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बच्चों पर कोरोना वैक्सीन ट्रायल की क्या है पूरी प्रक्रिया, जानिए...

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Published : Jun 10, 2021, 1:12 AM IST

कोरोना की तीसरी लहर (Third Wave of Corona) में बच्चों के ज्यादा प्रभावित होने की आशंका है. इसको चेतावनी के रूप में लेते हुए बच्चों के लिये भी टीका लगाने की व्यवस्था की जा रही है.

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कोरोना वैक्सीन ट्रायल

नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) ने कोविड-19 के मद्देनजर बच्चों की वैक्सीन को पूरी दुनिया के लिए उपलब्ध कराने की बात कही है. भारत इस दिशा में कई कदम आगे बढ़ चुका है. उम्मीद की जा रही है कि जुलाई के मध्य तक बच्चों की वैक्सीन विकसित होकर उनके लगाने का शेड्यूल जारी किया जा सकता है. स्वैच्छिक रूप से ट्रायल का हिस्सा बनने के लिए इच्छुक बच्चों के ब्लड टेस्ट से लेकर हर तरह को हेल्थ स्क्रीनिंग की जा रही है.

बच्चों पर कोरोना वैक्सीन की ट्रायल जारी है.



ट्रायल में हिस्सा लेने वाले बच्चों के एंटीबॉडी जांच सबसे जरूरी
शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ रमेश बंसल बताते हैं कि वैक्सीन ट्रायल में भाग लेने वाले इच्छुक बच्चे के लिये सबसे जरूरी है कि उसके शरीर में कोरोना का एंटीबॉडी मौजूद नहीं होना चाहिए. इनके लिए ब्लड टेस्ट के जरिये एंटीबॉडी की मौजूदगी का पता लगाया जाता है. सबसे पहले यही टेस्ट किया जाता है. इस टेस्ट में पास होने के बाद यानी अगर शरीर में कोरोना का एंटीबॉडी नहीं पाया गया तो आगे के सभी टेस्ट किये जाते हैं. हार्ट, लीवर, किडनी फंक्शन टेस्ट के अलावा ये भी पता किया जाता है कि बीपी और डायबिटीज की दिक्कत तो नहीं है. सभी टेस्ट में पास होने के बाद बच्चे ट्रायल टीका लेने के लिए तैयार होते हैं.



अभिभावकों से मंजूरी पत्र पर कराये जाते हैं हस्ताक्षर
विशेषज्ञ बताते हैं कि अभिभावकों को पहले ही ट्रायल से जुड़ी तमाम चीजें ही बता दी जाती है. साथ ही उन्हें रिस्क फैक्टर्स के बारे में आगाह कर दिया जाता है. इस स्टेज में भी अभिभावक अगर चाहे तो ट्रायल के लिए मना कर सकते हैं. एक बार परमिशन देने के बाद ट्रायल से पीछे नहीं हट सकते हैं.



टीका के गंभीर दुष्प्रभाव होने पर मुआवजा का भी प्रावधान
डॉ रमेश बंसल बताते हैं कि अगर किसी वॉलेंटियर पर टीका का कोई गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है तो टीका बनाने वाली कंपनी के साथ हुए करार के मुताबिक परिजनों को एक तयशुदा रकम भरपाई के रूप में दिए जाने का भी प्रावधान होता है.



वालंटियर की सुरक्षा पहली प्राथमिकता
डॉ रमेश बंसल बताते हैं कि किसी भी वैक्सीन के ट्रायल की पहली शर्त वॉलेंटियर की सुरक्षा है, जिसके साथ समझौता नहीं किया जाता है, फिर भी जब कोई नया प्रयोग हो रहा है तो इसके कुछ दुष्प्रभाव की कुछ आशंकाएं तो होती ही है. यानी जोखिम तो है ही. इसके लिए सुरक्षा के उच्च मानकों का पालन किया जाता है. किसी भी वॉलेंटियर के कोई नुकसान की भरपाई के लिये कंपनी जिम्मेदार होती है. वैक्सीन के ट्रायल की पहली शर्त ही सुरक्षा है.



बच्चों के शरीर में वैक्सीन लेने के बाद एंटीबॉडी बनती है या नहीं, रिसर्च की जरूरत
डॉ बंसल बताते हैं कि जब वैक्सीन सुरक्षा के मानकों पर खरा उतरती है तब यह देखा जाता है कि इसका कितना लाभ हो सकता है. एंटीबाडी बनती है या नहीं. बनती है तो कितनी बनती है. सारे आंकड़े इकठ्ठे किये जाते हैं. उनके विश्लेषण के बाद वैक्सीन की एफिकेसी के बारे में अनुमान लगाया जाता है.



इन पांच फेज में होती है ट्रायल
दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के सचिव और वैक्सीन इंडिया डॉट ओआरजी के चीफ डर अजय गंभीर बताते हैं कि सामान्य तौर पर किसी भी वैक्सीन का ट्रायल 5 अलग-अलग चरणों में होता है. जीरो से 4 फेज में होने वाले क्लीनिकल ट्रायल के जीरो फेज प्री क्लीनिकल ट्रायल होता है. इसमें एंटीजेन की तलाश की जाती है, जिसे वॉलेंटियर के शरीर में डाला जाता है. ये या तो वायरस का एक अंश होता है या एक पूरा वायरस होता है. कोवैक्सीन जिसका ट्रायल दिल्ली एम्स में किया जा रहा है उसमें पूरे वायरस का प्रयोग एंटीजन के रूप में इस्तेमाल किया का रहा है. पहले फेज में सुरक्षा, दूसरे में वैक्सीन की एफिकेसी और तीसरे फेज में फाइनल अप्रूवल लिया जाता है. इसमें बड़े सैंपल साइज पर ट्रायल किया जाता है.



पढ़ें-वैक्सीन लगाते ही शरीर बना चुम्बक, दिल्ली के शख्स का दावा

नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) ने कोविड-19 के मद्देनजर बच्चों की वैक्सीन को पूरी दुनिया के लिए उपलब्ध कराने की बात कही है. भारत इस दिशा में कई कदम आगे बढ़ चुका है. उम्मीद की जा रही है कि जुलाई के मध्य तक बच्चों की वैक्सीन विकसित होकर उनके लगाने का शेड्यूल जारी किया जा सकता है. स्वैच्छिक रूप से ट्रायल का हिस्सा बनने के लिए इच्छुक बच्चों के ब्लड टेस्ट से लेकर हर तरह को हेल्थ स्क्रीनिंग की जा रही है.

बच्चों पर कोरोना वैक्सीन की ट्रायल जारी है.



ट्रायल में हिस्सा लेने वाले बच्चों के एंटीबॉडी जांच सबसे जरूरी
शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ रमेश बंसल बताते हैं कि वैक्सीन ट्रायल में भाग लेने वाले इच्छुक बच्चे के लिये सबसे जरूरी है कि उसके शरीर में कोरोना का एंटीबॉडी मौजूद नहीं होना चाहिए. इनके लिए ब्लड टेस्ट के जरिये एंटीबॉडी की मौजूदगी का पता लगाया जाता है. सबसे पहले यही टेस्ट किया जाता है. इस टेस्ट में पास होने के बाद यानी अगर शरीर में कोरोना का एंटीबॉडी नहीं पाया गया तो आगे के सभी टेस्ट किये जाते हैं. हार्ट, लीवर, किडनी फंक्शन टेस्ट के अलावा ये भी पता किया जाता है कि बीपी और डायबिटीज की दिक्कत तो नहीं है. सभी टेस्ट में पास होने के बाद बच्चे ट्रायल टीका लेने के लिए तैयार होते हैं.



अभिभावकों से मंजूरी पत्र पर कराये जाते हैं हस्ताक्षर
विशेषज्ञ बताते हैं कि अभिभावकों को पहले ही ट्रायल से जुड़ी तमाम चीजें ही बता दी जाती है. साथ ही उन्हें रिस्क फैक्टर्स के बारे में आगाह कर दिया जाता है. इस स्टेज में भी अभिभावक अगर चाहे तो ट्रायल के लिए मना कर सकते हैं. एक बार परमिशन देने के बाद ट्रायल से पीछे नहीं हट सकते हैं.



टीका के गंभीर दुष्प्रभाव होने पर मुआवजा का भी प्रावधान
डॉ रमेश बंसल बताते हैं कि अगर किसी वॉलेंटियर पर टीका का कोई गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है तो टीका बनाने वाली कंपनी के साथ हुए करार के मुताबिक परिजनों को एक तयशुदा रकम भरपाई के रूप में दिए जाने का भी प्रावधान होता है.



वालंटियर की सुरक्षा पहली प्राथमिकता
डॉ रमेश बंसल बताते हैं कि किसी भी वैक्सीन के ट्रायल की पहली शर्त वॉलेंटियर की सुरक्षा है, जिसके साथ समझौता नहीं किया जाता है, फिर भी जब कोई नया प्रयोग हो रहा है तो इसके कुछ दुष्प्रभाव की कुछ आशंकाएं तो होती ही है. यानी जोखिम तो है ही. इसके लिए सुरक्षा के उच्च मानकों का पालन किया जाता है. किसी भी वॉलेंटियर के कोई नुकसान की भरपाई के लिये कंपनी जिम्मेदार होती है. वैक्सीन के ट्रायल की पहली शर्त ही सुरक्षा है.



बच्चों के शरीर में वैक्सीन लेने के बाद एंटीबॉडी बनती है या नहीं, रिसर्च की जरूरत
डॉ बंसल बताते हैं कि जब वैक्सीन सुरक्षा के मानकों पर खरा उतरती है तब यह देखा जाता है कि इसका कितना लाभ हो सकता है. एंटीबाडी बनती है या नहीं. बनती है तो कितनी बनती है. सारे आंकड़े इकठ्ठे किये जाते हैं. उनके विश्लेषण के बाद वैक्सीन की एफिकेसी के बारे में अनुमान लगाया जाता है.



इन पांच फेज में होती है ट्रायल
दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के सचिव और वैक्सीन इंडिया डॉट ओआरजी के चीफ डर अजय गंभीर बताते हैं कि सामान्य तौर पर किसी भी वैक्सीन का ट्रायल 5 अलग-अलग चरणों में होता है. जीरो से 4 फेज में होने वाले क्लीनिकल ट्रायल के जीरो फेज प्री क्लीनिकल ट्रायल होता है. इसमें एंटीजेन की तलाश की जाती है, जिसे वॉलेंटियर के शरीर में डाला जाता है. ये या तो वायरस का एक अंश होता है या एक पूरा वायरस होता है. कोवैक्सीन जिसका ट्रायल दिल्ली एम्स में किया जा रहा है उसमें पूरे वायरस का प्रयोग एंटीजन के रूप में इस्तेमाल किया का रहा है. पहले फेज में सुरक्षा, दूसरे में वैक्सीन की एफिकेसी और तीसरे फेज में फाइनल अप्रूवल लिया जाता है. इसमें बड़े सैंपल साइज पर ट्रायल किया जाता है.



पढ़ें-वैक्सीन लगाते ही शरीर बना चुम्बक, दिल्ली के शख्स का दावा

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