बंगलुरु : कर्नाटक हाईकोर्ट ने बाल संन्यास की वैधता को बरकरार रखा है. कोर्ट ने बुधवार को कहा कि नाबालिग के स्वामी बनने पर कोई कानूनी रोक नहीं है. कार्यवाहक चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सचिन शंकर मखदूम की खंडपीठ ने एक रिट याचिका को खारिज़ करते हुए यह फैसला सुनाया है.
याचिका में 16 वर्षीय अनिरुद्ध सरलतया (अब वेदवर्धाना तीर्थ) को उडुपी स्थित शिरूर मठ का पीठाधिपति नियुक्त किए जाने के फैसले को चुनौती दी गई थी.
पीठ ने फैसले में कहा है कि अन्य धर्मों जैसे बौद्ध धर्म में कम उम्र के बच्चे भिक्षु बन चुके हैं. ऐसा कोई नियम नहीं है कि किस उम्र में संन्यास/भिक्षा दी जा सकती है. कोई कानून भी नहीं है, 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति, जिसे संन्यास में दीक्षित किया जा रहा है, इस पर कोई संवैधानिक प्रतिबंध नहीं है. न्याय मित्र ने इसके लिए धार्मिक ग्रंथों का जिक्र करते हुए कहा कि धार्मिक ग्रंथ स्पष्ट करते हैं कि धर्म किसी व्यक्ति को 18 वर्ष से पहले संन्यासी बनने की अनुमति देता है और इस पर कोई पाबंदी नहीं है.
एडवोकेट डीआर रविशंकर के माध्यम से याचिकाकर्ता पी लाथव्य आचार्य की ओर से जारी याचिका में तर्क दिया गया था कि नाबालिग को भौतिक जीवन के परित्याग के लिए मजबूर करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन है.
याचिका में कहा गया था, एक नाबालिग को वह करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है जो उसकी उम्र के अनुकूल नहीं है. एक नाबालिग का मुख्य पुजारी के रूप में अभिषेक करना बच्चे पर भौतिक जीवन का परित्याग थोपने के बराबर है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है.
याचिकाकर्ता की दलील दी थी कि बाल संन्यास बाल श्रम के समान है. मुद्दे को हल करने के लिए कोर्ट ने सीनियर एडवोकेट एसएस नागानंद को एमिकस क्यूरी के रूप में नियुक्त किया था, जिन्होंने दलील दी थी कि नाबालिग के स्वामी बनने पर कोई कानूनी रोक नहीं है. उन्होंने कहा था, 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को संन्यास में दीक्षित करने पर कोई कानूनी, संवैधानिक रोक नहीं है.