चंडीगढ़- राजनीति की अजब कहानी है. हर आंख में आंसू जैसे पानी है. राजनेताओं की आंख का आंसू पानी इसलिए हो जाता है क्योंकि ये आंसू अवसरवाद की नैया में बैठकर महत्वाकांक्षाओं के समंदर में जा मिलता है और इसी महत्कांक्षा के समंदर में डुबकी लगाने की आस में नेता अपना घोंसला छोड़कर सुरक्षित घोंसले की तलाश करते हैं. जब बात महत्वाकांक्षा और सुरक्षित घोंसले की होती है तो हरियाणा का इतिहास कहता है कि भजनलाल को याद कीजिए जिन्होंने आया राम गयाराम की कहावत के मायने ही बदल दिए. जिन्होंने दलबदल कानून के अस्तित्व की नींव रख दी. उसके बाद से हरियाणा में जो आयाराम-गयाराम का किस्सा शुरू हुआ वो कभी न खत्म होने वाली कहानी बन गया.
2019 लोकसभा चुनाव से पहले इन्होंने बदले दल
हरियाणा की राजनीति में दलबदल का इतिहास रहा है. यहां कब-कौन, किस पाले में जा बैठे कहा नहीं जा सकता है. अगर बात 2019 की करें तो लाखों अभिलाषाएं लिये बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में आ गये. अरविंद शर्मा बीएसपी छोड़कर कांग्रेस में आ गये. अवतार भड़ाना कभी कांग्रेसी ही हुआ करते थे लेकिन उन्होंने कई बार पार्टी बदली वो कांग्रेस छोड़कर इनेलो में आये. फिर इनेलो छोड़कर बीजेपी में गये और अब फिर से कांग्रेसी हो गए हैं. अगर बात करें अरविंद शर्मा की तो वो भी कांग्रेसी रहे हैं और वाया बीएसपी, बीजेपी तक का सफर तय किया है. इसके अलावा इनेलो के दो विधायकों ने बीजेपी ज्वाइन की है और 4 विधायक जेजेपी के साथ हैं.
अवतार भड़ाना को 'माया मिली न राम'
अवतार भड़ाना बीजेपी के विधायक थे और फरीदाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे. लेकिन बीजेपी इस पर सहमत नहीं थी तो उन्होंने विधायकी छोड़ दी और कांग्रेस का हाथ थाम लिया. कभी कांग्रेस में ही रहे अवतार भड़ाना को अपनी 'घर वापसी' के वक्त यकीन था कि उन्हें फरीदाबाद से टिकट जरूर मिलेगा क्योंकि वो पहले भी सांसद रह चुके हैं. लेकिन उनका ये सपना उस वक्त चकनाचूर हो गया जब कांग्रेस ने फरीदाबाद से ललित नागर को टिकट दे दिया.
हरियाणा गठन से पहले भी इस क्षेत्र की हिस्ट्री है दलबदल
एक वक्त लाल सियासत के नाम से मशहूर हुए हरियाणा के तीनों ही लालों ने कांग्रेस को छोड़कर अपने अलग राजनीतिक दल खड़े किये. 1954 में जब संयुक्त पंजाब के समय में कांग्रेस नेता भीमसैन सच्चर, प्रताप सिंह कैरों की मदद से पंडित श्रीराम शर्मा को कांग्रेस से बाहर करवाने में सफल रहे तो उन्होंने गांधी जनता कांग्रेस के नाम से अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन किया. ये बात अलग है कि वो इस पार्टी को लगभग दो साल तक ही अस्तित्व में रख पाए और 1956 में इसका विलय कांग्रेस में कर दिया. इसी तरह से केंद्र में मंत्री रहे प्रो. शेर सिंह को भी कांग्रेस से नाता तोडऩा पड़ा था.प्रो. शेर सिंह ने 1962 में हरियाणा लोक समिति नाम की पार्टी का गठन किया. इस पार्टी के बैनर तले उन्होंने लोकसभा और विधानसभा में अपने उम्मीदवार भी उतारे.
हरियाणा गठन के बाद सबसे पहले देवीलाल ने बदला दल
हरियाणा के गठन के ठीक एक साल बाद 1967 में चौ. देवीलाल ने प्रोग्रेसिव इंडिपेंडेंट पार्टी (पीआईपी) का गठन कर डाला. हालांकि वो कुछ समय बाद ही कांग्रेस में वापस लौट गए. फिर भी कांग्रेस में देवीलाल की दाल नहीं गली और उन्होंने 1970 में हमेशा-हमेशा के लिए कांग्रेस को अलविदा बोल दिया. राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाले देवीलाल भारतीय क्रांति दल, भारतीय लोकदल समेत कई राष्ट्रीय पार्टियों से जुड़े रहे. हरियाणा में स्वतंत्र पार्टी के रूप में उन्होंने हरियाणा लोकदल-राष्ट्रीय का गठन किया. बाद में जिसका नाम बदल कर इंडियन नेशनल लोकदल रखा गया.
राव इंद्रजीत के पिता राव बीरेंद्र ने भी बदला था दल
राज्य के गठन के बाद राव बीरेंद्र सिंह ने 1967 में कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और विशाल हरियाणा पार्टी बनाई. वो इस पार्टी का अस्तित्व 1978 तक बचाए रखने में सफल रहे. राव ने इस पार्टी के बैनर तले सांसद और विधानसभा के चुनाव जीते. आखिरकार राव बीरेंद्र सिंह ने 23 सितम्बर, 1978 को विशाल हरियाणा पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. हालांकि उन्होंने 1989 में फिर से कांग्रेस छोड़ दी और जनता दल में चले गए. इस दौरान वे चंद्रशेखर की सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे.
बंसीलाल ने भी किया दलबदल
पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल भी इस दलबदल की राजनीति से अछूते नहीं रहे. 1990 में उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए हरियाणा विकास मंच का गठन किया था. बाद में 1991 में विधानसभा चुनाव से पहले ही उन्होंने हरियाणा विकास मंच को राजनीतिक दल बना दिया और हरियाणा विकास पार्टी का नाम दिया. इस पार्टी के बैनर तले उन्होंने 1991 का चुनाव लड़ा. बेशक, पहली पारी में वे सरकार नहीं बना सके लेकिन 1996 के चुनाव में बीजेपी के समर्थन से वो मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे. बाद में जब बीजेपी ने उनका साथ छोड़ दिया और सरकार गिर गई तो इसके बाद उनकी पार्टी सत्ता में नहीं लौट पाई. आखिरकार 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने हरियाणा विकास पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया.
जब विधायकों के साथ मुख्यमंत्री ने ही बदल लिया दल
दल-बदल में पीएचडी कहलाने वाले भजनलाल को जोड़तोड़ की राजनीति का माहिर खिलाड़ी माना जाता था. इतना माहिर कि 1979 में वो जिस मुख्यमंत्री की सरकार में मंत्री थे उसी की सरकार गिराकर अपनी सरकार बना ली थी. ये वो वक्त था जब देश में जनता पार्टी की सरकार थी. इसके बाद 1980 में केंद्र की सत्ता पर इंदिरा गांधी की वापसी हुई तो राज्य सरकारों के तमाम समीकरण बदल गए. भजनलाल उस वक्त जनता पार्टी के मुख्यमंत्री थे लेकिन उन्होंने पूरे देश को चौंकाते हुए 40 विधायकों के साथ कांग्रेस का हाथ थाम लिया. भारत के राजनीतिक इतिहास में ये आज तक अनोखी घटना है जब मुख्यमंत्री ने विधायकों के साथ दल ही बदल लिया.
अनोखी ट्रिक अपनाते थे भजनलाल
कहा जाता है कि जब 1977 में भजनलाल को जनता पार्टी में जाना था तो उन्होंने मोरारजी देसाई के घर 18 किलो देसी घी के 3 पीपे भिजवाये थे. ऐसी ही ट्रिक उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने के लिए भी अपनाई जब इंदिरा गांधी के पोते वरुण गांधी के लिए हरियाणवी अंदाज़ में सोने की पत्तर चढ़ा ऊंट भिजवाया.
हरियाणा में ही बनी आया राम-गया राम की कहावत
ये उस वक्त की बात है जब राजनीति में पार्टी बदलने को निष्ठा से जोड़कर देखा जाता था. इसी दौर में गया लाल महज़ 24 घंटे में 3 दलों में शामिल हुए. पहले वो कांग्रेस छोड़कर यूनाइटेड फ्रंट में गए, फिर कांग्रेस में लौटे और फिर 9 घंटे के अंदर ही यूनाइटेड फ्रंट में शामिल हो गए. जब यूनाइटेड फ्रंट से गया राम कांग्रेस में वापस आये तब तत्कालीन कांग्रेस नेता बीरेंद्र सिंह ने कहा था कि, ‘गया राम अब आया राम हैं’.
2014 में भी कईयों ने बदला दल
2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हरियाणा के कई नेताओं ने शायद हवा का रुख भांप लिया था. इसीलिए उन्होंने कांग्रेस की डूबती नाव छोड़कर हवा के जरिये तैर रहे बीजेपी के जहाज पर चढ़ना मुनासिब समझा. इस आंधी में कांग्रेस के कद्दावर नेता बीरेंद्र सिंह ने पार्टी छोड़ बीजेपी ज्वाइन कर ली थी. कांग्रेस के ही एक और बड़े नेता राव इंद्रजीत ने भी बीजेपी के साथ जाना बेहतर समझा और धर्मवीर सिंह भी कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गये थे.
नेताओं ने ऐसे दल बदले कि बनाना पड़ा कानून
राजीव गांधी सरकार ने 24 जनवरी 1985 को 52वें संविधान संसोधन विधेयक के जरिए दल-बदल बिल लोकसभा में पेश किया था. 30 जनवरी को लोकसभा और 31 जनवरी को राज्यसभा में विधेयक पारित होने और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद दल-बदल अधिनियम अस्तित्व में आया. इसके जरिए अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 में बदलाव किया गया और संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. दरसअल, 10वीं अनुसूची को ही दल-बदल कानून के तौर पर जाना जाता है. ये संशोधन 1 मार्च 1985 से लागू हो गया था.
दल-बदल कानून में भी करना पड़ा बदलाव
दल-बदल अधिनियम आयाराम गयाराम रोकने के लिए एक अच्छा कदम माना गया था, लेकिन पेरा 3 और पेरा 4 ने मकसद को अधूरा छोड़ दिया था इसका नतीजा रहा कि 16-दिसंबर-2003 को संसद को 97वां संविधान संसोधन विधेयक पारित करना पड़ा. इस विधेयक में ना केवल व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया.
ऐसे काम करता है दल-बदल कानून
अगर कोई सदस्य सदन में पार्टी व्हिप के विरुद्ध मतदान करे या गैरहाजिर रहे तो सदस्यता जाएगी. लेकिन अगर दल 15 दिन के भीतर सदस्य को माफ करे तो सदस्यता बची रहेगी. यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दे तो सदस्यता जाएगी. कोई निर्दलीय चुनाव के बाद किसी दल में चला जाए तो सदस्यता जाएगी. यदि मनोनीत सदस्य कोई दल ज्वाइन कर ले तो सदस्यता जाएगी.