नई दिल्ली: संसद में केंद्र सरकार द्वारा महिला आरक्षण बिल पेश किए जाने के बाद देशभर में इसे लेकर चर्चा शुरू हो गई है. इसी कड़ी में जमाअत-ए-इस्लामी हिंद की तरफ से भी बयान सामने आया है. संगठन की तरफ से कहा गया है कि इस बिल की बहुत आवश्यकता थी. बिल में ओबीसी और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाना चाहिए.
संगठन के उपाध्यक्ष प्रो. सलीम इंजीनियर ने कहा कि आजादी के 75 साल बाद भी संसद और हमारी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी निराशाजनक है. इसमें उनकी संख्या को बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए. महिला आरक्षण बिल इस दिशा में एक अच्छा कदम है, जिसे पहले ही लाना जाना चाहिए था.
उन्होंने कहा कि अपने वर्तमान स्वरूप में बिल ओबीसी महिलाओं और मुस्लिम महिलाओं को बाहर करके भारत जैसे विशाल देश में गंभीर सामाजिक असमानताओं को संबोधित नहीं करता है. इसमें एससी और एसटी महिलाओं को तो शामिल किया गया है, लेकिन ओबीसी और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को नजरअंदाज कर दिया गया है.
प्रो. सलीम इंजीनियर ने कहा कि जस्टिस सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006), पोस्ट-सच्चर मूल्यांकन समिति की रिपोर्ट (2014), विविधता सूचकांक पर विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट (2008), भारत अपवर्जन रिपोर्ट (2013-14), 2011 की जनगणना और नवीनतम एनएसएसओ जैसी विभिन्न रिपोर्ट और अध्ययन, सुझाव देते हैं कि भारतीय मुसलमानों और खासकर मुस्लिम महिलाओं का सामाजिक-आर्थिक सूचकांक काफी कम है. संसद और राज्य विधानसभाओं में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है. यह उनकी जनसंख्या के आकार के अनुपातिक नहीं है.
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उन्होंने कहा कि प्रस्तावित आरक्षण अगली जनगणना के प्रकाशन और उसके बाद परिसीमन अभ्यास के बाद ही लागू होगा, यानी इस बिल का फायदा 2030 के बाद ही मिल सकेगा. इस प्रस्ताव के समय से प्रकट होता है कि इसे आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर लाया गया है, जिसमें गंभीरता की कमी है. असमानता दूर करने के कई तरीकों में से एक है सकारात्मक कार्रवाई. महिला आरक्षण बिल में ओबीसी और मुस्लिम महिलाओं को नजरअंदाज करना अन्याय होगा और सब का साथ, सबका विकास की नीति के अनुरूप नहीं होगा.
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