ETV Bharat / sukhibhava

भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर करती है “इ.एफ.टी”

हम हमेशा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करते है। लेकिन हमारी भावनाएं भी हमारे सम्पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य का हिस्सा मानी जाती है। व्यक्ति की भावनात्मक अस्वस्थता न सिर्फ व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है बल्कि व्यक्ति के आसपास रहने वाले लोगों को भी प्रभावित करती है। लोगों के भावनात्मक स्वास्थ्य को बरकरार रखने में वैकल्पिक तकनीक “इ.एफ.टी” यानी इमोशनल फ्रीडम तकनीक को काफी असरदार माना जाता है।

Emotional Freedom Technique
भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर करती है “इ.एफ.टी”
author img

By

Published : May 25, 2021, 6:10 PM IST

कोरोना ही नही वर्तमान समय में लोग अलग-अलग कारणों से मानसिक त्रास से गुजर रहे है। न सिर्फ व्यक्तिगत बल्कि समाज के स्वास्थ्य को बरकरार रखने के लिए जरूरी है की लोगो की मनःस्तिथि ठीक हो और वह भावनात्मक रूप से मजबूत महसूस करें । इसके लिए वैकल्पिक पद्दतीयों तथा थेरेपियों का सहारा लिया जा सकता है। ऐसी ही एक पद्दती है “इ.एफ.टी” यानी इमोशनल फ्रीडम तकनीक । जानकार मानते है की इस पद्दती के माध्यम से लोग अपने भावनात्मक स्वास्थ्य को तो दुरुस्त रख ही सकते है साथ ही तनाव और नकारात्मकता दोनों से काफी हद तक छुटकारा पा सकते है।

“इ.एफ.टी” यानी इमोशनल फ्रीडम तकनीक के बारें में ज्यादा जानकारी देते हुए “इ.एफ.टी” थेरेपिस्ट सोनल सिन्हा बताती है की इस थेरेपी से न सिर्फ लोगों के भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ को फायदा मिलता है बल्कि उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक असर पड़ता है। ईटीवी भारत सुखी भव को “इ.एफ.टी” के बारें में ज्यादा जानकारी देते हुए उन्होंने अपनी कई “ केस हिस्ट्री “ यानी मरीजों से जुड़े अनुभव साँझा किए।

शारीरिक समस्याओं के निवारण में भी मददगार

सोनल सिन्हा बताते हैं कि इमोशनल फ्रीडम टेक्निक ना सिर्फ मानसिक स्वस्थ स्वास्थ्य को बरकरार रखने बल्कि कई प्रकार की शारीरिक समस्याओं निवारण में भी मददगार साबित होती है। दुनिया भर के चिकित्सक तथा जानकर मानते है की मानसिक व भावनात्मक रूप से स्वस्थ व्यक्ति पर शारीरिक समस्याओं का असर अपेक्षाकृत कम होता है।

यहीं नही रोग होने पर भी ऐसे व्यक्ति जल्दी ठीक भी हो जाते है। एक अनुभव सांझा करते हुए वह बताती हैं कि उनकी एक मरीज मात्र 10 साल की उम्र से एक त्वचा रोग से जूझ रही थी। यह समस्या उसके मानसिक स्वास्थ्य को भी इतना प्रभावित कर रही थी की वह किसी को अपनी त्वचा को छूने तक नहीं देती थी। थेरेपी के दौरान पता चला कि उसके मन में यह बात बचपन से घर कर गई थी कि जो चीजें या लोग देखने में अच्छे और सुंदर लगते हैं उन्हे उनके माता-पिता द्वारा प्रोत्साहन नही मिलता है।

अपने आसपास के बच्चों से बातचीत के दौरान जन्मी यह कुंठा उम्र बढ़ने के साथ ज्यादा सशक्त होने लगी । थेरेपी के दौरान उसे समझाया गया की चीजों, घटनाओं और परिस्थितियों को लेकर वह किस तरह से अपना व्यवहार तथा सोच बदल सकती है। थेरेपी की मदद से धीरे-धीरे उस मरीज ने अपनी इस कुंठा तो छुटकारा पाया ही साथ ही अपनी शारीरिक समस्या को लेकर उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ने लगी। यहीं नही जैसे जैसे वह मानसिक व भावनात्मक रूप से स्वस्थ होने लगी उसका त्वचा रोग भी धीरे-धीरे ठीक होने लगा।

नई मांओं के व्यवहार को प्रभावित करती है भावनात्मक अस्वस्थता

बच्चे के जन्म के उपरांत नई बनी माताओं के समक्ष भी बहुत सी शारीरिक, करियर से जुड़ी , बच्चे की परवरिश तथा परिवार से जुड़ी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती हैं जिनका उनके भावनात्मक स्वास्थ्य पर काफी असर पड़ता है। सोनल बताती हैं कि बच्चे के जन्म के उपरांत माँ, बदली परिस्थितियों के चलते कई बार तनाव तथा आत्मविश्वास में कमी जैसी समस्याएं महसूस करती हैं।

कई बात छोटी छोटी बातों और समस्याओं के कारण उनके मन में यह बात घर करने लगी है की वह अपने बच्चे का सही तरीके से पालन नहीं कर पा रही हैं । जिसके चलते उनमें असंतुष्टता का भाव उत्पन्न होने लगता है। जिसका असर उनके व्यवहार पर भी पड़ता है यहां तक कि कई बार वह चिड़चिड़ापन भी महसूस करती हैं।

यही नहीं कई बार कई महिलाएं बच्चों के व्यवहार से अपने पालन को जोड़कर भी देखने लगते हैं। उदाहरण के लिए यदि बच्चे का व्यवहार सही नहीं है तो वह स्वयं अपने ऊपर सवाल उठाना शुरू कर देती हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि वह ज्यादा गुस्सा करने लगती है, बच्चे के साथ थोड़ा ज्यादा सख्त और अनुशासित होने लगती हैं और उसकी सामान्य गतिविधियों पर भी नियंत्रण लगाने लगते हैं,जिससे मां और बच्चे के बीच के संबंध प्रभावित होने लगते है ।

कोई नौकरी पेशा माताएं बच्चे के जन्म के बाद यह सोचने लगती हैं कि अब वह अपना व्यवसाय या नौकरी पहले जैसे सुचारू नहीं रख पाएंगी। इसी से संबंधित एक अनुभव सांझा करते हुए सोनाली बताते हैं कि ऐसे ही एक परिस्थिति का शिकार एक महिला की थेरेपी के दौरान सामने आया की कुछ घटनाओं के परिणाम स्वरूप वह बचपन से ही इस भावना के साथ जी रही थी कि उसके चलते किसी और को कोई भी समस्या या असहजता नहीं होनी चाहिए।

इसी मानसिक दबाव के प्रभाव में वह अपने बच्चे की जिम्मेदारी सिर्फ अपने सर मानने लगी थी, वहीं एक अन्य भाव भी उसे चिंतित कर रहा था कि यदि वह अपने बच्चे की जिम्मेदारी किसी और को देती है तो वह अपने बच्चे के संबंध में स्वतंत्र होकर कोई भी निर्णय नहीं ले पाएगी। ई.एफ.टी की थेरेपी के उपरांत महिला के भावनात्मक स्वास्थ्य पर असर तो पडा ही, साथ ही उसके व्यवहार में लचीलापन बढ़ा और घर के अन्य लोगों के साथ उसके रिश्ते भी बेहतर हुए।

क्या है इमोशनल फ्रीडम तकनीक

ई.एफ.टी लोगों को उनके भावनात्मक ट्रॉमा या सीमित मान्यताओं से बाहर निकलकर सामान्य जीवन जीने में काफी मदद करती है। सोनल बताती हैं कि ई.एफ.टी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मरीज की अवस्था तथा उनकी नकारात्मक भावनाओं तथा समस्याओं के निवारण के लिए थेरेपी आधारित सेशन दिए जाते है।

इस संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए sonals.sinha21@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

कोरोना ही नही वर्तमान समय में लोग अलग-अलग कारणों से मानसिक त्रास से गुजर रहे है। न सिर्फ व्यक्तिगत बल्कि समाज के स्वास्थ्य को बरकरार रखने के लिए जरूरी है की लोगो की मनःस्तिथि ठीक हो और वह भावनात्मक रूप से मजबूत महसूस करें । इसके लिए वैकल्पिक पद्दतीयों तथा थेरेपियों का सहारा लिया जा सकता है। ऐसी ही एक पद्दती है “इ.एफ.टी” यानी इमोशनल फ्रीडम तकनीक । जानकार मानते है की इस पद्दती के माध्यम से लोग अपने भावनात्मक स्वास्थ्य को तो दुरुस्त रख ही सकते है साथ ही तनाव और नकारात्मकता दोनों से काफी हद तक छुटकारा पा सकते है।

“इ.एफ.टी” यानी इमोशनल फ्रीडम तकनीक के बारें में ज्यादा जानकारी देते हुए “इ.एफ.टी” थेरेपिस्ट सोनल सिन्हा बताती है की इस थेरेपी से न सिर्फ लोगों के भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ को फायदा मिलता है बल्कि उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक असर पड़ता है। ईटीवी भारत सुखी भव को “इ.एफ.टी” के बारें में ज्यादा जानकारी देते हुए उन्होंने अपनी कई “ केस हिस्ट्री “ यानी मरीजों से जुड़े अनुभव साँझा किए।

शारीरिक समस्याओं के निवारण में भी मददगार

सोनल सिन्हा बताते हैं कि इमोशनल फ्रीडम टेक्निक ना सिर्फ मानसिक स्वस्थ स्वास्थ्य को बरकरार रखने बल्कि कई प्रकार की शारीरिक समस्याओं निवारण में भी मददगार साबित होती है। दुनिया भर के चिकित्सक तथा जानकर मानते है की मानसिक व भावनात्मक रूप से स्वस्थ व्यक्ति पर शारीरिक समस्याओं का असर अपेक्षाकृत कम होता है।

यहीं नही रोग होने पर भी ऐसे व्यक्ति जल्दी ठीक भी हो जाते है। एक अनुभव सांझा करते हुए वह बताती हैं कि उनकी एक मरीज मात्र 10 साल की उम्र से एक त्वचा रोग से जूझ रही थी। यह समस्या उसके मानसिक स्वास्थ्य को भी इतना प्रभावित कर रही थी की वह किसी को अपनी त्वचा को छूने तक नहीं देती थी। थेरेपी के दौरान पता चला कि उसके मन में यह बात बचपन से घर कर गई थी कि जो चीजें या लोग देखने में अच्छे और सुंदर लगते हैं उन्हे उनके माता-पिता द्वारा प्रोत्साहन नही मिलता है।

अपने आसपास के बच्चों से बातचीत के दौरान जन्मी यह कुंठा उम्र बढ़ने के साथ ज्यादा सशक्त होने लगी । थेरेपी के दौरान उसे समझाया गया की चीजों, घटनाओं और परिस्थितियों को लेकर वह किस तरह से अपना व्यवहार तथा सोच बदल सकती है। थेरेपी की मदद से धीरे-धीरे उस मरीज ने अपनी इस कुंठा तो छुटकारा पाया ही साथ ही अपनी शारीरिक समस्या को लेकर उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ने लगी। यहीं नही जैसे जैसे वह मानसिक व भावनात्मक रूप से स्वस्थ होने लगी उसका त्वचा रोग भी धीरे-धीरे ठीक होने लगा।

नई मांओं के व्यवहार को प्रभावित करती है भावनात्मक अस्वस्थता

बच्चे के जन्म के उपरांत नई बनी माताओं के समक्ष भी बहुत सी शारीरिक, करियर से जुड़ी , बच्चे की परवरिश तथा परिवार से जुड़ी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती हैं जिनका उनके भावनात्मक स्वास्थ्य पर काफी असर पड़ता है। सोनल बताती हैं कि बच्चे के जन्म के उपरांत माँ, बदली परिस्थितियों के चलते कई बार तनाव तथा आत्मविश्वास में कमी जैसी समस्याएं महसूस करती हैं।

कई बात छोटी छोटी बातों और समस्याओं के कारण उनके मन में यह बात घर करने लगी है की वह अपने बच्चे का सही तरीके से पालन नहीं कर पा रही हैं । जिसके चलते उनमें असंतुष्टता का भाव उत्पन्न होने लगता है। जिसका असर उनके व्यवहार पर भी पड़ता है यहां तक कि कई बार वह चिड़चिड़ापन भी महसूस करती हैं।

यही नहीं कई बार कई महिलाएं बच्चों के व्यवहार से अपने पालन को जोड़कर भी देखने लगते हैं। उदाहरण के लिए यदि बच्चे का व्यवहार सही नहीं है तो वह स्वयं अपने ऊपर सवाल उठाना शुरू कर देती हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि वह ज्यादा गुस्सा करने लगती है, बच्चे के साथ थोड़ा ज्यादा सख्त और अनुशासित होने लगती हैं और उसकी सामान्य गतिविधियों पर भी नियंत्रण लगाने लगते हैं,जिससे मां और बच्चे के बीच के संबंध प्रभावित होने लगते है ।

कोई नौकरी पेशा माताएं बच्चे के जन्म के बाद यह सोचने लगती हैं कि अब वह अपना व्यवसाय या नौकरी पहले जैसे सुचारू नहीं रख पाएंगी। इसी से संबंधित एक अनुभव सांझा करते हुए सोनाली बताते हैं कि ऐसे ही एक परिस्थिति का शिकार एक महिला की थेरेपी के दौरान सामने आया की कुछ घटनाओं के परिणाम स्वरूप वह बचपन से ही इस भावना के साथ जी रही थी कि उसके चलते किसी और को कोई भी समस्या या असहजता नहीं होनी चाहिए।

इसी मानसिक दबाव के प्रभाव में वह अपने बच्चे की जिम्मेदारी सिर्फ अपने सर मानने लगी थी, वहीं एक अन्य भाव भी उसे चिंतित कर रहा था कि यदि वह अपने बच्चे की जिम्मेदारी किसी और को देती है तो वह अपने बच्चे के संबंध में स्वतंत्र होकर कोई भी निर्णय नहीं ले पाएगी। ई.एफ.टी की थेरेपी के उपरांत महिला के भावनात्मक स्वास्थ्य पर असर तो पडा ही, साथ ही उसके व्यवहार में लचीलापन बढ़ा और घर के अन्य लोगों के साथ उसके रिश्ते भी बेहतर हुए।

क्या है इमोशनल फ्रीडम तकनीक

ई.एफ.टी लोगों को उनके भावनात्मक ट्रॉमा या सीमित मान्यताओं से बाहर निकलकर सामान्य जीवन जीने में काफी मदद करती है। सोनल बताती हैं कि ई.एफ.टी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मरीज की अवस्था तथा उनकी नकारात्मक भावनाओं तथा समस्याओं के निवारण के लिए थेरेपी आधारित सेशन दिए जाते है।

इस संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए sonals.sinha21@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.