“टीनएज “ एक ऐसी संवेदनशील अवस्था होती है जहां ना सिर्फ बच्चों में शारीरिक बदलाव बल्कि कई प्रकार के हार्मोनल बदलाव भी आते हैं. जिसका असर उनके व्यवहार तथा उनके मूड पर भी काफी ज्यादा नजर आता है. इसीलिए इस आयु में ज्यादातर बच्चे ज्यादा चिड़चिड़े, गुस्सैल तथा विरोधी प्रवृत्ति के हो जाते हैं.
क्यों टीनएज में बच्चों को आता है ज्यादा गुस्सा
“टीनएज “ में बच्चों में होने वाले व्यवहरात्मक परिवर्तन को रोका नही जा सकता है लेकिन बच्चों के मूड स्विंग्स और उनके गुस्सैल व्यवहार को नियंत्रित रखने के लिए कुछ प्रयास अवश्य किए जा सकते हैं. मनोचिकित्सक डॉक्टर रेणुका शर्मा बताती हैं कि किशोरावस्था में बच्चों के व्यवहार में काफी परिवर्तन देखने में आते हैं. यह वह समय होता है जब बच्चे कई बातों और मुद्दों से पहली बार परिचित होते हैं. इसके अलावा इस आयु में उन पर स्कूल, दोस्त, परिवार, सामाजिक व्यवस्था तथा वर्तमान समय में सोशल मीडिया सहित कहीं चीजों का दबाव बनने लगता है. ऐसे में उनके मन में कई प्रकार के प्रश्न तथा जिज्ञासाएं उत्पन्न हो जाती है. इसके अतिरिक्त ज्यादातर बच्चे इस आयु में अपनी बातचीत व गतिविधियों में स्वतंत्रता चाहते हैं . जब वह उन्हे नही मिलती है और साथ ही उनकी जिज्ञासाएं भी शांत नही हो पाती है, तो उनकी परेशानी उनके व्यवहार में नजर आने लगती है.
कैसे करें बच्चों में गुस्सैल व्यवहार को नियंत्रित
डॉ रेणुका बताती हैं कि इस उम्र में बहुत जरूरी है कि माता-पिता बच्चों के पक्ष को भी समझें तथा उनके साथ व्यवहार तथा घर का माहौल इस प्रकार से रखें जहां दोनों एक दूसरे के साथ खुलकर बात कर सके और अपनी समस्याओं को रख सकें.
आमतौर पर जब माता-पिता बच्चे से गुस्से से या चिल्ला कर बात करते हैं तो बच्चे भी उन्हें उसी लहजे में जवाब देते हैं. आज के दौर में बच्चे ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं. ऐसे में कई बार माता-पिता का उन्हें तेज आवाज में समझाना या गुस्सा करना भी उनके दिमाग में नकारात्मक विचारों को पनपने का मौका दे सकता है. यदि माता-पिता उनसे सामान्य और शांत आवाज में बात करें और उन्हें उनकी बात रखने का पूरा मौका दें तो वे भी उनकी बात को समझेंगे .
बहस ना करें
डॉ रेणुका बताती हैं कि जब बच्चे बहुत ज्यादा गुस्से में होते हैं तो उनसे बात करने या उन्हें समझाने का उन पर कोई असर नहीं होता है. फिर भी यदि माता पिता उनसे उन्ही के लहजे में बात करते हैं तो वह जवाब में बहस करना शुरू कर देते हैं. जिससे माता-पिता भी क्रोधित हो जाते हैं, और बातचीत बहस में बदल जाती है. अगर बच्चा बहुत ज्यादा गुस्से में है तो उससे उस समय बात करने से बचना चाहिए और गुस्सा शांत होने पर उनसे बात करनी चाहिए. जिससे वह आपकी बात सुने और समझे भी .
उनकी बात सुने
इस आयु में बच्चे उस दौर में होते हैं जहां उन्हें लगता है कि वह बड़े हो गए हैं लेकिन उनके माता-पिता के समक्ष वह छोटे बच्चे ही होते हैं. ऐसे में कई बार माता-पिता द्वारा उन्हें बात-बात पर समझाना या ठोकना उन्हें बुरा लग जाता है. इसके अलावा कई बार यदि माता-पिता दोनों ही उन्हें पर्याप्त मात्रा में समय नहीं दे पाते हैं तो वह अकेलापन महसूस करने लगते हैं. लेकिन अहम के चलते ज्यादातर बच्चे अपनी भावनाओं को बोलकर व्यक्त नहीं करते हैं. जिसके चलते उनके अंदर गुस्सा पनपने लगता है.
डॉ रेणुका बताती है कि बहुत जरूरी है कि माता-पिता बच्चों को भले ही कम समय दे लेकिन वह समय ऐसा होना चाहिए जहां वे दोनों खुलकर एक दूसरे से अपने मन की बात कर सके. और अच्छा समय बीता सके.ऐसा करने से बच्चों के मन की आधी परेशानियां अपने आप समाप्त हो जाती हैं और माता पिता पर उनका विश्वास बढ़ता है.
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इसके साथ ही बच्चों को हर समय यह महसूस नही कराना चाहिए कि वह बहुत छोटे बच्चे हैं बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने का मौका देना चाहिए. ऐसा करने से ना सिर्फ उन में निर्णय लेने की क्षमता विकसित होगी साथ ही उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. इसके अलावा ऐसा करने से बच्चों के तथा उनके माता-पिता के बीच के संबंध मजबूत तथा खुशनुमा होते हैं.
बोलकर नहीं व्यवहार से सिखाएं बातें
माता-पिता आमतौर पर बच्चों को बताते हैं कि उनके लिए कौन सी बातें अच्छी हैं कौन सी बातें बुरी हैं. इसके अलावा किस तरह की आदतों को अपने नियमित व्यवहार में लाना चाहिए तथा किन आदतों को बिल्कुल भी अपनाना नहीं चाहिए. लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि ज्यादातर माता-पिता उन नियमों और निर्देशों को स्वयं अपने जीवन में नहीं अपनाते हैं. यहाँ यह जानना बहुत जरूरी है कि बच्चों के लिए उनके माता-पिता उनके लिए रोल मॉडल होते हैं और वे जाने-अनजाने उनके व्यवहार को ही अपनाने का प्रयास करते हैं . लेकिन उनके द्वारा बोल कर सिखाई जाने वाली बातों पर ज्यादातर बच्चे ध्यान नही देते हैं. इसलिए उन्हें बोलकर कुछ भी सिखाने की बजाय अच्छी आदतों को अपने व्यवहार में भी लाना जरूरी है. जैसे अनुशासन, व्यवहार में सौम्यता, दूसरों के साथ कैसा व्यवहार रखना है, तथा अपनी भावनाओं को कैसे नियंत्रित रखना है आदि.
यदि माता-पिता इन छोटी-छोटी बातों को अपने व्यवहार में शामिल करते हैं तो बच्चे बिना सुने और कहे स्वतः ही उन आदतों को अपने व्यवहार में शामिल कर लेते हैं.
बच्चों के व्यवहार पर निगरानी रखें
डॉ रेणुका बताती हैं कि जरूरी नहीं है कि इन सभी बातों को आजमाने पर बच्चों का व्यवहार सही व शांत रहे. लेकिन इन उपायों से काफी हद तक मदद मिल सकती है. वह बताती है कि आज के दौर में बच्चे चूंकि बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं ऐसे में कुछ बच्चों में भावनात्मक रूप से कमजोर होने की समस्या भी पाई जाती है. जिसे लेकर यदि ध्यान न दिया जाय तो उनमें छोटी-छोटी बातों को लेकर खुद को हानि पहुंचाने वाली भावना भी विकसित हो सकती है.
इसलिए बहुत जरूरी है कि माता-पिता बगैर कहे अपने बच्चों के व्यवहार पर निगरानी रखें. यदि बच्चे के व्यवहार में बहुत ज्यादा गुस्सा नजर आ रहा हो, या बच्चा बहुत कम या बहुत ज्यादा बात कर रहा हो, वह बहुत कम या बहुत ज्यादा खा रहा हो या कहीं उसमें स्वयं को नुकसान पहुंचाने की प्रवत्ति हो सावधान होने की जरूरत है. ऐसे में बच्चों की काउंसलिंग कराना एक अच्छा विकल्प हो सकता है.