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दिल्ली कांग्रेस: खिसकते जनाधार को संभालना चुनौती, नई रणनीति से मिलेगा सहारा ? - दिल्ली कांग्रेस नया नियम

इसमें कोई शक नहीं कि सलाम हमेशा उगते सूरज को किया जाता है, डूबते को नहीं. राजनीति में भी कमोबेश यही नियम लागू होता है. पार्टी सत्ता में हो तो हर कोई साथ खड़ा रहता है. लेकिन सत्ता से बाहर होते ही नेताओं, कार्यकर्ताओं की शिकायत बढ़ने लगती है. दिल्ली कांग्रेस के साथ भी ऐसा ही चल रहा है.

Delhi congress
दिल्ली कांग्रेस
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Published : Nov 30, 2020, 6:41 PM IST

नई दिल्ली: दिल्ली की सत्ता में लगातार 15 साल शासन करने वाली कांग्रेस की स्थिति आज यह हो गई है कि करीब 2 करोड़ की आबादी वाले दिल्ली में इसके पास 200 समर्थक भी नजर नहीं आते हैं. किसी भी मुद्दे पर होने वाले धरने-प्रदर्शन में 100 लोगों को जुटाना भी मुश्किल है. बड़े और प्रमुख नेता तो कहीं नजर ही नहीं आते. जो चेहरे दिखाई देते हैं उन्हें जनता पहचानती तक नहीं है.

यहां तक कि मंच पर जो चेहरे होते हैं कमोबेश हर बार लगभग एक जैसे ही रहते हैं. ऐसे में कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलने की दिशा में सबसे पहले पहल करनी की जरूरत है.

नया नियम- पार्टी छोड़ने वाले की वापसी नहीं

दिल्ली कांग्रेस ने अंदर खाने एक नियम बनाया है. इस संघर्ष काल में जो भी पार्टी छोड़कर जाएगा उसकी वापसी नहीं होगी. हालांकि इस नियम की औपचारिक घोषणा नहीं की गई है. लेकिन इस पर अमल जरूर शुरू कर दिया गया है. पार्टी अब उन्हीं नेताओं-कार्यकर्ताओं को हाथ का साथ दे रही है जो दूसरी पार्टी के हैं.

कुछ महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष निर्वाचित अनिल चौधरी के इस निर्णय को कुछ लोग सराह रहे हैं तो काफी खिलाफ भी हैं. खिलाफत करने वालों का सुझाव है कि ऐसी नौबत ही नहीं आनी चाहिए कोई कार्यकर्ता ऐसा करता है तो उसे बुलाकर और कारणों की पड़ताल कर उसे दूर करें. इसके पीछे एक तर्क है कि कांग्रेस के ही कार्यकर्ताओं के सहारे आम आदमी पार्टी खड़ी हुई है.

ऐसे में कार्यकर्ताओं के महत्व को समझना चाहिए. यह सिलसिला चलता रहा तो कहीं कांग्रेस की रीड न टूट जाए.


जनाधार बढ़ाने की लिए हर मुद्दा लपकने की कोशिश

दिल्ली कांग्रेस आजकल हर मुद्दा लपकने की कोशिश में लगी रहती है. इस पर भी ध्यान नहीं दिया जाता कि दिल्ली के लोगों की कसौटी पर कौन सा मुद्दा खरा उतरेगा और कौन सा नहीं. कोरोना महामारी के समय इस पर नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार द्वारा लागू लॉकडाउन में पहले कांग्रेसी गरीबों को खाना खिलाने में लगे रहे. तो फिर मजदूरों को घर भेजने का मुद्दा उठा लिया.

अनलॉक में कभी भाजपा और आम आदमी पार्टी के निर्णय की आलोचना तक कांग्रेस की भूमिका सिमटी रही. अब किसान आंदोलन को सीधे तौर पर सपोर्ट कर दिल्ली कांग्रेस भी किसानों की सहानुभूति बटोरने में जुट गई है. कुल मिलाकर मामला यह है कि पार्टी अपनी खोई जमीन तलाश तो रही है लेकिन थिंक टैंक की मदद के बगैर.

दिल्ली वालों की नब्ज थामने वाले मुद्दों को आवाज नहीं दी जाएगी तो पार्टी की जमीन भी वापिस मिलने मुश्किल है फिर चाहे कितनी ही उछल कूद क्यों ना कर ली जाए.

दिल्ली पर 15 साल कर चुकी है राज

साल 1998 से 2013 तक लगातार 15 साल तक दिल्ली प्रदेश की सत्ता में काबिज कांग्रेस की ओर से इस साल की शुरुआत में दिल्ली में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान कोई खास सक्रियता नहीं दिखाई दी. न तो कांग्रेस की ओर से चुनाव प्रचार अभियान उस स्तर पर चला जिससे कि आप और भाजपा को थोड़ा सा भी नुकसान होता और ना ही जुबानी तीर चले.

कांग्रेस का प्रचार अभियान उम्मीदवारों के प्रयासों तक ही सीमित रहा. पार्टी के उम्मीदवार अपनी अपनी विधानसभा सीटों पर प्रचार करते दिख रहे थे. इसमें उनका साथ दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा और दिल्ली के लिए कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाए गए कीर्ति आजाद की भूमिका ही कुछ हद तक सामने दिखाई दी.

कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता ने सिर्फ रस्म अदायगी की जिससे कि दिल्ली कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली.

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से मजबूत हुई आप

महज आठ साल की पार्टी आम आदमी पार्टी ने जिस तरह कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और दिल्ली वालों को मुफ्त बिजली-पानी और डीटीसी बसों में सफर जैसे सौगाते देकर वोट बटोरा, कांग्रेस अपने उन कार्यकर्ताओं को दोबारा पार्टी को मजबूत बनाने में के लिए सक्रिय नहीं दिखाई दी.

सामने अब दिल्ली नगर निगम का चुनाव है. जहां कभी कांग्रेस का दबदबा रहता था. मगर अप्रैल 2022 में होने वाले चुनाव में पार्टी दूसरे पायदान पर भी आ पाएगी या नहीं यह कहना मुश्किल है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में स्थिति

दिल्ली में अब तक 8 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं. सबसे ज्यादा कांग्रेस ने 4 बार, आम आदमी पार्टी ने तीन बार और बीजेपी ने एक बार सरकार बनाई है. शीला दीक्षित तीन बार और अरविंद केजरीवाल तीन बार मुख्यमंत्री बने हैं. 1993 से पहले चुनाव के बाद बीजेपी कभी वापसी नहीं कर सकी.

साल 1993 में नई गठित विधानसभा के लिए चुनाव हुआ था. जिसमें बीजेपी ने बाजी मारी थी. 1991 में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी अधिनियम के तहत विधानसभा बना ली थी और पहला चुनाव हुआ था. उसके बाद पहले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 42. 80 फीसद वोट मिले थे. तो कांग्रेस को 34. 50 फीसद.

मगर 1998 में जब विधानसभा चुनाव हुए तब शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने दिल्ली की सत्ता हासिल की और लगातार तीन बार चुनाव जीत हासिल की. मत प्रतिशत में भी खासा इजाफा हुआ और उस समय कांग्रेस की हस्ती बुलंदियों पर थी.

नई दिल्ली: दिल्ली की सत्ता में लगातार 15 साल शासन करने वाली कांग्रेस की स्थिति आज यह हो गई है कि करीब 2 करोड़ की आबादी वाले दिल्ली में इसके पास 200 समर्थक भी नजर नहीं आते हैं. किसी भी मुद्दे पर होने वाले धरने-प्रदर्शन में 100 लोगों को जुटाना भी मुश्किल है. बड़े और प्रमुख नेता तो कहीं नजर ही नहीं आते. जो चेहरे दिखाई देते हैं उन्हें जनता पहचानती तक नहीं है.

यहां तक कि मंच पर जो चेहरे होते हैं कमोबेश हर बार लगभग एक जैसे ही रहते हैं. ऐसे में कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलने की दिशा में सबसे पहले पहल करनी की जरूरत है.

नया नियम- पार्टी छोड़ने वाले की वापसी नहीं

दिल्ली कांग्रेस ने अंदर खाने एक नियम बनाया है. इस संघर्ष काल में जो भी पार्टी छोड़कर जाएगा उसकी वापसी नहीं होगी. हालांकि इस नियम की औपचारिक घोषणा नहीं की गई है. लेकिन इस पर अमल जरूर शुरू कर दिया गया है. पार्टी अब उन्हीं नेताओं-कार्यकर्ताओं को हाथ का साथ दे रही है जो दूसरी पार्टी के हैं.

कुछ महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष निर्वाचित अनिल चौधरी के इस निर्णय को कुछ लोग सराह रहे हैं तो काफी खिलाफ भी हैं. खिलाफत करने वालों का सुझाव है कि ऐसी नौबत ही नहीं आनी चाहिए कोई कार्यकर्ता ऐसा करता है तो उसे बुलाकर और कारणों की पड़ताल कर उसे दूर करें. इसके पीछे एक तर्क है कि कांग्रेस के ही कार्यकर्ताओं के सहारे आम आदमी पार्टी खड़ी हुई है.

ऐसे में कार्यकर्ताओं के महत्व को समझना चाहिए. यह सिलसिला चलता रहा तो कहीं कांग्रेस की रीड न टूट जाए.


जनाधार बढ़ाने की लिए हर मुद्दा लपकने की कोशिश

दिल्ली कांग्रेस आजकल हर मुद्दा लपकने की कोशिश में लगी रहती है. इस पर भी ध्यान नहीं दिया जाता कि दिल्ली के लोगों की कसौटी पर कौन सा मुद्दा खरा उतरेगा और कौन सा नहीं. कोरोना महामारी के समय इस पर नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार द्वारा लागू लॉकडाउन में पहले कांग्रेसी गरीबों को खाना खिलाने में लगे रहे. तो फिर मजदूरों को घर भेजने का मुद्दा उठा लिया.

अनलॉक में कभी भाजपा और आम आदमी पार्टी के निर्णय की आलोचना तक कांग्रेस की भूमिका सिमटी रही. अब किसान आंदोलन को सीधे तौर पर सपोर्ट कर दिल्ली कांग्रेस भी किसानों की सहानुभूति बटोरने में जुट गई है. कुल मिलाकर मामला यह है कि पार्टी अपनी खोई जमीन तलाश तो रही है लेकिन थिंक टैंक की मदद के बगैर.

दिल्ली वालों की नब्ज थामने वाले मुद्दों को आवाज नहीं दी जाएगी तो पार्टी की जमीन भी वापिस मिलने मुश्किल है फिर चाहे कितनी ही उछल कूद क्यों ना कर ली जाए.

दिल्ली पर 15 साल कर चुकी है राज

साल 1998 से 2013 तक लगातार 15 साल तक दिल्ली प्रदेश की सत्ता में काबिज कांग्रेस की ओर से इस साल की शुरुआत में दिल्ली में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान कोई खास सक्रियता नहीं दिखाई दी. न तो कांग्रेस की ओर से चुनाव प्रचार अभियान उस स्तर पर चला जिससे कि आप और भाजपा को थोड़ा सा भी नुकसान होता और ना ही जुबानी तीर चले.

कांग्रेस का प्रचार अभियान उम्मीदवारों के प्रयासों तक ही सीमित रहा. पार्टी के उम्मीदवार अपनी अपनी विधानसभा सीटों पर प्रचार करते दिख रहे थे. इसमें उनका साथ दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा और दिल्ली के लिए कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाए गए कीर्ति आजाद की भूमिका ही कुछ हद तक सामने दिखाई दी.

कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता ने सिर्फ रस्म अदायगी की जिससे कि दिल्ली कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली.

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से मजबूत हुई आप

महज आठ साल की पार्टी आम आदमी पार्टी ने जिस तरह कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और दिल्ली वालों को मुफ्त बिजली-पानी और डीटीसी बसों में सफर जैसे सौगाते देकर वोट बटोरा, कांग्रेस अपने उन कार्यकर्ताओं को दोबारा पार्टी को मजबूत बनाने में के लिए सक्रिय नहीं दिखाई दी.

सामने अब दिल्ली नगर निगम का चुनाव है. जहां कभी कांग्रेस का दबदबा रहता था. मगर अप्रैल 2022 में होने वाले चुनाव में पार्टी दूसरे पायदान पर भी आ पाएगी या नहीं यह कहना मुश्किल है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में स्थिति

दिल्ली में अब तक 8 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं. सबसे ज्यादा कांग्रेस ने 4 बार, आम आदमी पार्टी ने तीन बार और बीजेपी ने एक बार सरकार बनाई है. शीला दीक्षित तीन बार और अरविंद केजरीवाल तीन बार मुख्यमंत्री बने हैं. 1993 से पहले चुनाव के बाद बीजेपी कभी वापसी नहीं कर सकी.

साल 1993 में नई गठित विधानसभा के लिए चुनाव हुआ था. जिसमें बीजेपी ने बाजी मारी थी. 1991 में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी अधिनियम के तहत विधानसभा बना ली थी और पहला चुनाव हुआ था. उसके बाद पहले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 42. 80 फीसद वोट मिले थे. तो कांग्रेस को 34. 50 फीसद.

मगर 1998 में जब विधानसभा चुनाव हुए तब शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने दिल्ली की सत्ता हासिल की और लगातार तीन बार चुनाव जीत हासिल की. मत प्रतिशत में भी खासा इजाफा हुआ और उस समय कांग्रेस की हस्ती बुलंदियों पर थी.

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