नई दिल्ली: स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को मनाया जाता है. हर साल की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराएंगे. हम सभी जानते हैं कि गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रपति और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ध्वजारोहण करते हैं. क्या, आपने कभी सोचा है कि तिरंगे में यूज होने वाली रस्सी कहां से आती है? इसकी अपनी रोचक कहानी है.
राष्ट्रीय ध्वज फहराने में इस्तेमाल होने वाली रस्सी गोरखी मल धनपत राय जैन फर्म की ओर से बगैर किसी शुल्क के मुहैया कराई जाती है. ये फर्म सदर बाजार स्थित कुतुब रोड, तेलीवाड़ा में हैं. 1911 में जब जॉर्ज पंचम भारत आए थे, उस वक्त किंग्सवे कैंप में दिल्ली दरबार लगा था. तभी से फर्म चल रही है. फर्म के मालिक नरेश चंद जैन ने 'ETV भारत' के साथ खास बातचीत की. इस दौरान उन्होंने रस्सी से जुड़ी ऐतिहासिक बातों को बताया. उन्होंने बताया कि 1947 से स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री और 1950 से गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति को रस्सी भेजी जा रही है.
धरोहर के तौर पर घर में रखते हैं रस्सी: नरेश जैन ने बताया कि 2001 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब पहली बार स्वतंत्रता दिवस के मौके पर फ्री रस्सी भेंट की गई. उसे बाद देश के सभी प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों को निशुल्क रस्सी भेंट की जा रही हैं. नरेश चंद ने बताया कि जो रस्सी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को निशुल्क भेंट की जाती है, उनके निर्माण का विशेष ध्यान रखा जाता है. रस्सी किस चीज से बनती है? ये सुरक्षा कारणों की वजह से नहीं बताया जाता है. कोई और व्यापारी भी रस्सी देना चाहे, तो सुरक्षा एजेंसियां स्वीकार नहीं करेगी. एक प्रक्रिया पहले से चली आ रही है, जिसके तहत काम होता है. उन्होंने बताया कि जब से रस्सी का शुल्क नहीं ले रहे हैं, तब से सरकार रस्सी लौटा देती है.
नरेश का मानना है कि यह भी एक राष्ट्र धरोहर है, जिसको हम बिल्कुल हिफाजत से रखते हैं. सरकार द्वारा इस रस्सियों को बहुत खूबसूरती से पैक कर के वापस भेजा जाता है. उसकी पैकिंग के ऊपर सरकारी मुहर और प्रमाणपत्र के साथ जिन्हें भेंट की गई, उनका नाम और साल लिखा होता है. रस्सी मुहैया कराने के एवज में कार्यक्रम आयोजित करने वाली सेना प्रशंसा पत्र भी देती है.
नरेश ने बताया कि इस रस्सी से भावना जुड़ी है. देश के लिए कुछ करने का भाव पैदा होता है. 2001 के पहले उस समय के हिसाब से रेट फिक्स कर सरकार से पैसा लिया जाता था. नरेश ने बताया कि उनसे फौज के अधिकारी रस्सी ले जाते हैं. रस्सी जाने और आने में करीब 2 महीने का वक्त लगता है. वहीं, एयरफोर्स की ओर से फार्म को कई तरह के उपहार भेंट किए गए हैं. दिल्ली के अधिकतर सरकारी संस्थानों में तिरंगा फहराने के लिए इसी फार्म की रस्सी जाती है. दिल्ली के उपराज्यपाल को भी फ्री में रस्सी भेंट करते हैं. साथ ही सरकारी स्कूलों, दफ्तरों और आम जनता में बहुत से लोगों को रस्सी दी जाती है.
अगस्त में बढ़ जाती है डिमांड: नरेश ने बताया कि पहले हर आदमी ईश्वर से 2 चारपाई की जगह मांगता था. अब मार्केट में लकड़ी के बेड मिलते हैं. अब कोई भी रस्सी की चारपाई खरीदना नहीं चाहता है. धीरे-धीरे रस्सियों का चलन, उपयोगिता और डिमांड घट रही है. लेकिन आज भी अखाड़ों में, निर्माण कार्य में और फौज में रस्सी की डिमांड है. उन्होंने बताया कि जब से देश के प्रधानमंत्री मोदी ने 'हर घर तिरंगा' मुहीम चलाई है, तब से अगस्त में रस्सियों की डिमांड बढ़ी है.
रस्सी पर टैक्स: नरेश जैन का कहना है कि 1995 के दौरान दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी. तब रस्सी को बिक्री कर से मुक्त करवाया था. उससे पहले 7 प्रतिशत टैक्स लगता था. अब जीएसटी लग रहा है. जूट की रस्सी पर 5 प्रतिशत और पालीप्रोपलीन रोप (प्लास्टिक) पर 12 प्रतिशत जीएसटी लगता है. ट्रांसपोर्ट सेक्टर में भी रस्सी का खूब प्रयोग होता है. अब अधिकतर ट्रक कवर होने लगे हैं. इसमें रस्सी का इस्तेमाल घटा है. अभी मिलिट्री, अखाड़े, कुएं, कपड़े सुखाने, टेंट-पांडाल और डेयरी में गाय-भैंस को संभालने में रस्सी का प्रयोग होता है.
किससे बनती है रस्सी: रस्सी नारियल, मूंज (सरपत), भावड़, कांस, पालीप्रोपलीन और कॉटन आदि से बनती है. राजस्थान में मूंज, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में भावड़ और केरल में नारियल की रस्सी सबसे अधिक बनती है. सिशल और सनी की रस्सी सबसे मजबूत मानी जाती है. अब इनके दाम बहुत अधिक हो गए हैं, लिहाजा कम लोग ही पसंद करते हैं. सदर बाजार में जिस जगह कुतुब रोड तेलीवाड़ा है, कभी ये क्षेत्र सदर कबाड़ी बाजार होता था. यहीं पर रस्सियों का हॉलसेल कारोबार होता था. किसी जमाने में यहां 250 दुकानों पर रस्सियां बिकती थी. अब 8 से 10 दुकानें ही रह गई है. अब तो रस्सी के कामकाज से जुड़े व्यापारी दूसरे शहरों या बाहरी दिल्ली में शिफ्ट हो गए हैं. बाजार में 1 एमएम से 48 एमएम तक की रस्सी उपलब्ध है.
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