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कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन से संभव हैं बच्चों में बहरेपन का इलाज

सुनने की क्षमता में कमी या बहरापन बच्चों के विकास को बहुत ज्यादा प्रभावित करती है। आंकड़ों की माने तो हर 1000 बच्चे में 5 से 6% बच्चे बहरेपन या सुनने की क्षमता में कमी जैसी समस्या के शिकार होते हैं। जिनमें से लगभग 1.25% बच्चों में बहरापन काफी गंभीर रूप में नजर आता है। इस समस्या का सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों के बोलने की क्षमता पर भी पड़ता है। लेकिन ज्यादातर मामलों में बच्चों में इस समस्या का इलाज कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन की मदद से किया जा सकता है।

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बच्चों में बहरापन
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Published : Jun 15, 2021, 1:22 PM IST

बच्चों में सुनने की क्षमता में कमी या बहरापन कई कारणों से हो सकता है। यदि सही समय पर इस समस्या के बारे में जानकारी मिल जाए तो काफी हद तक बच्चों को मदद मिल पाती है। लेकिन यदि ऐसा न हो तो उन्हे विभिन्न प्रकार की अन्य समस्याओं का सामना भी करना पड़ सकता है। आमतौर पर देखा जाता है की जो बच्चे सुन नहीं पाते हैं, उन्हे बोलना सीखने में भी काफी समस्याएं आती हैं। जिसके चलते कई बार बच्चे सुनने में ही नही बल्कि बोलने में भी अक्षम हो जाते हैं। सुनने की समस्या के कारणों और उसके इलाज व कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन के बारें में ज्यादा जानकारी लेने के लिए ETV भारत सुखीभवा ने Care अस्पताल हैदराबाद के प्रमुख ईएनटी विशेषज्ञ तथा फेशियल प्लास्टिक सर्जन डॉ आर एन विष्णु स्वरूप रेड्डी से बात की।

कैसे जाने, बच्चे में हैं सुनने संबंधी समस्या

डॉ रेड्डी बताते हैं की आमतौर पर जन्म के उपरांत ही बच्चों की प्रतिक्रियाओं से संकेत मिलने लगते हैं की उन्हे यह समस्या है। उन संकेतों के नजर आने पर ऑटो एकॉस्टिक एमिशन टेस्ट की मदद से यह पता चल सकता है की बच्चा हल्की, मध्यम या गंभीर प्रकार की सुनने की क्षमता से पीड़ित है। बच्चे के जन्म के बाद यदि सही समय पर इस समस्या की जानकारी मिल जाए तो उनकी अवस्था के आधार पर समस्या का इलाज काफी हद तक संभव हैं। लगभग 5 से 6% मामलों में इस समस्या की जिम्मेदार तंत्रिकाएं होती है। तंत्रिका बहरापन की अवस्था में कम या मध्यम दर्जे की अक्षमता होने पर ज्यादातर मामलों में हियरिंग एड की मदद से बच्चों की मदद की जा सकती है। लेकिन यदि समस्या गंभीर हो तो उसमें कोक्लीयर इम्प्लांट्स करवाना पड़ता है । कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन बच्चे के 6 माह का होने के उपरांत किया जा सकता है। यदि इस अवस्था तक बच्चे में यह इंप्लांटेशन कर दिया जाए तो 2 साल की उम्र तक ज्यादातर मामलों में उसकी सुनने की क्षमता काफी हद तक बेहतर हो जाती है।

बच्चों में बहरेपन की जांच के लिए किया जाने वाला ऑटो एकॉस्टिक एमिशन टेस्ट हालांकि आम लोगों में ज्यादा प्रचलित नही है लेकिन यह भारत सहित कई विकसित देशों में आम है। हमारे देश में रेनबो अस्पताल हैदराबाद जैसे कई अस्पतालों में यह टेस्ट सामान्य तौर पर किया जाता है। एकॉस्टिक एमिशन टेस्ट के अलावा भी कुछ टेस्ट के माध्यम से इस समस्या तथा उसकी गंभीरता के बारें में जाना जा सकता है। जैसे ब्रेन स्टेम ईवोकेड रिस्पांस ऑडियोमीटर (ई.बी.ई.आर.ए) । इससे बहरेपन की गंभीरता के बारे में पता लगाया जा सकता है। वहीं माता पिता भी थोड़ा ध्यान रख कर इस समस्या के संकेतों को पकड़ सकते हैं।

कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन से जुड़ी जरूरी बातें

डॉ रेड्डी बताते हैं की यूनिलैथरल डेफ्नेस के मामलों में आमतौर पर देखा जाता है कि बच्चा अपने स्वस्थ कान को ही शोर की दिशा में हिलाता है। जैसे यदि कोई भी वस्तु जमीन पर गिरती है और बच्चा अपना सिर हिलाता है लेकिन वह वस्तु गिरने की दिशा में नहीं बल्कि उससे विपरीत दिशा में ऐसा करता हो। यह अवस्था डायरेक्शनल बेनिफिट कहलाती है। ऐसी अवस्था में चिकित्सक कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन की सलाह देते हैं। कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन के लिए आमतौर पर चिकित्सक मानते हैं कि इसे 3 साल की उम्र से पहले करवा देना चाहिए अन्यथा बच्चे में बोलने की क्षमता का विकास नहीं हो पाता है। लेकिन यदि दोनों कानों में बहरेपन की समस्या हो और बच्चे के एक कान में कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन हुआ हो, तो भी डायरेक्शनल बेनिफिट के चलते बच्चा बोलना सीख सकता है। ऐसे बच्चे जिन्हें कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन किया गया हो उनके लिए 1 से 2 साल तक ऑडिटोरी वर्बल थेरेपी (एबीटी) जरूरी होता है।

सुनने की क्षमता में कमी के कारण

डॉ रेड्डी बताते हैं की सुनने की क्षमता में कमी कई कारणों से हो सकती है जो शारीरिक तथा आनुवंशिक हो सकते है। इनमें से कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं।

  • यदि माता में जर्मन मीजल्स बीमारी का इतिहास रहा हो तो बच्चे में यह समस्या होने की आशंका रहती है।
  • खून के रिश्तो में शादियां। कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन कराने वाले 10 बच्चों में से 8 से 9% बच्चों के माता-पिता रक्त संबंधी होते हैं।
  • बहरेपन का पारिवारिक इतिहास हो।
  • ऑटोटॉक्सिक ड्रग्स का इस्तेमाल इसके कारण कान क्षतिग्रस्त हो सकते हैं ।
  • माता में गर्भावस्था के दौरान वायरल संक्रमण होना ।
  • ज्यादा उम्र में गर्भावस्था बच्चे में कई बार डाउन सिंड्रोम का कारण बनता है और डाउन सिंड्रोम से पीड़ित ज्यादातर बच्चों में सुनने में अक्षमता जैसी समस्याएं नजर आती हैं।
  • बर्थ एक्सफेसिया यानी ऐसी अवस्था है जिसमें जन्म के उपरांत बच्चा ना रोए या फिर जन्म के तुरंत उपरांत बच्चा 48 घंटे से ज्यादा समय तक एनआईसीयू में किसी भी समस्या के चलते रहे।
  • समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चों में काफी हद तक नियोनेटल जौंडिस का खतरा रहता है ऐसे बच्चों में सुनने में समस्या होने के ज्यादा मामले सामने आते हैं। बच्चों के आरएच में समस्या भी उनमें सुनने में कमी की समस्या के खतरे को बढ़ा सकती है ।
  • कुछ विशेष प्रकार की एंटीबायोटिक जो किसी शारीरिक समस्या में नवजातों को दी जाती है बच्चों में कान की क्षति का कारण बन सकती हैं।
  • मिज़ल, मंप्स मैनिंजाइटिस भी सुनने में समस्या के खतरे को बढ़ाते हैं।
  • यदि 3 से 6 साल की उम्र में बच्चों में एडिनॉयड्स या फिर सर्दी-जुखाम जैसी समस्याएं काफी आम हो तो बच्चे के कान में ग्लूए ईयर जैसी समस्या हो सकती है।
  • एडिनॉइड के अलावा लगातार होने वाली टॉन्सिल की समस्या भी बच्चों में कई बार हल्के स्तर पर बहरेपन का कारण बन सकती है।

पढ़ें : नेत्र हीनता से बचा सकती है कम उम्र में आंखों की नियमित जांच

डॉ रेड्डी बताते हैं की शारीरिक समस्याओं के कारण होने वाला आंशिक बहरापन कई बार समय के साथ-साथ अपने आप ही ठीक हो सकता है, यदि ऐसा ना हो तो तुरंत चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए और ऑडियोमेट्री जांच करानी चाहिए।

सुनने में अक्षमता से बचने के लिए कम करें ईयर फोन का इस्तेमाल

डॉ रेड्डी बताते हैं की वर्तमान समय में कोरोना के चलते आजकल हर बच्चा ऑनलाइन स्टडी कर रहा है ऐसे में उनमें एक कान में सुनने में परेशानी जैसी समस्याएं सामने आ रही है। जिसके लिए ईयर फोन को जिम्मेदार माना जा सकता है। बहुत जरूरी है की जब भी ईयर फोन का इस्तेमाल किया जाए तो उसमें आवाज कम से कम होनी चाहिए।

यदि बच्चा 8 घंटे या उससे ज्यादा अवधि में कुछ भी तेज या मध्यम आवाज में सुनता है उसकी सुनने की क्षमता पर असर पड़ता है ।यह अवस्था नोएस इंड्यूस्ड हियरिंग लॉस (एनआईएचएम) कहलाती है। इसके लिए बहुत जरूरी है कि स्पीकर फोन या हेडफोन का इस्तेमाल किया जाए।

ऑडिटरी हाइजीन टिप्स

  • हमारी कानों की अंदरूनी संरचना ऐसी होती है कि उसे सफाई की आवश्यकता नहीं होती है उसमें उत्पन्न होने वाला वैक्स अपने आप साफ हो जाता है। इसलिए कान की सफाई के लिए इयरबड्स का उपयोग ना करें, क्योंकि यह इयर वैक्स को बाहर निकालने के बजाय और ज्यादा अंदर कर देता है ।
  • यदि कान में किसी कारण से अपने आप सफाई में समस्या आने लगे तो और वैक्स इकट्ठा होने लगे तो स्वयं कान साफ करने की बजाय चिकित्सक की मदद लेनी चाहिए, जो कि कान में द्रव्य डालकर पहले वैक्स को मुलायम करते हैं फिर उसे अलग अलग माध्यम से बाहर निकाल लेते हैं।
  • कानों में तेल नहीं डालना चाहिए यह कान में फंगस बढ़ा सकती है
  • तैराकी करते समय हमेशा कानों में ईयरप्लग पहनने चाहिए, इससे कान में पानी जाने की आशंका कम हो जाती हैं।

इस संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए vishnureddyn@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

बच्चों में सुनने की क्षमता में कमी या बहरापन कई कारणों से हो सकता है। यदि सही समय पर इस समस्या के बारे में जानकारी मिल जाए तो काफी हद तक बच्चों को मदद मिल पाती है। लेकिन यदि ऐसा न हो तो उन्हे विभिन्न प्रकार की अन्य समस्याओं का सामना भी करना पड़ सकता है। आमतौर पर देखा जाता है की जो बच्चे सुन नहीं पाते हैं, उन्हे बोलना सीखने में भी काफी समस्याएं आती हैं। जिसके चलते कई बार बच्चे सुनने में ही नही बल्कि बोलने में भी अक्षम हो जाते हैं। सुनने की समस्या के कारणों और उसके इलाज व कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन के बारें में ज्यादा जानकारी लेने के लिए ETV भारत सुखीभवा ने Care अस्पताल हैदराबाद के प्रमुख ईएनटी विशेषज्ञ तथा फेशियल प्लास्टिक सर्जन डॉ आर एन विष्णु स्वरूप रेड्डी से बात की।

कैसे जाने, बच्चे में हैं सुनने संबंधी समस्या

डॉ रेड्डी बताते हैं की आमतौर पर जन्म के उपरांत ही बच्चों की प्रतिक्रियाओं से संकेत मिलने लगते हैं की उन्हे यह समस्या है। उन संकेतों के नजर आने पर ऑटो एकॉस्टिक एमिशन टेस्ट की मदद से यह पता चल सकता है की बच्चा हल्की, मध्यम या गंभीर प्रकार की सुनने की क्षमता से पीड़ित है। बच्चे के जन्म के बाद यदि सही समय पर इस समस्या की जानकारी मिल जाए तो उनकी अवस्था के आधार पर समस्या का इलाज काफी हद तक संभव हैं। लगभग 5 से 6% मामलों में इस समस्या की जिम्मेदार तंत्रिकाएं होती है। तंत्रिका बहरापन की अवस्था में कम या मध्यम दर्जे की अक्षमता होने पर ज्यादातर मामलों में हियरिंग एड की मदद से बच्चों की मदद की जा सकती है। लेकिन यदि समस्या गंभीर हो तो उसमें कोक्लीयर इम्प्लांट्स करवाना पड़ता है । कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन बच्चे के 6 माह का होने के उपरांत किया जा सकता है। यदि इस अवस्था तक बच्चे में यह इंप्लांटेशन कर दिया जाए तो 2 साल की उम्र तक ज्यादातर मामलों में उसकी सुनने की क्षमता काफी हद तक बेहतर हो जाती है।

बच्चों में बहरेपन की जांच के लिए किया जाने वाला ऑटो एकॉस्टिक एमिशन टेस्ट हालांकि आम लोगों में ज्यादा प्रचलित नही है लेकिन यह भारत सहित कई विकसित देशों में आम है। हमारे देश में रेनबो अस्पताल हैदराबाद जैसे कई अस्पतालों में यह टेस्ट सामान्य तौर पर किया जाता है। एकॉस्टिक एमिशन टेस्ट के अलावा भी कुछ टेस्ट के माध्यम से इस समस्या तथा उसकी गंभीरता के बारें में जाना जा सकता है। जैसे ब्रेन स्टेम ईवोकेड रिस्पांस ऑडियोमीटर (ई.बी.ई.आर.ए) । इससे बहरेपन की गंभीरता के बारे में पता लगाया जा सकता है। वहीं माता पिता भी थोड़ा ध्यान रख कर इस समस्या के संकेतों को पकड़ सकते हैं।

कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन से जुड़ी जरूरी बातें

डॉ रेड्डी बताते हैं की यूनिलैथरल डेफ्नेस के मामलों में आमतौर पर देखा जाता है कि बच्चा अपने स्वस्थ कान को ही शोर की दिशा में हिलाता है। जैसे यदि कोई भी वस्तु जमीन पर गिरती है और बच्चा अपना सिर हिलाता है लेकिन वह वस्तु गिरने की दिशा में नहीं बल्कि उससे विपरीत दिशा में ऐसा करता हो। यह अवस्था डायरेक्शनल बेनिफिट कहलाती है। ऐसी अवस्था में चिकित्सक कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन की सलाह देते हैं। कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन के लिए आमतौर पर चिकित्सक मानते हैं कि इसे 3 साल की उम्र से पहले करवा देना चाहिए अन्यथा बच्चे में बोलने की क्षमता का विकास नहीं हो पाता है। लेकिन यदि दोनों कानों में बहरेपन की समस्या हो और बच्चे के एक कान में कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन हुआ हो, तो भी डायरेक्शनल बेनिफिट के चलते बच्चा बोलना सीख सकता है। ऐसे बच्चे जिन्हें कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन किया गया हो उनके लिए 1 से 2 साल तक ऑडिटोरी वर्बल थेरेपी (एबीटी) जरूरी होता है।

सुनने की क्षमता में कमी के कारण

डॉ रेड्डी बताते हैं की सुनने की क्षमता में कमी कई कारणों से हो सकती है जो शारीरिक तथा आनुवंशिक हो सकते है। इनमें से कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं।

  • यदि माता में जर्मन मीजल्स बीमारी का इतिहास रहा हो तो बच्चे में यह समस्या होने की आशंका रहती है।
  • खून के रिश्तो में शादियां। कोक्लीयर इम्प्लांटेंशन कराने वाले 10 बच्चों में से 8 से 9% बच्चों के माता-पिता रक्त संबंधी होते हैं।
  • बहरेपन का पारिवारिक इतिहास हो।
  • ऑटोटॉक्सिक ड्रग्स का इस्तेमाल इसके कारण कान क्षतिग्रस्त हो सकते हैं ।
  • माता में गर्भावस्था के दौरान वायरल संक्रमण होना ।
  • ज्यादा उम्र में गर्भावस्था बच्चे में कई बार डाउन सिंड्रोम का कारण बनता है और डाउन सिंड्रोम से पीड़ित ज्यादातर बच्चों में सुनने में अक्षमता जैसी समस्याएं नजर आती हैं।
  • बर्थ एक्सफेसिया यानी ऐसी अवस्था है जिसमें जन्म के उपरांत बच्चा ना रोए या फिर जन्म के तुरंत उपरांत बच्चा 48 घंटे से ज्यादा समय तक एनआईसीयू में किसी भी समस्या के चलते रहे।
  • समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चों में काफी हद तक नियोनेटल जौंडिस का खतरा रहता है ऐसे बच्चों में सुनने में समस्या होने के ज्यादा मामले सामने आते हैं। बच्चों के आरएच में समस्या भी उनमें सुनने में कमी की समस्या के खतरे को बढ़ा सकती है ।
  • कुछ विशेष प्रकार की एंटीबायोटिक जो किसी शारीरिक समस्या में नवजातों को दी जाती है बच्चों में कान की क्षति का कारण बन सकती हैं।
  • मिज़ल, मंप्स मैनिंजाइटिस भी सुनने में समस्या के खतरे को बढ़ाते हैं।
  • यदि 3 से 6 साल की उम्र में बच्चों में एडिनॉयड्स या फिर सर्दी-जुखाम जैसी समस्याएं काफी आम हो तो बच्चे के कान में ग्लूए ईयर जैसी समस्या हो सकती है।
  • एडिनॉइड के अलावा लगातार होने वाली टॉन्सिल की समस्या भी बच्चों में कई बार हल्के स्तर पर बहरेपन का कारण बन सकती है।

पढ़ें : नेत्र हीनता से बचा सकती है कम उम्र में आंखों की नियमित जांच

डॉ रेड्डी बताते हैं की शारीरिक समस्याओं के कारण होने वाला आंशिक बहरापन कई बार समय के साथ-साथ अपने आप ही ठीक हो सकता है, यदि ऐसा ना हो तो तुरंत चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए और ऑडियोमेट्री जांच करानी चाहिए।

सुनने में अक्षमता से बचने के लिए कम करें ईयर फोन का इस्तेमाल

डॉ रेड्डी बताते हैं की वर्तमान समय में कोरोना के चलते आजकल हर बच्चा ऑनलाइन स्टडी कर रहा है ऐसे में उनमें एक कान में सुनने में परेशानी जैसी समस्याएं सामने आ रही है। जिसके लिए ईयर फोन को जिम्मेदार माना जा सकता है। बहुत जरूरी है की जब भी ईयर फोन का इस्तेमाल किया जाए तो उसमें आवाज कम से कम होनी चाहिए।

यदि बच्चा 8 घंटे या उससे ज्यादा अवधि में कुछ भी तेज या मध्यम आवाज में सुनता है उसकी सुनने की क्षमता पर असर पड़ता है ।यह अवस्था नोएस इंड्यूस्ड हियरिंग लॉस (एनआईएचएम) कहलाती है। इसके लिए बहुत जरूरी है कि स्पीकर फोन या हेडफोन का इस्तेमाल किया जाए।

ऑडिटरी हाइजीन टिप्स

  • हमारी कानों की अंदरूनी संरचना ऐसी होती है कि उसे सफाई की आवश्यकता नहीं होती है उसमें उत्पन्न होने वाला वैक्स अपने आप साफ हो जाता है। इसलिए कान की सफाई के लिए इयरबड्स का उपयोग ना करें, क्योंकि यह इयर वैक्स को बाहर निकालने के बजाय और ज्यादा अंदर कर देता है ।
  • यदि कान में किसी कारण से अपने आप सफाई में समस्या आने लगे तो और वैक्स इकट्ठा होने लगे तो स्वयं कान साफ करने की बजाय चिकित्सक की मदद लेनी चाहिए, जो कि कान में द्रव्य डालकर पहले वैक्स को मुलायम करते हैं फिर उसे अलग अलग माध्यम से बाहर निकाल लेते हैं।
  • कानों में तेल नहीं डालना चाहिए यह कान में फंगस बढ़ा सकती है
  • तैराकी करते समय हमेशा कानों में ईयरप्लग पहनने चाहिए, इससे कान में पानी जाने की आशंका कम हो जाती हैं।

इस संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए vishnureddyn@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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