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रंगीन और संकरी गलियों में फंसा मजनू का टीला की दास्तान - प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

दिल्ली जिसे देश का दिल कहते हैं. यहां कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान हैं, जहां पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है. यहीं एक ऐसा टीला है, जो अपने नाम की वजह से मशहूर है. यह दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया की प्रसिद्ध जगहों में से एक है. रोचक इतिहास को अपने में समेटे यह टीला दिल्ली विश्वविद्यालय के पास स्थित है. इससे यह कॉलेज के छात्रों और पर्यटकों के लिए पसंदीदा जगह बन गया है. जी हां, हम बात कर रहे हैं दिल्ली का "नन्हा तिब्बत" के नाम से भी "प्रसिद्ध मजनू का टीला" की. यह जगह अपनी रंगीन और संकरी गलियों के लिए जानी जाती है. हम आपको मजनू का टीला के इतिहास के साथ ही वहां रहने वाले तिब्बतियों की जीवन के बारे में भी बताएंगे. यह भी बताएंगे कि यहां रहने वाले तिब्बतियों को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है.

रंगीन और संकरी गलियों में फंसा मजनू का टीला
रंगीन और संकरी गलियों में फंसा मजनू का टीला
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Published : Oct 20, 2022, 5:15 AM IST

नई दिल्ली: साल 1959 में तिब्बत से आए शरणार्थियों को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस इलाके में बसने की अनुमति थी. तब से ही वे लोग यहां रह रहे हैं. 60 साल से भी ज्यादा समय हो गया. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में रहकर ये लोग अपनी आजीविका चला रहे हैं. मजनू का टीला इलाके में करीब तीन हजार बुद्धिस्ट शरणार्थी रहते हैं और पूरी दिल्ली की बात की जाए तो करीब आठ से दस हजार बुद्धिस्ट शरणार्थी रह रहे हैं.

इस जगह का इतिहास 15वीं शताब्दी के जुड़ा हुआ है. इसका नाम मजनू का टीला पड़ने के पीछे एक रोचक कहानी है. बताया जाता है कि इसका नाम सूफी के नाम पर पड़ा. यह भी बताया जाता है कि सिकंदर लोदी के शासनकाल में यहां गुरु गुरुनानक देव जी आए थे. यहीं पर वह एक सूफी फकीर से मिले, जो ईरान का रहने वाला था. सूफी होने की वजह से लोग उसे मजनू कहकर बुलाने लगे. वो फकीर यमुना के पास मौजूद टीले पर रहता था. तभी से इस जगह को 'मजनू का टीला' कहा जाने लगा.

रंगीन और संकरी गलियों में फंसा मजनू का टीला

तिब्बस यहां आने के बाद ये लोग यहीं पर बस गए. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में बुद्धिस्ट शरणार्थियों की संख्या करीब 10 हजार है. सभी लोगों के अलग-अलग व्यवसाय हैं. ये प्राइवेट नौकरी से लेकर अपना कारोबार तक करते हैं. ज्यादातर कपड़े के व्यापारी हैं. कई लोगों के आधारकार्ड बने हुए हैं, सभी के पास शरणार्थी कार्ड भी है. मौजूदा समय में सरकार से इन लोगों को ज्यादा शिकायतें नहीं है, इनका कहना है कि सरकार इन्हें सहयोग कर रही है. जब तिब्बत आजाद हो जाएगा तो सभी लोग अपने वतन जाकर बसने की उम्मीद में समय काट रहे हैं.

इन बुद्धिस्ट शरणार्थियों के बच्चों के लिए स्कूल व हॉस्टल भी दिल्ली के रोहिणी इलाके में हैं. चाहे तो कोई भी बच्चा इस शरणार्थी स्कूल में पढ़ सकता है. नहीं तो आपनी यथाशक्ति के अनुसार दिल्ली के किसी भी स्कूल में पढ़ाई कर सकता है. इसके लिए इन्हें किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है.

मजनू टीला सहित दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में रह रहे शरणार्थियों के निजी व्यवसाय और प्राइवेट नौकरी है. ज्यादातर लोग बुद्धिस्ट मार्केट में ही कपड़े बेच कर परिवार की गुजर-बसर कर रहे हैं. इलाके की समस्या की बात करें तो शरणार्थियों का कहना है कि बुद्धिस्ट मार्केट में यमुना का पानी भर जाता है. बरसात के दिनों में बाढ़ जैसे हालात हो जाते हैं. गाड़ियों की पार्किंग नहीं है. इस तरह के हालात लंबे समय से यहां हैं, लेकिन सरकार से किसी तरह की शिकायत करना उचित नहीं समझते.

बहरहाल, मजनू का टीला को मिनी तिब्बत कहना गलत नहीं होगा. दिल्ली विश्वविद्याल के पास बसी ये छोटी सी बस्ती अपनी रंगीन और संकरी गलियों के लिए जानी जाती है.

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नई दिल्ली: साल 1959 में तिब्बत से आए शरणार्थियों को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस इलाके में बसने की अनुमति थी. तब से ही वे लोग यहां रह रहे हैं. 60 साल से भी ज्यादा समय हो गया. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में रहकर ये लोग अपनी आजीविका चला रहे हैं. मजनू का टीला इलाके में करीब तीन हजार बुद्धिस्ट शरणार्थी रहते हैं और पूरी दिल्ली की बात की जाए तो करीब आठ से दस हजार बुद्धिस्ट शरणार्थी रह रहे हैं.

इस जगह का इतिहास 15वीं शताब्दी के जुड़ा हुआ है. इसका नाम मजनू का टीला पड़ने के पीछे एक रोचक कहानी है. बताया जाता है कि इसका नाम सूफी के नाम पर पड़ा. यह भी बताया जाता है कि सिकंदर लोदी के शासनकाल में यहां गुरु गुरुनानक देव जी आए थे. यहीं पर वह एक सूफी फकीर से मिले, जो ईरान का रहने वाला था. सूफी होने की वजह से लोग उसे मजनू कहकर बुलाने लगे. वो फकीर यमुना के पास मौजूद टीले पर रहता था. तभी से इस जगह को 'मजनू का टीला' कहा जाने लगा.

रंगीन और संकरी गलियों में फंसा मजनू का टीला

तिब्बस यहां आने के बाद ये लोग यहीं पर बस गए. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में बुद्धिस्ट शरणार्थियों की संख्या करीब 10 हजार है. सभी लोगों के अलग-अलग व्यवसाय हैं. ये प्राइवेट नौकरी से लेकर अपना कारोबार तक करते हैं. ज्यादातर कपड़े के व्यापारी हैं. कई लोगों के आधारकार्ड बने हुए हैं, सभी के पास शरणार्थी कार्ड भी है. मौजूदा समय में सरकार से इन लोगों को ज्यादा शिकायतें नहीं है, इनका कहना है कि सरकार इन्हें सहयोग कर रही है. जब तिब्बत आजाद हो जाएगा तो सभी लोग अपने वतन जाकर बसने की उम्मीद में समय काट रहे हैं.

इन बुद्धिस्ट शरणार्थियों के बच्चों के लिए स्कूल व हॉस्टल भी दिल्ली के रोहिणी इलाके में हैं. चाहे तो कोई भी बच्चा इस शरणार्थी स्कूल में पढ़ सकता है. नहीं तो आपनी यथाशक्ति के अनुसार दिल्ली के किसी भी स्कूल में पढ़ाई कर सकता है. इसके लिए इन्हें किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है.

मजनू टीला सहित दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में रह रहे शरणार्थियों के निजी व्यवसाय और प्राइवेट नौकरी है. ज्यादातर लोग बुद्धिस्ट मार्केट में ही कपड़े बेच कर परिवार की गुजर-बसर कर रहे हैं. इलाके की समस्या की बात करें तो शरणार्थियों का कहना है कि बुद्धिस्ट मार्केट में यमुना का पानी भर जाता है. बरसात के दिनों में बाढ़ जैसे हालात हो जाते हैं. गाड़ियों की पार्किंग नहीं है. इस तरह के हालात लंबे समय से यहां हैं, लेकिन सरकार से किसी तरह की शिकायत करना उचित नहीं समझते.

बहरहाल, मजनू का टीला को मिनी तिब्बत कहना गलत नहीं होगा. दिल्ली विश्वविद्याल के पास बसी ये छोटी सी बस्ती अपनी रंगीन और संकरी गलियों के लिए जानी जाती है.

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