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Climate change : बिगड़ रहा मौसम का मिजाज, चिंता का कारण बन रहीं हीटवेव

जलवायु परिवर्तन दुनियाभर के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है. जिन क्षेत्रों में लंबे समय तक सूखा पड़ा रहता था उनमें बाढ़ आ रही है और जहां खूब बारिश होती थी, उन इलाकों में सूखा पड़ रहा है. हीटवेव से होने वाली मौतें चिंता का कारण हैं. ऐसे में समय रहते कारगर कदम उठाने की जरूरत है. पढ़िए ईटीवी भारत के न्यूज एडिटर बिलाल भट का विश्लेषण.

Weather pattern
चिंता का कारण बन रहीं हीटवेव
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Published : May 2, 2023, 8:39 PM IST

हैदराबाद : जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव की ओर मीडिया का भी ध्यान गया है. इससे जुड़ी खबरें अब सुर्खियां बन रही हैं. हालांकि मीडिया घरानों को अभी भी यह तय करना है कि क्या यह विषय किसी अन्य प्रमुख बीट की तरह व्यापक कवरेज के लिए योग्य है, क्योंकि इस ओर जितना ध्यान जाना चाहिए वह अभी नहीं दिया जा रहा है.

हेल्थ बीट ने किसी तरह अपनी जगह बनाई है खासकर महामारी के बाद, लेकिन जलवायु परिवर्तन के मामले में मीडिया को काफी कुछ करना बाकी है. हाल ही में मुंबई में एक रैली के दौरान हीटस्ट्रोक के कारण हुई मौतों को लेकर शायद ही किसी ने बड़ी स्टोरी बनाई. हमने अभी तक हीटस्ट्रोक को सनस्ट्रोक के प्रतिस्थापन शब्द के रूप में नहीं अपनाया है, जो गर्मी से मरने वाले किसी व्यक्ति के लिए अभी भी मीडिया में शब्दजाल के रूप में उपयोग किया जाता है. हीटवेव को अभी भी एक गंभीर चिंता के रूप में नहीं देखा जाता है, यही वजह है कि लोग अत्यधिक गर्मी की स्थिति में क्या करें और क्या न करें का शायद ही पालन करते हैं. जब तक बड़े पैमाने पर मीडिया आउटरीच और इस संबंध में अभियान नहीं होंगे, तब तक लोग हीटवेव के बारे में जागरूक नहीं होंगे.

मध्य पूर्व से चलने वाली गर्म हवाओं का असर हिंद महासागर पर पड़ता है. ये बात अक्सर जलवायु विशेषज्ञों को परेशान करती हैं क्योंकि हिंद महासागर सबसे गर्म महासागरों में से एक है और इसके परिणाम हर भारतीय के लिए हो सकते हैं. यूं तो हिंद महासागर से ही मानसून का निर्धारण होता है, लेकिन प्रशांत महासागर से आने वाली हवाएं भी भारत के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इसमें हिंद महासागर की गर्म हवाओं को ठंडा करने की क्षमता है, जिससे मानसून प्रभावित होता है.

हिंद महासागर की वजह से हीटवेव उभर आती हैं, अगर यह एक निश्चित सीमा से ज्यादा हो जाती हैं तो लोगों के लिए जानलेवा सबित होती हैं. हालांकि, शुरुआती चेतावनी अगर जारी कर दी जाए तो इससे होने वाली मौतों को काफी हद तक कम किया जा सकता है. ऐसा हो भी रहा है 2015 से हीटवेव से होने वाली मौतों में कमी आई है.

सरकार वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की मदद से कमजोर समुदायों को जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीला बनाने और इसके मानव जीवन पर पड़ने वाले जोखिमों को कम करने की कोशिश कर रही है. गुजरात समेत कई राज्यों ने हीटवेव एक्शन प्लान (एचएपी) बनाए हैं. अहमदाबाद दक्षिण एशिया में सफल होने वालों में से एक है.

गर्मी के प्रभावों को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाने की जरूरत है. महिलाओं, बच्चों और 60 वर्ष से अधिक आयु के किसी भी व्यक्ति के लिए हीटवेव और गर्मी ज्यादा खतरनाक है. खास तौर पर महिलाओं के लिए, जो बार-बार टॉयलट जाने से बचने के लिए गर्मी में भी पीने के पानी का कम इस्तेमाल करती हैं.

श्रमिक और किसानों के लिए हीटवेव ज्यादा खतरा हैं, क्योंकि वह लंबे समय तक गर्मी के संपर्क में रहते हैं. गर्मी की वजह से श्रमिकों के काम पर भी असर पड़ा है. हीटवेव की वजह से औसतन 20 साल में श्रमिकों का 22 हजार करोड़ (220 बिलियन) घंटे का काम छिन गया और 2.3 करोड़ (23 मिलियन) नौकरियों पर असर पड़ा. अगले सात वर्षों में काम के घंटों का नुकसान 25 प्रतिशत तक बढ़ने वाला है. पेरिस समझौते के अनुच्छेद 8 के अनुसार अत्यधिक गर्मी की वजह से होने वाली क्षति और नुकसान मुआवजे के योग्य नहीं हैं.

लू के कारण मरने वाले लोग मुआवजे के हकदार नहीं हैं. गर्मी से संबंधित मौतों और चोटों की भरपाई तब तक नहीं की जाएगी जब तक कि हीटवेव को राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया जाता.

जलवायु परिवर्तन ने बारिश और हिमपात पैटर्न को भी प्रभावित किया है. जिन क्षेत्रों में लंबे समय तक सूखा पड़ा रहता था उनमें बाढ़ आ रही है और जहां खूब बारिश होती थी, वह इलाके सूखे होते जा रहे हैं. आंध्र प्रदेश के चितूर, तिरुपति जैसे सूखे इलाकों में बाढ़ आई है, जबकि कभी-कभी झारखंड, बिहार और यूपी से सूखे की खबरें आती हैं.

फ्लैश फ्लड, लाइटनिंग और थंडरस्टॉर्म की खबरें अब बराबर सामने आती रहती हैं. बिजली गिरने और बादलों की गरज से होने वाली मौतें की घटनाएं भी हो रही हैं. आंकड़ों के मुताबिक बिजली गिरने और आंधी-तूफान में करीब 3000 लोग मारे गए हैं. बर्फबारी और उसके बाद के एवलॉन्च की घटनाएं बढ़ी हैं. बर्फ गिरने के बाद अगले दिन से बर्फ पिघलना शुरू हो जाती है. पहले बर्फबारी नवंबर और दिसंबर में होती थी, लेकिन अब यह फरवरी-मार्च में हो रही है.

जलवायु परिवर्तन का एक अन्य पहलू जंगल की आग है, जिसने उन जानवरों और पक्षियों के लिए जीवन का संकट पैदा किया है, जिन्होंने पहले इसका सामना नहीं किया था. मार्च के महीने में जंगल की आग तब अधिक विनाशकारी होती है जब पक्षी मानसून से पहले प्रजनन में व्यस्त होते हैं और जंगल की आग में फंस जाते हैं. आग उनके लिए जानलेवा साबित होती है.

गोवा जैसे स्थानों में जंगल की आग के मामले सामने आए. उसी तरह उत्तर पूर्व में ज़ुकोऊ घाटी में भी जंगल की आग की घटनाओं की सूचना मिली, जैसा पहले कभी नहीं हुआ. इस नए चलन को जलवायु परिवर्तन के परिणाम के रूप में देखा जा रहा है.

न केवल जंगलों में रहने वालों को खतरा है, बल्कि तटों पर रहने वाले लोगों को भी अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ रहा है. कई द्वीप गायब हो गए और वैज्ञानिकों ने तटीय क्षेत्रों में और बाढ़ आने की भविष्यवाणी की है. समुद्र का बढ़ता जल द्वीपों और तटीय क्षेत्रों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरे का संकेत देता है.

पश्चिमी तट पर चक्रवात इसी का उदाहरण है कि नए चक्रवात पथ कैसे विकसित हुए हैं. चक्रवात उन क्षेत्रों में आ रहें जहां पहले कभी नहीं आते थे. सरकार वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा कर रही है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे और इसके प्रभावों से कैसे निपटा जाए. समस्या को कम करने की कोशिश करने के बजाय, सरकार अनुकूलता पर ध्यान केंद्रित कर रही है जहां कुछ विशेषज्ञ असहमत दिख रहे हैं. लोगों को लचीला बनाना योजना का एक घटक हो सकता है, लेकिन इसके लिए कारगर कदम उठाए जाने की जरूरत है.

पढ़ें- IMD Forecast: मई में कहर बरपाएगी गर्मी, बिहार, झारखंड और ओडिशा में हीट वेव अलर्ट

हैदराबाद : जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव की ओर मीडिया का भी ध्यान गया है. इससे जुड़ी खबरें अब सुर्खियां बन रही हैं. हालांकि मीडिया घरानों को अभी भी यह तय करना है कि क्या यह विषय किसी अन्य प्रमुख बीट की तरह व्यापक कवरेज के लिए योग्य है, क्योंकि इस ओर जितना ध्यान जाना चाहिए वह अभी नहीं दिया जा रहा है.

हेल्थ बीट ने किसी तरह अपनी जगह बनाई है खासकर महामारी के बाद, लेकिन जलवायु परिवर्तन के मामले में मीडिया को काफी कुछ करना बाकी है. हाल ही में मुंबई में एक रैली के दौरान हीटस्ट्रोक के कारण हुई मौतों को लेकर शायद ही किसी ने बड़ी स्टोरी बनाई. हमने अभी तक हीटस्ट्रोक को सनस्ट्रोक के प्रतिस्थापन शब्द के रूप में नहीं अपनाया है, जो गर्मी से मरने वाले किसी व्यक्ति के लिए अभी भी मीडिया में शब्दजाल के रूप में उपयोग किया जाता है. हीटवेव को अभी भी एक गंभीर चिंता के रूप में नहीं देखा जाता है, यही वजह है कि लोग अत्यधिक गर्मी की स्थिति में क्या करें और क्या न करें का शायद ही पालन करते हैं. जब तक बड़े पैमाने पर मीडिया आउटरीच और इस संबंध में अभियान नहीं होंगे, तब तक लोग हीटवेव के बारे में जागरूक नहीं होंगे.

मध्य पूर्व से चलने वाली गर्म हवाओं का असर हिंद महासागर पर पड़ता है. ये बात अक्सर जलवायु विशेषज्ञों को परेशान करती हैं क्योंकि हिंद महासागर सबसे गर्म महासागरों में से एक है और इसके परिणाम हर भारतीय के लिए हो सकते हैं. यूं तो हिंद महासागर से ही मानसून का निर्धारण होता है, लेकिन प्रशांत महासागर से आने वाली हवाएं भी भारत के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इसमें हिंद महासागर की गर्म हवाओं को ठंडा करने की क्षमता है, जिससे मानसून प्रभावित होता है.

हिंद महासागर की वजह से हीटवेव उभर आती हैं, अगर यह एक निश्चित सीमा से ज्यादा हो जाती हैं तो लोगों के लिए जानलेवा सबित होती हैं. हालांकि, शुरुआती चेतावनी अगर जारी कर दी जाए तो इससे होने वाली मौतों को काफी हद तक कम किया जा सकता है. ऐसा हो भी रहा है 2015 से हीटवेव से होने वाली मौतों में कमी आई है.

सरकार वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की मदद से कमजोर समुदायों को जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीला बनाने और इसके मानव जीवन पर पड़ने वाले जोखिमों को कम करने की कोशिश कर रही है. गुजरात समेत कई राज्यों ने हीटवेव एक्शन प्लान (एचएपी) बनाए हैं. अहमदाबाद दक्षिण एशिया में सफल होने वालों में से एक है.

गर्मी के प्रभावों को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाने की जरूरत है. महिलाओं, बच्चों और 60 वर्ष से अधिक आयु के किसी भी व्यक्ति के लिए हीटवेव और गर्मी ज्यादा खतरनाक है. खास तौर पर महिलाओं के लिए, जो बार-बार टॉयलट जाने से बचने के लिए गर्मी में भी पीने के पानी का कम इस्तेमाल करती हैं.

श्रमिक और किसानों के लिए हीटवेव ज्यादा खतरा हैं, क्योंकि वह लंबे समय तक गर्मी के संपर्क में रहते हैं. गर्मी की वजह से श्रमिकों के काम पर भी असर पड़ा है. हीटवेव की वजह से औसतन 20 साल में श्रमिकों का 22 हजार करोड़ (220 बिलियन) घंटे का काम छिन गया और 2.3 करोड़ (23 मिलियन) नौकरियों पर असर पड़ा. अगले सात वर्षों में काम के घंटों का नुकसान 25 प्रतिशत तक बढ़ने वाला है. पेरिस समझौते के अनुच्छेद 8 के अनुसार अत्यधिक गर्मी की वजह से होने वाली क्षति और नुकसान मुआवजे के योग्य नहीं हैं.

लू के कारण मरने वाले लोग मुआवजे के हकदार नहीं हैं. गर्मी से संबंधित मौतों और चोटों की भरपाई तब तक नहीं की जाएगी जब तक कि हीटवेव को राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया जाता.

जलवायु परिवर्तन ने बारिश और हिमपात पैटर्न को भी प्रभावित किया है. जिन क्षेत्रों में लंबे समय तक सूखा पड़ा रहता था उनमें बाढ़ आ रही है और जहां खूब बारिश होती थी, वह इलाके सूखे होते जा रहे हैं. आंध्र प्रदेश के चितूर, तिरुपति जैसे सूखे इलाकों में बाढ़ आई है, जबकि कभी-कभी झारखंड, बिहार और यूपी से सूखे की खबरें आती हैं.

फ्लैश फ्लड, लाइटनिंग और थंडरस्टॉर्म की खबरें अब बराबर सामने आती रहती हैं. बिजली गिरने और बादलों की गरज से होने वाली मौतें की घटनाएं भी हो रही हैं. आंकड़ों के मुताबिक बिजली गिरने और आंधी-तूफान में करीब 3000 लोग मारे गए हैं. बर्फबारी और उसके बाद के एवलॉन्च की घटनाएं बढ़ी हैं. बर्फ गिरने के बाद अगले दिन से बर्फ पिघलना शुरू हो जाती है. पहले बर्फबारी नवंबर और दिसंबर में होती थी, लेकिन अब यह फरवरी-मार्च में हो रही है.

जलवायु परिवर्तन का एक अन्य पहलू जंगल की आग है, जिसने उन जानवरों और पक्षियों के लिए जीवन का संकट पैदा किया है, जिन्होंने पहले इसका सामना नहीं किया था. मार्च के महीने में जंगल की आग तब अधिक विनाशकारी होती है जब पक्षी मानसून से पहले प्रजनन में व्यस्त होते हैं और जंगल की आग में फंस जाते हैं. आग उनके लिए जानलेवा साबित होती है.

गोवा जैसे स्थानों में जंगल की आग के मामले सामने आए. उसी तरह उत्तर पूर्व में ज़ुकोऊ घाटी में भी जंगल की आग की घटनाओं की सूचना मिली, जैसा पहले कभी नहीं हुआ. इस नए चलन को जलवायु परिवर्तन के परिणाम के रूप में देखा जा रहा है.

न केवल जंगलों में रहने वालों को खतरा है, बल्कि तटों पर रहने वाले लोगों को भी अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ रहा है. कई द्वीप गायब हो गए और वैज्ञानिकों ने तटीय क्षेत्रों में और बाढ़ आने की भविष्यवाणी की है. समुद्र का बढ़ता जल द्वीपों और तटीय क्षेत्रों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरे का संकेत देता है.

पश्चिमी तट पर चक्रवात इसी का उदाहरण है कि नए चक्रवात पथ कैसे विकसित हुए हैं. चक्रवात उन क्षेत्रों में आ रहें जहां पहले कभी नहीं आते थे. सरकार वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा कर रही है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे और इसके प्रभावों से कैसे निपटा जाए. समस्या को कम करने की कोशिश करने के बजाय, सरकार अनुकूलता पर ध्यान केंद्रित कर रही है जहां कुछ विशेषज्ञ असहमत दिख रहे हैं. लोगों को लचीला बनाना योजना का एक घटक हो सकता है, लेकिन इसके लिए कारगर कदम उठाए जाने की जरूरत है.

पढ़ें- IMD Forecast: मई में कहर बरपाएगी गर्मी, बिहार, झारखंड और ओडिशा में हीट वेव अलर्ट

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