नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत तलाक की राहत देने के लिए विवाह के अपूरणीय टूटने के फॉर्मूले को स्ट्रेट-जैकेट फॉर्मूले के रूप में स्वीकार करना वांछनीय नहीं होगा. कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि अदालतों में तलाक की कार्यवाही दायर करने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद भी विवाह अभी भी भारतीय समाज में पति और पत्नी के बीच एक पवित्र, आध्यात्मिक माना जाता है.
इस संबंध में न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस (justices Aniruddha Bose) और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी (justices Bela M Trivedi) की पीठ इस सवाल पर विचार कर रही थी कि क्या विवाह के अपूरणीय विघटन के परिणामस्वरूप भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए विवाह को समाप्त कर देना चाहिए, जबकि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत यह तलाक का आधार नहीं है. 10 अक्टूबर को पारित एक फैसले में पीठ ने कहा कि किसी को इस तथ्य से अनजान नहीं होना चाहिए कि विवाह की संस्था एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है और समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा कि अदालतों में तलाक की कार्यवाही दायर करने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद विवाह को अभी भी एक पवित्र, आध्यात्मिक और अमूल्य भावनात्मक जीवन-जाल माना जाता है. उन्होंने कहा कि यह न केवल कानून के अक्षरों द्वारा बल्कि सामाजिक मानदंडों द्वारा भी शासित होता है. समाज में वैवाहिक रिश्तों से कई अन्य रिश्ते पैदा होते हैं और पनपते हैं. वर्तमान मामले में पीठ ने कहा कि पति की उम्र लगभग 89 वर्ष है और प्रतिवादी-पत्नी की आयु लगभग 82 वर्ष है. वहीं पत्नी ने 1963 से अपने पूरे जीवन भर पवित्र रिश्ते को बनाए रखा है और अपने तीन बच्चों की देखभाल की है.
पीठ ने कहा कि पत्नी अभी भी अपने पति की देखभाल करने के लिए तैयार और इच्छुक है और जीवन के इस पड़ाव पर उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहती. उन्होंने अपनी भावनाएं भी व्यक्त की हैं कि वह तलाकशुदा महिला होने का कलंक लेकर मरना नहीं चाहतीं. समकालीन समाज में यह कलंक नहीं हो सकता है लेकिन यहां हम प्रतिवादी की अपनी भावना से चिंतित हैं. न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा कि पत्नी की भावनाओं पर विचार करते हुए और उनका सम्मान करते हुए अदालत की राय है कि अनुच्छेद 142 के तहत अपीलकर्ता (पति) के पक्ष में विवेक का प्रयोग करते हुए पार्टियों के बीच इस आधार पर विवाह को समाप्त कर दिया जाए कि विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट गया है. नीचे, पार्टियों के साथ पूर्ण न्याय नहीं किया जाएगा, बल्कि प्रतिवादी (पत्नी) के साथ अन्याय किया जाएगा. पति द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए पीठ ने कहा कि हम शादी के अपूरणीय टूटने के आधार पर शादी को खत्म करने की अपीलकर्ता की दलील को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं हैं.
पीठ ने शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन मामले में संविधान पीठ के हालिया फैसले का हवाला देते हुए कहा था कि अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति का प्रयोग पूर्ण न्याय करने के लिए बहुत सावधानी और सावधानी के साथ किया जा सकता है. कोर्ट ने माना कि वह विवाह के अपूरणीय विघटन के आधार पर विवाह को समाप्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अंतर्निहित शक्तियों के तहत अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है, भले ही पति-पत्नी में से कोई एक विवाह के विघटन का विरोध करता हो. हालांकि अदालत ने कहा कि इस तरह के विवेक का प्रयोग बहुत सावधानी और सावधानी से किया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत का फैसला एक पति, जो एक योग्य डॉक्टर है और विंग कमांडर के पद से सेवानिवृत्त है, द्वारा अपनी पत्नी से तलाक की याचिका पर आया था, जो एक केंद्रीय विद्यालय में कार्यरत थी और अब रिटायर हो गई हैं.
पति ने मार्च 1996 में जिला अदालत चंडीगढ़ के समक्ष दो आधारों पर तलाक की कार्यवाही दायर की थी. इसमें हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत क्रूरता और परित्याग जैसा कि धारा 13 (1) (आईए) और 13 (1) (आईबी) में क्रमशः विचार किया गया है. मामले में पति ने 2009 के पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ शीर्ष अदालत का रुख किया, जहां उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 21 दिसंबर, 2000 के फैसले और डिक्री की पुष्टि की थी जो पत्नी के पक्ष में उच्च न्यायालय की एकल पीठ द्वारा पारित किया गया था. पत्नी ने अधिनियम की धारा 13 के तहत दोनों पक्षों के बीच विवाह को भंग करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय का रुख किया था.
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