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Gandhi Jayanti 2023: दिल्ली में आज भी जिन्दा है गांधी जी का चरखा, दे रहा लोगों को रोजगार - Gandhi charkha

Gandhi Jayanti 2023 Special: दिल्ली के कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से जुड़ी यादों को दशकाें से सहेजकर रखा है. यही वजह है कि राजधानी में आज भी चरखे से सूत काती जा रही है.

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By ETV Bharat Delhi Team

Published : Oct 2, 2023, 6:33 AM IST

किस्सा महात्मा गांधी के चरखे का

नई दिल्ली: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कभी चरखा चला कर सूत काता करते थे. अब देश में चंद जगहों पर ही चरखे से सूत काता जाता है. राजधानी दिल्ली में भी एक जगह है, जहां कुछ लोग सूत कात कर अपना परिवार चलाते हैं. ये लोग गांधी को अपना आदर्श मानते हैं.

बीते एक वर्ष से चरखा चलाना सीख रहे मिथुन कुमार ने बताया कि उसने गांधी संग्रहालय में चरखा चलाना सीखा. इसके अलावा यूट्यूब के माध्यम से भी अपने काम को सुधारा है. अब वह एक दिन में लगभग 400 मीटर सूत कात लेता है. इसके बाद दो-दो किलो के पैकेट बनाकर सूत को केरल भेजा जाता है. जहां पर सूत को कपड़े की थान का रूप दिया जाता है. उस थान से कपड़े बनाए जाते हैं. वहीं कुछ से गमछा, रुमाल, धोती आदि चीजें भी बनाई जाती है.

जिस चरखे पर मिथुन और उनकी टीम सूत बनाती है, उसको पेटी चरखा कहा जाता है. इसकी लंबाई मात्र 16 इंच है. इसकी चौड़ाई 9 इंच और गहराई 3 इंच है. मिथुन ने बताया कि सूत, पुन्नी, दो चरखे और तखुआ की मदद से सूत बनाया जाता है.

दिल्ली के नॉर्थ एवेन्यू स्थित राज्यसभा सांसद अनिल कुमार हेगड़े के घर पर फिलहाल चार लोगों की टीम है, जो सूत कातती है. सभी को पता है कि कपास यानी रुई की मदद से सूत बनाया जाता है. मिथुन का कहना है कि जिस रुई से वह सूत बनाते हैं उसको पुन्नी कहा जाता है. जब सूत बन कर तैयार हो जाता है तो उसके एक गांठ को गुंडी कहा जाता है.

चरखे का इतिहास: भारत में चरखे का इतिहास बहुत पुराना है. इसमें सुधार महात्मा गांधी के जीवनकाल में हुआ था. सन्‌ 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे. उसके बाद सन्‌ 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई. बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन्‌ 1918 में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला. इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे.

आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई (मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी) और आठ पंक्तियों का चक्र होता है. देश के कई भागों में विभिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं. चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है. उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है. अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल (आंध्र) का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था. इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था. इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था.

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  2. राष्ट्रपिता के जीवन को नए संदर्भ में दिखाने वाले राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय को दूर-दूर से देखने आते हैं गांधीवादी

किस्सा महात्मा गांधी के चरखे का

नई दिल्ली: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कभी चरखा चला कर सूत काता करते थे. अब देश में चंद जगहों पर ही चरखे से सूत काता जाता है. राजधानी दिल्ली में भी एक जगह है, जहां कुछ लोग सूत कात कर अपना परिवार चलाते हैं. ये लोग गांधी को अपना आदर्श मानते हैं.

बीते एक वर्ष से चरखा चलाना सीख रहे मिथुन कुमार ने बताया कि उसने गांधी संग्रहालय में चरखा चलाना सीखा. इसके अलावा यूट्यूब के माध्यम से भी अपने काम को सुधारा है. अब वह एक दिन में लगभग 400 मीटर सूत कात लेता है. इसके बाद दो-दो किलो के पैकेट बनाकर सूत को केरल भेजा जाता है. जहां पर सूत को कपड़े की थान का रूप दिया जाता है. उस थान से कपड़े बनाए जाते हैं. वहीं कुछ से गमछा, रुमाल, धोती आदि चीजें भी बनाई जाती है.

जिस चरखे पर मिथुन और उनकी टीम सूत बनाती है, उसको पेटी चरखा कहा जाता है. इसकी लंबाई मात्र 16 इंच है. इसकी चौड़ाई 9 इंच और गहराई 3 इंच है. मिथुन ने बताया कि सूत, पुन्नी, दो चरखे और तखुआ की मदद से सूत बनाया जाता है.

दिल्ली के नॉर्थ एवेन्यू स्थित राज्यसभा सांसद अनिल कुमार हेगड़े के घर पर फिलहाल चार लोगों की टीम है, जो सूत कातती है. सभी को पता है कि कपास यानी रुई की मदद से सूत बनाया जाता है. मिथुन का कहना है कि जिस रुई से वह सूत बनाते हैं उसको पुन्नी कहा जाता है. जब सूत बन कर तैयार हो जाता है तो उसके एक गांठ को गुंडी कहा जाता है.

चरखे का इतिहास: भारत में चरखे का इतिहास बहुत पुराना है. इसमें सुधार महात्मा गांधी के जीवनकाल में हुआ था. सन्‌ 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे. उसके बाद सन्‌ 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई. बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन्‌ 1918 में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला. इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे.

आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई (मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी) और आठ पंक्तियों का चक्र होता है. देश के कई भागों में विभिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं. चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है. उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है. अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल (आंध्र) का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था. इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था. इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था.

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