भिवानी: रोहनात गांव में 23 मार्च 2018 से पहले कभी भी आजादी का जश्र नहीं मनाया गया था और न ही गांव में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया था क्योंकि यहां के ग्रामीणों की मांग को पूरा करने के लिए किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया. इसी रोष स्वरूप यहां के लोगों ने आजादी का जश्र नहीं मनाया था.
सीएम ने गांव के बुजुर्ग के हाथों राष्ट्रीय ध्वज फहराया
23 मार्च वर्ष 2018 को पहली बार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने एक बुजुर्ग के हाथों राष्ट्रीय ध्वज फहराकर यहां के लोगों को गुलामी के एहसास से आजाद करवाया. इसके बाद यहां के ग्रामीणों ने स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर आजादी का जश्र तो मनाना शुरू कर दिया, लेकिन अभी तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो पाई हैं.
नहीं हुए विकास कार्य
यहां इक्का-दुक्का घोषणाएं ही धरातल पर पहुंच पाई हैं. शेष अन्य बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर अभी तक धरातल पर कोई कार्य शुरू नहीं हो पाया है. इस बारे में जिला प्रशासन व मुख्यमंत्री को अवगत करवाया गया है. वहीं काम शुरू ना होने के कारण ग्रामीणों में धीरे-धीरे प्रशासन व सरकार के खिलाफ नाराजगी बढ़ती जा रही है.
क्यों नहीं फहराया था कभी राष्ट्रीय ध्वज ?
गौरतलब है कि गांव रोहनात आजादी के रणबांकुरों के नाम से जाना जाता हैं. यहां के लोगों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों से लोहा लेते हुए देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे.
गांव के वीर जांबाजों ने बहादुरशाह के आदेश पर 29 मई 1857 के दिन अंग्रेजी हुकूमत की ईंट से ईंट बजा दी. इस दिन ग्रामीणों ने जेलें तोड़कर कैदियों को आजाद करवाया. 12 अंग्रेजी अफसरों को हिसार और 11 को हांसी में मार गिराया. इससे बौखलाकर अंग्रेजी सेना ने गांव पुट्ठी के पास तोप लगाकर गांव के लोगों को बुरी तरह भून दिया. सैंकड़ों लोग जलकर मर गए, मगर फिर भी ग्रामीण लड़ते रहे.
अंग्रेजों के जुल्म के आगे यहां के ग्रामीण निडर होकर डटे रहे और उन्होंने अंग्रेजों के जुल्म को भी सहा. अंग्रेजों ने यहां के गांव को तोप से तबाह. अंग्रेजों ने इसके बाद भी अपने जुल्मों को जारी रखा. औरतों और बच्चों को कुएं में फेंक दिया. दर्जनों लोगों को सरे आम जोहड़ के पास पेड़ों पर फांसी के फंदे पर लटका दिया. ये कुएं और पेड़ आज भी अंग्रेजी हुकूमत के जुल्मों के जीते जागते सबूत हैं. इस गांव के लोगों पर अंग्रेजों के अत्याचार की सबसे बड़ी गवाह हांसी की एक सड़क है.
इस सड़क पर बुल्डोजर चलाकर इस गांव के अनेक क्रांतिकारियों को कुचला गया था. जिससे यह रक्त रंजित हो गई थी और इसका नाम लाल सड़क रखा गया था. गांव के लोगों की आंखें उस मंजर को याद कर छलछला उठती हैं.
महिलाओं ने भी अंग्रेजों से आबरू बचाने के लिए गांव स्थित ऐतिहासिक कुएं में कूदकर जान दे दी थी. 14 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने इस गांव को बागी घोषित कर दिया व 13 नवंबर को पूरे गांव की नीलामी के आदेश दे दिए गए. 20 जुलाई 1858 को गांव की जमीन व मकानों तक को नीलाम कर दिया गया. इस जमीन को पास के पांच गांवों के 61 लोगों ने महज 8 हजार रुपये की बोली में खरीदा था. अंग्रेज सरकार ने फिर फरमान भी जारी कर दिया कि भविष्य में इस जमीन को रोहनात के लोगों को ना बेचा जाए.
धीरे धीरे स्थिति सामान्य हो गई और यहां के लोगों ने अपने रिश्तेदारों के नाम कुछ एकड़ जमीन खरीदकर दोबारा गांव बसाया, मगर लोगों को ये मलाल रहा कि देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ खो देने के बावजूद उन्हें वो जमीन तक नहीं मिली. जिसके लिए वे लड़ाई लड़ते रहे. इसी बात से खफा होकर ग्रामीणों ने यहां कभी झंडा नहीं फहराया था.