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रिपोर्ट: जानिए बरोदा विधानसभा सीट पर जातीय समीकरण का सही गणित कितना है जरूरी

बरोदा उपचुनाव में इस बार भी कांग्रेस और इनेलो ने जाट चेहरों को टिकट दी है, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन इस बार बरोदा में दूसरी बार एक ब्राह्मण को टिकट देकर अपनी अलग छवि पेश करना चाहता है. लेकिन बरोदा का इतिहास बताता है कि यहां जाट प्रत्याशियों का दबदबा रहा है.

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जानिए बरोदा विधानसभा सीट पर जातीय समीकरण का सही गणित कितना है जरूरी
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Published : Oct 25, 2020, 9:58 AM IST

Updated : Nov 2, 2020, 10:11 PM IST

चंडीगढ़: 3 नवंबर को बरोदा सीट पर उपचुनाव होने वाला है, इस चुनाव को जीतने के लिए सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी है. हालांकि इस एक सीट के जीत और हार से सरकार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, लेकिन ये सीट सीएलपी लीडर भूपेंद्र सिंह के लिए हुड्डा के लिए साख का, इनेलो के लिए नाक का और गठबंधन के लिए विश्वास का सवाल है.

आपको बता दें कि इस सीट को जीतना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं है, माना जाता रहा है कि इस सीट पर हमेशा से जातीय समीकरण हावी रहा है, यहां जिस पार्टी ने जातिय समीकरण का सही गणित लगाया, उसने बरोदा में अपना परचम लहराया है. तो चलिए एक बार बरोदा की जातिय समीकरण पर एक नजर डाल लेते हैं.

बरोदा विधानसभा सीट पर जातीय समीकरण का सही गणित कितना है जरूरी, देखिए रिपोर्ट

बरोदा विधानसभा सीट

  • कुल मतदाता- 1,78,250
  • जाट मतदाता- 94,000
  • ब्राह्मण- 21,000
  • एससी- 29,000
  • ओबीसी- 25,000

बरोदा में जातीय समीकरण रहता है हावी!

वैसे तो हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां मंचों से ये दावा करती हैं कि वो जातिगत या धार्मिक राजनीति नहीं करती. यही हमारे लोकतंत्र की नीति भी कहती है, लेकिन ये एक कड़वी सच्चाई है कि दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरी रियासत में हर टिकट जातिगत समीकरण देखकर दिया जाता है. यही बरोदा पर भी लागू होता है.

जाट उम्मीदवार या जाट समर्थन से मिलती है जीत!

2009 से पहले जब ये सीट आरक्षित थी तब भी वही उम्मीदवार यहां से जीता जिसे उस वक्त के बड़े जाट नेता देवीलाल का आशीर्वाद मिला, और सीट सामान्य होने पर वो उम्मीदवार जीता जिसे दूसरे बड़े जाट नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा का समर्थन मिला. ऐसे में इस बात से बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि बरोदा पर जातिय समीकरण का कितना असर है. अगर हम बरोदा में पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो सभी पार्टियां जाट उम्मीदवारों को ही यहां उतारने में ही अपनी भलाई समझती रही हैं.

  • 2014- कांग्रेस के श्री कृष्ण हुड्डा ने INLD के कपूर सिंह नरवाल को 5,183 वोटों से हराया.
  • 2009- कांग्रेस के श्री कृष्ण हुड्डा ने INLD के कपूर सिंह नरवाल को 25,343 वोटों से हराया.
  • साल 2009 से पहले आईएनएलडी पार्टी ताऊ देवी लाल के प्रभाव की वजह से यहां पर 1977 से लेकर 2005 तक एक भी चुनाव नहीं हारी.

क्या इस बार बदलेगा इतिहास?

यही वजह है कि बरोदा उपचुनाव में इस बार भी कांग्रेस और इनेलो ने जाट चेहरों को टिकट दी है, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन इस बार बरोदा में दूसरी बार एक ब्राह्मण को टिकट देकर अपनी अलग छवि पेश करना चाहता है.

हालांकि 2019 में हार के बाद बीजेपी प्रत्याशी योगेश्वर दत्त ने लोगों का विश्वास जीतने के लिए काफी मेहनत की है, लेकिन बरोदा का इतिहास बताता है कि यहां जाट प्रत्याशियों का दबदबा रहा है. बहरहाल अब 10 नवंबर को ही पता चलेगा, कि इसबार बरोदा इतिहास बदलता है या फिर एक बार फिर खुद को दोहराता.

ये पढ़ें- रिपोर्ट: हरियाणा में बेअसर साबित हो रहा है महिला सुरक्षा के लिए बनाया गया निर्भया फंड

चंडीगढ़: 3 नवंबर को बरोदा सीट पर उपचुनाव होने वाला है, इस चुनाव को जीतने के लिए सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी है. हालांकि इस एक सीट के जीत और हार से सरकार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, लेकिन ये सीट सीएलपी लीडर भूपेंद्र सिंह के लिए हुड्डा के लिए साख का, इनेलो के लिए नाक का और गठबंधन के लिए विश्वास का सवाल है.

आपको बता दें कि इस सीट को जीतना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं है, माना जाता रहा है कि इस सीट पर हमेशा से जातीय समीकरण हावी रहा है, यहां जिस पार्टी ने जातिय समीकरण का सही गणित लगाया, उसने बरोदा में अपना परचम लहराया है. तो चलिए एक बार बरोदा की जातिय समीकरण पर एक नजर डाल लेते हैं.

बरोदा विधानसभा सीट पर जातीय समीकरण का सही गणित कितना है जरूरी, देखिए रिपोर्ट

बरोदा विधानसभा सीट

  • कुल मतदाता- 1,78,250
  • जाट मतदाता- 94,000
  • ब्राह्मण- 21,000
  • एससी- 29,000
  • ओबीसी- 25,000

बरोदा में जातीय समीकरण रहता है हावी!

वैसे तो हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां मंचों से ये दावा करती हैं कि वो जातिगत या धार्मिक राजनीति नहीं करती. यही हमारे लोकतंत्र की नीति भी कहती है, लेकिन ये एक कड़वी सच्चाई है कि दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरी रियासत में हर टिकट जातिगत समीकरण देखकर दिया जाता है. यही बरोदा पर भी लागू होता है.

जाट उम्मीदवार या जाट समर्थन से मिलती है जीत!

2009 से पहले जब ये सीट आरक्षित थी तब भी वही उम्मीदवार यहां से जीता जिसे उस वक्त के बड़े जाट नेता देवीलाल का आशीर्वाद मिला, और सीट सामान्य होने पर वो उम्मीदवार जीता जिसे दूसरे बड़े जाट नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा का समर्थन मिला. ऐसे में इस बात से बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि बरोदा पर जातिय समीकरण का कितना असर है. अगर हम बरोदा में पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो सभी पार्टियां जाट उम्मीदवारों को ही यहां उतारने में ही अपनी भलाई समझती रही हैं.

  • 2014- कांग्रेस के श्री कृष्ण हुड्डा ने INLD के कपूर सिंह नरवाल को 5,183 वोटों से हराया.
  • 2009- कांग्रेस के श्री कृष्ण हुड्डा ने INLD के कपूर सिंह नरवाल को 25,343 वोटों से हराया.
  • साल 2009 से पहले आईएनएलडी पार्टी ताऊ देवी लाल के प्रभाव की वजह से यहां पर 1977 से लेकर 2005 तक एक भी चुनाव नहीं हारी.

क्या इस बार बदलेगा इतिहास?

यही वजह है कि बरोदा उपचुनाव में इस बार भी कांग्रेस और इनेलो ने जाट चेहरों को टिकट दी है, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन इस बार बरोदा में दूसरी बार एक ब्राह्मण को टिकट देकर अपनी अलग छवि पेश करना चाहता है.

हालांकि 2019 में हार के बाद बीजेपी प्रत्याशी योगेश्वर दत्त ने लोगों का विश्वास जीतने के लिए काफी मेहनत की है, लेकिन बरोदा का इतिहास बताता है कि यहां जाट प्रत्याशियों का दबदबा रहा है. बहरहाल अब 10 नवंबर को ही पता चलेगा, कि इसबार बरोदा इतिहास बदलता है या फिर एक बार फिर खुद को दोहराता.

ये पढ़ें- रिपोर्ट: हरियाणा में बेअसर साबित हो रहा है महिला सुरक्षा के लिए बनाया गया निर्भया फंड

Last Updated : Nov 2, 2020, 10:11 PM IST
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