में ये मीनारें विलुप्त होती जा रही हैं.

पानीपत: कहा जाता है कि वर्तमान की जड़ें कहीं ना कहीं हमारे इतिहास में छुपी हैं. जैसे-जैसे हम समय के साथ आगे बढ़ते गए, तकनीकी रूप से प्रगतिशील हुए, हम अपने इतिहास को भी कहीं ना कहीं भूलते जा रहे हैं, लेकिन आज भी हमारे वर्तमान में इतिहास और विज्ञान के कई प्रारूप या यू कहें कि रहस्य छुपे हैं, जिनके बारे में हमें पता ही नहीं है. हम बात कर रहे हैं कोस मीनार (kos minar) की.

जब हम किसी राष्ट्रीय मार्ग या राज्य मार्ग पर लंबी दूरी की यात्रा करते हैं, तो रास्ते में लगे दिशा सूचक बोर्ड के जरिए हमें जानकारी मिलती है कि हम सही रास्ते पर पर जा रहे हैं या नहीं. या हम अपने गंतव्य से कितने किलोमीटर दूर है. इन यात्राओं के दौरान कई बार आपने कोस मीनार भी देखी होगी, लेकिन हम ये सोच भी नहीं पाते हैं कि इन मील के पत्थरों का भी एक इतिहास है. प्राचीन काल में रास्ता मापने का कोई यंत्र या फिर दिशा सूचक बोर्ड नहीं होते थे.

kos minar history and features kos minar in haryana
कोस मीनारों की ऊंचाई 30 फीट के लगभग होती थी.

तब राजा-महाराजा रास्ता मापने के लिए अलग-अलग मापकों का इस्तेमाल करते थे. इनमें से एक थी कोस मीनार (kos minar). उस समय दूरी नापने का कोई निश्चित पैमाना नहीं हुआ करता था, इसलिए कोस मीनार को रास्ता नापने के लिए बनाया गया. इन कोस मीनारों के आसपास यात्रियों के रुकने के लिए सराय और पानी के कुओं की व्यवस्था होती थी. कोस मीनारों की ऊंचाई 30 फीट के लगभग होती थी. इनका निर्माण ईंटों और चूने के पत्थरों से किया जाता था.

इन मीनारों पर खड़े होकर सैनिक आवागमन पर नजर रखते थे. माना जाता है कि साल 1540 से 1545 के बीच राजाओं ने वर्तमान में दिल्ली, सोनीपत, पानीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर यहां तक की कोलकाता, पेशावर तक कोस मीनार का निर्माण करवाया. ये कोस मीनारें रास्ते का सूचक-यंत्र हुआ करती थीं. इन्हीं कोस मीनारों द्वारा राज्य की सेना एवं डाक लाने वाले डाकिये सही स्थान पर पहुंच पाते थे. वर्तमान में हरियाणा राज्य में 49 कोस मीनारें (kos minar in haryana) शेष हैं, जिसमें से 17 फरीदाबाद, 7 सोनीपत, 5 पानीपत, 10 करनाल, 9 कुरुक्षेत्र और रोहतक में 1 मीनार बची है.

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अंबाला में सभी मीनारें देखरेख के अभाव में नष्ट हो गई हैं. इतिहासकार रमेश पुहाल बताते हैं कि गाय के रांभाने की आवाज को प्राचीन काल में क्रोश कहा जाता था. जहां तक ये आवाज पहुंचती थी, वहां तक की दूरी को एक कोस के तौर पर माना जाता था. समय के बदलाव के साथ क्रोश कोस में बदल गया. कोस शब्द दूरी नापने का एक पैमाना था, लेकिन आज देखरेख के अभाव में ये मीनारें विलुप्त होती जा रही हैं.

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