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आखिर कहां गुम हो जाते हैं युवा छात्र नेता, 20 साल में कैसे बदली छात्र राजनीति?

भारत की छात्र राजनीति पिछले 20 साल में काफी बदल गई है. जिस कम उम्र में 70 के दशक के छात्र नेता संसद और विधानसभा की शोभा बढ़ा रहे थे, उतनी ही आयु वाले आज के स्टूडेंट लीडर राजनीति में अपना भविष्य तलाश नहीं पा रहे हैं. छात्र संगठन से एक्टिव राजनीति में कदम रखते ही वह भीड़ में खो जाते हैं. राष्ट्रीय फलक तक पहुंचने वाले इक्का-दुक्का नेता युवा तो नहीं रहते, उनकी एक उम्र पार्टी के भीतर खुद को साबित करने में निकल जाती है.

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Published : Sep 29, 2021, 6:20 PM IST

Updated : Sep 29, 2021, 11:52 PM IST

हैदराबाद : आपातकाल के दौरान छात्र राजनीति भारत में चरम पर थी. तब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र सत्ता के खिलाफ मुखर हुए थे. 1977 के बाद भारत में एक ऐसे नेतृत्व का उदय हुआ, जिन्होंने 90 के दशक में राजनीति भागीदारी तय की. राज्यों के मुख्यमंत्री, केंद्र के मंत्री, राज्य और केंद्र में नेता प्रतिपक्ष, सभी पदों पर लालू प्रसाद, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, विजय गोयल, अजय माकन जैसे नेता दिखे. राजनीति में इन नेताओं का वर्चस्व आज भी है.

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70 के दशक के छात्र नेता, जो सत्ता की धुरी बन गए

मगर वक्त के साथ यूनिवर्सिटी कैंपस में छात्र राजनीति चलती तो रही, मगर उसके प्रोडक्ट एक्टिव पॉलिटिक्स में कम ही दिखे. इस दौरान किसी भी विचारधारा से जुड़े छात्र नेता का कद इतना बड़ा नहीं हुआ, जो केंद्रीय राजनीति में अपनी जगह बना सके. पिछले दो दशक में कन्हैया कुमार और तेजस्वी सूर्या जैसे कुछ चुनिंदा नाम ही हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति में दिख रहे हैं.

बीजेपी के प्रकोष्ठों में खप जाते हैं छात्र नेता : बीजेपी के वर्तमान नेतृत्व में बड़े पदों पर बैठे नेता जे पी नड्डा, अमित शाह, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, मुरलीधर राव, धर्मेंद्र प्रधान, रविशंकर प्रसाद सभी एवीबीपी की छात्र राजनीति की उपज हैं, मगर इनका दौर काफी पुराना रहा है. संघ परिवार की छात्र ईकाई एबीवीपी देश का सबसे बड़ा छात्र संगठन होने का दावा करता है. दिल्ली छात्र संघ के अलावा अन्य प्रदेशों के यूनिवर्सिटी कैंपस में इसका दबदबा है. मगर एबीवीपी के छात्र नेता बीजेपी के जिलों और प्रदेश की कार्यकारिणी व प्रकोष्ठों में खप जाते हैं. राष्ट्रीय राजनीति का सफर तय करने में उन्हें दो से तीन दशक का समय लग जाता है.

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तेजस्वी सूर्या और कन्हैया चुनिंदा युवाओं में हैं, जो केंद्रीय राजनीति में देखते हैं

छात्र नेताओं को आसानी से नहीं मिलता टिकट : एनएसयूआई के जरिये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में शामिल होने वाले छात्र नेताओं की लिस्ट भी दो दशक से अपडेट नहीं हुई है. अजय माकन और केसी वेणुगोपाल के बाद छात्र नेताओं को बड़ा मुकाम हासिल नहीं हुआ. दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ के चुनाव में सफल रहे छात्र नेता विधायक के टिकट हासिल करने तक का सफर तय कर पाए. जब छात्र नेता यूनिवर्सिटी में चुनाव जीतते हैं, तब वह सुर्खियों में होते हैं मगर पार्टी में आते ही दिग्गज नेताओं के सामने उनका पता ही नहीं चलता है.

सीपीआई के महासचिव डी राजा और सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी भी छात्र नेता रहे हैं. वामपंथी छात्र संगठन जेएनयू के अलावा देश के सभी राज्यों में एक्टिव हैं, इसके बावजूद कन्हैया के अलावा कोई दूसरा नेता पिछले 20 साल में देश की सक्रिय राजनीति में स्थान नहीं बना पाया. हाल ही में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार कांग्रेस में शामिल हो गए. ऑल इंडिया स्टूडेंट असोसिएशन (AISA) के छात्र नेता रहे कन्हैया ने 2019 में सीपीआई से एक्टिव राजनीति शुरू की थी.

क्षेत्रीय दलों की छात्र राजनीति हमेशा से परिवारवाद का शिकार होती रही है, इसलिए उन दलों से ऐसे करिश्माई या चर्चित नेतृत्व की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. आखिर छात्र राजनीति ऐसे क्या बदलाव हुए, जिसने मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स से स्टूडेंट लीडर दूर होते गए.

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courtesy - twitter

छात्र संघ चुनाव नहीं होने से हल्की पड़ी स्टूडेंट पॉलिटिक्स : पॉलिटिकल एक्सपर्ट के अनुसार, छात्र राजनीति के कमजोर होने के कई कारण हैं. सबसे बड़ा कारण यूनिवर्सिटीज में छात्र संघ का चुनाव नहीं होना है. 2015 तक भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता प्राप्त कुल 727 यूनिवर्सिटी हैं. जिनमें 46 सेंट्रल यूनिवर्सिटी, 332 स्टेट यूनिवर्सिटी, 127 डीम्ड यूनिवर्सिटी और 222 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं. प्राइवेट यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ के चुनाव बिल्कुल नहीं होते हैं. मेडिकल, प्रबंधन और इंजीनियरिंग के कॉलेज में भी छात्रसंघ चुनाव नहीं होते हैं. बिहार, उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों में भी छात्रसंघ चुनाव कई साल से नहीं हुए. यूनिवर्सिटी में चुनाव नहीं होने से छात्रों की रुचि राजनीति में कम होती जा रही है. इसके अलावा स्टूडेंट पॉलिटिक्स की दुनिया कुछ यूनिवर्सिटीज में सिमट गई.

लिंग्दोह कमिटी की सिफारिशों ने भी निराश किया : मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 23 मई 2003 को 6 सदस्यीय लिंगदोह समिति बनाई थी. लिंग्दोह कमिटी की सिफारिशों को सरकार और सर्वोच्च न्यायालय ने मंजूर किया था. लिंग्दोह कमिटी की सिफारिशों के अनुसार, कोई भी छात्र 5000 रुपये से अधिक अपने चुनाव में खर्च नहीं करेगा. हाथ से बने बैनर तथा पोस्टर एक निर्धारित स्थल पर ही लगेंगे. 17 से 28 वर्ष तक के ऐसे छात्र ही संघ का चुनाव लड़ सकेगे, जिनका क्लास में अटेंडेंस 75 प्रतिशत हो. इसके अलावा कमिटी ने कैंडिडेट के एक बार ही चुनाव लड़ने का प्रावधान कर दिया. साथ में यह भी शर्त रख दी कि चुनाव लड़ने वाले स्टूडेंट को कम से कम 50 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य होगा. इस सिफारिशों का नतीजा यह हुआ कि डीयू और जेएनयू को छोड़कर अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र संघ के चुनाव में राजनैतिक दलों ने रुचि लेनी कम कर दी.

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लिंग्दोह कमिटी के सिफारिशों ने छात्रसंघ चुनाव को सीमित दायरे में समेट दिया

मुद्दों से दूर होते गए छात्र संगठन : राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पिछले 20 साल से छात्र संगठनों का काम करने का तरीका भी बदल गया. सभी छात्र संगठन अपने पैरेंट्स ऑर्गनाइजेशन के मुद्दों पर ही काम कर रहे हैं. देश और समाज से जुड़ी समस्याओं पर आंदोलन नहीं होते हैं. इससे छात्रों में नेतृत्व की क्षमता भी प्रभावित हुई. 1975 में हुए देशव्यापी छात्र आंदोलन की खासियत थी कि सभी अपने-अपने राष्ट्रीय मुद्दों पर एकजुट थे. उसके बाद ऐसा दौर नहीं आया इसलिए छात्र नेतृत्व के चेहरे भी कम होते गए. अब कैंपस में अटेंडेंस, हॉस्टल, एग्जाम आदि से हटकर सामाजिक और देश के मुद्दों पर छात्र संगठनों की सहभागिता कम हुई है.

वामपंथ से मुकाबले के लिए बनाई गई एबीवीपी

आजादी के पहले छात्र स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे. 1936 में कांग्रेस के समर्थन से ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन (AISF) का गठन हुआ. आजादी के बाद शिक्षा के मुद्दों पर आए. 1948 से वैचारिक लड़ाई भी शुरू हुई. कैंपस में कम्युनिज्म प्रभाव को कम करने के लिए आरएसएस के प्रचारक बलराज मधोक और यशवंत राव केलकर ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) की नींव रखी. वामपंथ में भी वर्गीकरण हुआ, इसके बाद 1954 में ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन ( AIDSO) का गठन हुआ. 1964 में सीपीआई (एम) में टूट के बाद सीपीआई बनी तो इसके साथ उसका छात्र संगठन एसएफआई भी अस्तित्व में आया.

कांग्रेस के सत्ता से हटते ही कमजोर पड़ी एनएसयूआई

स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस 40 सरकार तक सरकार में रही. इस दौरान कॉलेजों में बामपंथी छात्र संगठनों का वर्चस्व कम करने का बीड़ा कांग्रेस ने उठाया. 9 अप्रैल1971 को इंदिरा गांधी ने केरल स्टूडेंट यूनियन और वेस्ट बंगाल स्टेट छात्र परिषद का विलय कराकर नैशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) की नींव रखी. 70 के दशक में कांग्रेस ने खुले तौर पर छात्र नेताओं को पार्टी का प्रचार करने का जरिया बनाया. इसका नतीजा यह रहा कि जब कांग्रेस सत्ता से दूर हुई तो उसका छात्र संगठन भी कमजोर पड़ गया.

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डूसू की प्रेजिडेंट रहीं अलका लांबा, अमृता धवन और नुपूर शर्मा को भी चुनावी सफलता नहीं मिली

कैंपस में जलवा मगर वोट की राजनीति में हारते रहे हैं छात्र नेता

  • दिल्ली यूनिवर्सिटी और जेएनयू ही पिछले 50 साल से छात्रों का ऐसा मंच बनी, जहां के छात्र नेता लाइमलाइट में दिखते हैं. ऐसा ही एक नाम डीयू स्टूडेंट प्रेसिडेंट रह चुकी एनएसयूआई से जुड़ी अमृता धवन है. वह दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष हैं. 2013 में वह विधानसभा चुनाव हार गई थीं
  • दिल्ली यूनिवर्सिटी अध्यक्ष रहीं अमृता बाहरी एनएसयूआई की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहीं. एक बार विधानसभा चुनाव हारने के बाद वह सक्रिय राजनीति में नही दिखती. एबीवीपी की ओर से प्रेजिडेंट रह चुकी नुपूर शर्मा 2015 में अरविंद केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरी थीं. उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2020 में नुपूर बीजेपी की राष्ट्रीय प्रवक्ता की टीम में शामिल हुईं.
  • जेएनयू कैंपस में सुर्खियां बटोरने वाली नेताओं की राजनीतिक हालत दमदार नहीं हैं. 2016 में जेएऩयू छात्र यूनियन की उपाध्यक्ष रही शेहला रशीद शोरा देश विरोधी नारों के लिए चर्चित रहीं. कश्मीर के आवाज उठाने वाली शेहला रशीद जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट (JKPM) पार्टी से चुनाव भी लड़ीं. हार के बाद वह लाइमलाइट से दूर हैं.
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    जेएनयू की छात्र नेता आइशी घोष, शेहला रशीद और दीप्सिता धार विधानसभा चुनाव हार चुकी हैं
  • 2019 में जेएनयू प्रेजिडेंट रह चुकीं आइशी घोष ने 2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान सक्रिय राजनीति में कदम रखा था. आइशी जमुरिया विधानसभा से सीपीएम की उम्मीदवार थीं. चुनाव में हार के बाद वह भी राजनीति पटल पर नहीं दिख रही है. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) की जनरल सेक्रेटरी रह चुकीं दीप्सिता धार बल्ली विधानसभा से कैंडिडेट थी, उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा.
  • कन्हैया कुमार भी 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के गिरिराज सिंह से 4 लाख वोटों से हार चुके हैं.
  • 2010 में डीयू के प्रेजिडेंट चुने गए जितेंद्र चौधरी भाजपा जनता युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष रहे. हालांकि बाद में उनके आम आदमी पार्टी में शामिल होने की भी खबर आई. एबीवीपी से जुड़े रहे डूसू प्रेजिडेंट मोहित नागर, अमन अवाना, सत्येंद्र अवाना, अमित तंवर संगठन में काम कर रहे हैं.
  • एनएसयूआई की अलका लांबा आम आदमी पार्टी की टिकट पर विधायक बनी थीं. हालांकि केजरीवाल से विवाद के बाद वह कांग्रेसी हो गईं. कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के बाद उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा.

हैदराबाद : आपातकाल के दौरान छात्र राजनीति भारत में चरम पर थी. तब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र सत्ता के खिलाफ मुखर हुए थे. 1977 के बाद भारत में एक ऐसे नेतृत्व का उदय हुआ, जिन्होंने 90 के दशक में राजनीति भागीदारी तय की. राज्यों के मुख्यमंत्री, केंद्र के मंत्री, राज्य और केंद्र में नेता प्रतिपक्ष, सभी पदों पर लालू प्रसाद, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, विजय गोयल, अजय माकन जैसे नेता दिखे. राजनीति में इन नेताओं का वर्चस्व आज भी है.

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70 के दशक के छात्र नेता, जो सत्ता की धुरी बन गए

मगर वक्त के साथ यूनिवर्सिटी कैंपस में छात्र राजनीति चलती तो रही, मगर उसके प्रोडक्ट एक्टिव पॉलिटिक्स में कम ही दिखे. इस दौरान किसी भी विचारधारा से जुड़े छात्र नेता का कद इतना बड़ा नहीं हुआ, जो केंद्रीय राजनीति में अपनी जगह बना सके. पिछले दो दशक में कन्हैया कुमार और तेजस्वी सूर्या जैसे कुछ चुनिंदा नाम ही हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति में दिख रहे हैं.

बीजेपी के प्रकोष्ठों में खप जाते हैं छात्र नेता : बीजेपी के वर्तमान नेतृत्व में बड़े पदों पर बैठे नेता जे पी नड्डा, अमित शाह, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, मुरलीधर राव, धर्मेंद्र प्रधान, रविशंकर प्रसाद सभी एवीबीपी की छात्र राजनीति की उपज हैं, मगर इनका दौर काफी पुराना रहा है. संघ परिवार की छात्र ईकाई एबीवीपी देश का सबसे बड़ा छात्र संगठन होने का दावा करता है. दिल्ली छात्र संघ के अलावा अन्य प्रदेशों के यूनिवर्सिटी कैंपस में इसका दबदबा है. मगर एबीवीपी के छात्र नेता बीजेपी के जिलों और प्रदेश की कार्यकारिणी व प्रकोष्ठों में खप जाते हैं. राष्ट्रीय राजनीति का सफर तय करने में उन्हें दो से तीन दशक का समय लग जाता है.

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तेजस्वी सूर्या और कन्हैया चुनिंदा युवाओं में हैं, जो केंद्रीय राजनीति में देखते हैं

छात्र नेताओं को आसानी से नहीं मिलता टिकट : एनएसयूआई के जरिये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में शामिल होने वाले छात्र नेताओं की लिस्ट भी दो दशक से अपडेट नहीं हुई है. अजय माकन और केसी वेणुगोपाल के बाद छात्र नेताओं को बड़ा मुकाम हासिल नहीं हुआ. दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ के चुनाव में सफल रहे छात्र नेता विधायक के टिकट हासिल करने तक का सफर तय कर पाए. जब छात्र नेता यूनिवर्सिटी में चुनाव जीतते हैं, तब वह सुर्खियों में होते हैं मगर पार्टी में आते ही दिग्गज नेताओं के सामने उनका पता ही नहीं चलता है.

सीपीआई के महासचिव डी राजा और सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी भी छात्र नेता रहे हैं. वामपंथी छात्र संगठन जेएनयू के अलावा देश के सभी राज्यों में एक्टिव हैं, इसके बावजूद कन्हैया के अलावा कोई दूसरा नेता पिछले 20 साल में देश की सक्रिय राजनीति में स्थान नहीं बना पाया. हाल ही में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार कांग्रेस में शामिल हो गए. ऑल इंडिया स्टूडेंट असोसिएशन (AISA) के छात्र नेता रहे कन्हैया ने 2019 में सीपीआई से एक्टिव राजनीति शुरू की थी.

क्षेत्रीय दलों की छात्र राजनीति हमेशा से परिवारवाद का शिकार होती रही है, इसलिए उन दलों से ऐसे करिश्माई या चर्चित नेतृत्व की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. आखिर छात्र राजनीति ऐसे क्या बदलाव हुए, जिसने मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स से स्टूडेंट लीडर दूर होते गए.

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छात्र संघ चुनाव नहीं होने से हल्की पड़ी स्टूडेंट पॉलिटिक्स : पॉलिटिकल एक्सपर्ट के अनुसार, छात्र राजनीति के कमजोर होने के कई कारण हैं. सबसे बड़ा कारण यूनिवर्सिटीज में छात्र संघ का चुनाव नहीं होना है. 2015 तक भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता प्राप्त कुल 727 यूनिवर्सिटी हैं. जिनमें 46 सेंट्रल यूनिवर्सिटी, 332 स्टेट यूनिवर्सिटी, 127 डीम्ड यूनिवर्सिटी और 222 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं. प्राइवेट यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ के चुनाव बिल्कुल नहीं होते हैं. मेडिकल, प्रबंधन और इंजीनियरिंग के कॉलेज में भी छात्रसंघ चुनाव नहीं होते हैं. बिहार, उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों में भी छात्रसंघ चुनाव कई साल से नहीं हुए. यूनिवर्सिटी में चुनाव नहीं होने से छात्रों की रुचि राजनीति में कम होती जा रही है. इसके अलावा स्टूडेंट पॉलिटिक्स की दुनिया कुछ यूनिवर्सिटीज में सिमट गई.

लिंग्दोह कमिटी की सिफारिशों ने भी निराश किया : मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 23 मई 2003 को 6 सदस्यीय लिंगदोह समिति बनाई थी. लिंग्दोह कमिटी की सिफारिशों को सरकार और सर्वोच्च न्यायालय ने मंजूर किया था. लिंग्दोह कमिटी की सिफारिशों के अनुसार, कोई भी छात्र 5000 रुपये से अधिक अपने चुनाव में खर्च नहीं करेगा. हाथ से बने बैनर तथा पोस्टर एक निर्धारित स्थल पर ही लगेंगे. 17 से 28 वर्ष तक के ऐसे छात्र ही संघ का चुनाव लड़ सकेगे, जिनका क्लास में अटेंडेंस 75 प्रतिशत हो. इसके अलावा कमिटी ने कैंडिडेट के एक बार ही चुनाव लड़ने का प्रावधान कर दिया. साथ में यह भी शर्त रख दी कि चुनाव लड़ने वाले स्टूडेंट को कम से कम 50 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य होगा. इस सिफारिशों का नतीजा यह हुआ कि डीयू और जेएनयू को छोड़कर अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र संघ के चुनाव में राजनैतिक दलों ने रुचि लेनी कम कर दी.

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लिंग्दोह कमिटी के सिफारिशों ने छात्रसंघ चुनाव को सीमित दायरे में समेट दिया

मुद्दों से दूर होते गए छात्र संगठन : राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पिछले 20 साल से छात्र संगठनों का काम करने का तरीका भी बदल गया. सभी छात्र संगठन अपने पैरेंट्स ऑर्गनाइजेशन के मुद्दों पर ही काम कर रहे हैं. देश और समाज से जुड़ी समस्याओं पर आंदोलन नहीं होते हैं. इससे छात्रों में नेतृत्व की क्षमता भी प्रभावित हुई. 1975 में हुए देशव्यापी छात्र आंदोलन की खासियत थी कि सभी अपने-अपने राष्ट्रीय मुद्दों पर एकजुट थे. उसके बाद ऐसा दौर नहीं आया इसलिए छात्र नेतृत्व के चेहरे भी कम होते गए. अब कैंपस में अटेंडेंस, हॉस्टल, एग्जाम आदि से हटकर सामाजिक और देश के मुद्दों पर छात्र संगठनों की सहभागिता कम हुई है.

वामपंथ से मुकाबले के लिए बनाई गई एबीवीपी

आजादी के पहले छात्र स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे. 1936 में कांग्रेस के समर्थन से ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन (AISF) का गठन हुआ. आजादी के बाद शिक्षा के मुद्दों पर आए. 1948 से वैचारिक लड़ाई भी शुरू हुई. कैंपस में कम्युनिज्म प्रभाव को कम करने के लिए आरएसएस के प्रचारक बलराज मधोक और यशवंत राव केलकर ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) की नींव रखी. वामपंथ में भी वर्गीकरण हुआ, इसके बाद 1954 में ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन ( AIDSO) का गठन हुआ. 1964 में सीपीआई (एम) में टूट के बाद सीपीआई बनी तो इसके साथ उसका छात्र संगठन एसएफआई भी अस्तित्व में आया.

कांग्रेस के सत्ता से हटते ही कमजोर पड़ी एनएसयूआई

स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस 40 सरकार तक सरकार में रही. इस दौरान कॉलेजों में बामपंथी छात्र संगठनों का वर्चस्व कम करने का बीड़ा कांग्रेस ने उठाया. 9 अप्रैल1971 को इंदिरा गांधी ने केरल स्टूडेंट यूनियन और वेस्ट बंगाल स्टेट छात्र परिषद का विलय कराकर नैशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) की नींव रखी. 70 के दशक में कांग्रेस ने खुले तौर पर छात्र नेताओं को पार्टी का प्रचार करने का जरिया बनाया. इसका नतीजा यह रहा कि जब कांग्रेस सत्ता से दूर हुई तो उसका छात्र संगठन भी कमजोर पड़ गया.

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डूसू की प्रेजिडेंट रहीं अलका लांबा, अमृता धवन और नुपूर शर्मा को भी चुनावी सफलता नहीं मिली

कैंपस में जलवा मगर वोट की राजनीति में हारते रहे हैं छात्र नेता

  • दिल्ली यूनिवर्सिटी और जेएनयू ही पिछले 50 साल से छात्रों का ऐसा मंच बनी, जहां के छात्र नेता लाइमलाइट में दिखते हैं. ऐसा ही एक नाम डीयू स्टूडेंट प्रेसिडेंट रह चुकी एनएसयूआई से जुड़ी अमृता धवन है. वह दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष हैं. 2013 में वह विधानसभा चुनाव हार गई थीं
  • दिल्ली यूनिवर्सिटी अध्यक्ष रहीं अमृता बाहरी एनएसयूआई की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहीं. एक बार विधानसभा चुनाव हारने के बाद वह सक्रिय राजनीति में नही दिखती. एबीवीपी की ओर से प्रेजिडेंट रह चुकी नुपूर शर्मा 2015 में अरविंद केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरी थीं. उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2020 में नुपूर बीजेपी की राष्ट्रीय प्रवक्ता की टीम में शामिल हुईं.
  • जेएनयू कैंपस में सुर्खियां बटोरने वाली नेताओं की राजनीतिक हालत दमदार नहीं हैं. 2016 में जेएऩयू छात्र यूनियन की उपाध्यक्ष रही शेहला रशीद शोरा देश विरोधी नारों के लिए चर्चित रहीं. कश्मीर के आवाज उठाने वाली शेहला रशीद जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट (JKPM) पार्टी से चुनाव भी लड़ीं. हार के बाद वह लाइमलाइट से दूर हैं.
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    जेएनयू की छात्र नेता आइशी घोष, शेहला रशीद और दीप्सिता धार विधानसभा चुनाव हार चुकी हैं
  • 2019 में जेएनयू प्रेजिडेंट रह चुकीं आइशी घोष ने 2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान सक्रिय राजनीति में कदम रखा था. आइशी जमुरिया विधानसभा से सीपीएम की उम्मीदवार थीं. चुनाव में हार के बाद वह भी राजनीति पटल पर नहीं दिख रही है. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) की जनरल सेक्रेटरी रह चुकीं दीप्सिता धार बल्ली विधानसभा से कैंडिडेट थी, उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा.
  • कन्हैया कुमार भी 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के गिरिराज सिंह से 4 लाख वोटों से हार चुके हैं.
  • 2010 में डीयू के प्रेजिडेंट चुने गए जितेंद्र चौधरी भाजपा जनता युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष रहे. हालांकि बाद में उनके आम आदमी पार्टी में शामिल होने की भी खबर आई. एबीवीपी से जुड़े रहे डूसू प्रेजिडेंट मोहित नागर, अमन अवाना, सत्येंद्र अवाना, अमित तंवर संगठन में काम कर रहे हैं.
  • एनएसयूआई की अलका लांबा आम आदमी पार्टी की टिकट पर विधायक बनी थीं. हालांकि केजरीवाल से विवाद के बाद वह कांग्रेसी हो गईं. कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के बाद उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा.
Last Updated : Sep 29, 2021, 11:52 PM IST
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