झज्जर/अंबाला: 26 जुलाई, 1999 की वो सुबह कोई भारतीय नहीं भूल सकता. जब हमारे शूरवीरों ने दुश्मन को मुंह तोड़ जवाब देकर कारगिल पर तिरंगा लहराया था. लेकिन हैरत की बात ये है कि जिन शूरवीरों ने देश के लिए बलिदान देकर इतिहास में नया अध्याय लिखा. आज उनका गांव सिस्टम की लाचारी का शिकार हो चुका है.
शहीद के गावों में नहीं मूलभूत सुविधाएं
हम बात कर रहे हैं झज्जर जिले के बिसाहन गांव की. 3 हजार तक की आबादी वाले इस गांव के हर घर में एक फौजी है. बावजूद इसके ये गांव मूलभूत सुविधाओं को तरस रहा है. ना गांव में पीने का पानी है. ना पक्की सड़कें. ना पानी निकासी की कोई व्यवस्था है और ना ही संसाधन.
आलम ये है कि सुविधाओं के अभाव में ग्रामीणों ने पलायन करना शुरू कर दिया है. आज गांव के हर दूसरे घर पर ताला लटका है. क्योंकि ना गांव में बस की सुविधा है, ना शिक्षा के लिए पर्याप्त स्कूल. ऐसे में कोई इस गांव में रहे भी तो क्यों?
इस लापरवाही का जिम्मेदार कौन?
ऐसा ही हाल अंबाला जिले के शहीद मंजीत सिंह के गांव कांसापुर का है. मंजीत कारगिल में शहीद होने वाले सबसे कम उम्र के सिपाही थे, महज साढ़े 18 साल की उम्र में उन्होंने ना सिर्फ सीमा पर मोर्चा संभाला बल्कि दुश्मनों के दांत भी खट्टे किए. शहीद मंजीत सिंह अंबाला की मुलाना विधानसभा के कांसापुर गांव के रहने वाले थे, जो 8 सिख रेजीमेंट में भर्ती हुए थे. इनके नाम पर सरकार ने स्कूल तो बनवाया, लेकिन रखरखाव के अभाव में आज उस स्कूल पर भी ताला लटका है. यहां तक कि शहीद के नाम के लगे बोर्ड को भी पेंट नहीं करवाया गया है.
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सवाल ये है कि जिन शहीदों ने हमें आज कारगिल विजय दिवस मनाने का मौका दिया उनके लिए ना तो प्रशासन के पास वक्त है और ना ही राजनेताओं के लिए उनकी शहादत कोई मायने रखती है. ऐसे में जिस तरह इन वीरों ने देश की सीमाओं को संभाला..ठीक उसी तरह सिस्टम और सरकार को भी इन जवानों के घर और गांव को संभालना चाहिए था.