नई दिल्लीः देश के सबसे बड़े अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के फॉरेन नेशनल रेसिडेंट डॉक्टर्स के लिए अच्छी खबर है. उन्हें एक फिक्स्ड स्टाइपेंड देने का रास्ता अब साफ हो रहा है. डीन कमेटी ने उनके स्टाइपेंड निर्धारित करने से संबंधित फाइल को पास कर दिया है. अब यह फाइल मंजूरी के लिए स्टाफ कॉउंसिल के पास गई है.
इस कॉउंसिल में एम्स के सभी विभागों के अध्यक्ष शामिल होते हैं. इसके बाद यह फाइल अकादमी कमेटी से होते हुए गवर्निंग बॉडी तक पहुंचेगी. यहां से फाइल पास होते ही फॉरेन नेशनल रेसिडेंट डॉक्टर्स का स्टाइपेंड शुरू हो जाएगा. अगले तीन महीने के भीतर सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएगी.
विदेशी को नहीं मिलता स्टाइपेंड
बता दें कि एम्स के विभिन्न संकायों में विशेषज्ञता वाले पोस्ट ग्रेजुएट वाले छात्र और जूनियर व सीनियर रेसिडेंट के तौर पर काम करने वाले फॉरेन नेशनल (विदेशी नागरिक) भी शोषण के शिकार हो सकते हैं. ये उतना ही काम करते हैं जितना कि उनके भारतीय साथी करते हैं. लेकिन काम के बदले जहां भारतीय डॉक्टर्स को 70-80 हजार रुपए मिलते हैं वहीं इनके हाथ में कुछ नहीं जाता है.
'एम्प्लॉई की तरह करते हैं काम'
नेपाल के एक डॉक्टर ने बताया कि वे लोग एम्स में दूसरे भारतीय समकक्ष की तरह ही काम करते हैं. उन्हें भी कभी-कभी 24 घंटे तक लगातार ड्यूटी करनी पड़ती है. लेकिन उनके काम के प्रति निष्ठा और मेहनत की कोई कीमत नहीं होती है. जबकि इसी काम के लिए उनके भारतीय साथियों को 70-80 हजार रुपए मासिक सैलरी मिलती है.
90 फीसदी फॉरेन रेसिडेंट नेपाल के
बता दें कि एम्स में लगभग 70 विदेशी नागरिक हैं, जो अलग-अलग मेडिकल स्पेशलाइजेशन कोर्स में दाखिला लिए हैं. इनमें से 90 फीसदी नेपाली नागरिक हैं. ये पढ़ाई के साथ-साथ जूनियर और सीनियर रेसिडेंट के तौर पर काम भी करते हैं. लेकिन इस काम के बदले उन्हें अपने भारतीय समकक्ष की तरह सैलरी या स्टाइपेंड नहीं मिलती है.
लोन लेकर पढ़ने आते हैं नेपाली छात्र
नेपाल के एक छात्र डॉ. यू हक ने बताया कि नेपाल में भारत के एम्स का बहुत क्रेज है. यहां डॉक्टरी की पढ़ाई की चाह छात्रों का सपना होता है. इसके लिए वे कठिन एंट्रेंस परीक्षा पास कर यहां आते हैं. साथ ही पढ़ाई करने के लिए बैंकों से लोन भी लेना पड़ता है. उन्होंने बताया कि एम्स के नाम पर वहां बैंक भी लोन देने को हमेशा तैयार रहते हैं. लेकिन दुख इस बात की है कि हमें हमारे मेहनत का मेहनताना नहीं दिया जाता है.
'जान जोखिम में डालकर करते हैं ड्यूटी'
डॉ. यू हक ने बताया कि वह दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं. हमें कोविड ड्यूटी पर लगाया गया है. यह ऐसा दौर है कि हम घर से भी पैसे नही मंगा सकते हैं. भारत सरकार निजी कंपनियों से भी कर्मचारियों को बिना काम किए ही सैलरी देने को कह रही है, लेकिन हम तो अपनी जान को जोखिम में डालकर कोविड मरीजों का इलाज करते हैं.
'भारतीय को मिलता है 33000 नेपाली रुपए'
काठमांडू में भारतीय दूतावास से केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को सूचना दी. सूचना में बताया गया कि नेपाल के मेडिकल इंस्टीट्यूट, काठमांडू के त्रिभुवन विवि. और बीपी कोइराला इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ साइंस में सेल्फ फंडिंग के तहत पीजी कोर्स में पढ़ रहे भारतीय छात्रों को 33000 नेपाली रुपये मासिक छत्रवृति दी जाती है.
लेकिन भारत के किसी मेडिकल इंस्टिट्यूट में पढ़ने वाले और कोर्स के हिस्सा के रूप में काम कर रहे नेपाली छात्रों को कोई आर्थिक मदद जो उनका हक है, नहीं दी जा रही है. एम्स में पीजी कोर्स में पढ़ने वाले छात्रों को पिछले दो साल से स्टाइपेंड का आज भी सिर्फ इंतजार ही है.
नेपाल के प्रधानमंत्री भी कर चुके हैं अनुशंसा
30 मई 2018 को नेपाल के प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की तरफ से एम्स को चिट्ठी लिखा गया. एम्स ऑटोनोमी रूल्स में आवश्यक संशोधन कर नेपाली छात्रों के लिए स्टाइपेंड देने का रास्ता साफ करने को कहा गया था. तबसे यह मामला एम्स के ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है.
एम्स आरडीए ने अंतरिम राहत देने की मांग की
एम्स के रेसिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. आदर्श प्रताप सिंह ने कोरोना महामारी के दौरान कोविड ड्यूटी पर लगाए गए विदेशी छात्रों को राहत देने की मांग की. लेकिन एम्स प्रशासन के पास इसके लिए पहले से ही बहाना तैयार है. फाइनेंशियल कमेटी की रिपोर्ट जब तक नहीं आएगी, तबतक कुछ नहीं कर सकते.
क्या कहता है एम्स प्रशासन?
एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया का कहना है कि इस पर काम शुरू हो चुका है. डीन कमेटी में फाइलें पास हो चुकी है. उसके बाद कुछ और कमेटियां हैं, जहां से फाइल क्लियर होना है. आखिर में गवर्निंग बॉडी से फाइल क्लियर होते ही स्टाइपेंड शुरू हो जाएगा. यह कितना होगा और इसके लिए कितने बजट की जरूरत होगी, इसका आंकलन किया जा रहा है.