मुंबई : समाज और इंसान से जुड़ी छोटी-छोटी समस्याओं पर इन दिनों खूबसूरत फिल्में बनाने का सिलसिला शुरू हो गया है. खानदानी शफाखाना भी उसी सिलसिले को आगे बढ़ाती है, मगर स्त्री के पॉइंट ऑफ व्यू से. बेबी बेदी (सोनाक्षी सिन्हा) मां और भाई के साथ दिल्ली में रहती है.
निम्न मध्यमवर्गीय इस परिवार में सिर्फ बेबी ही कमाऊ है. बड़ी ही जद्दोजहद से गुज़र रही जिंदगी के बीच अचानक बेबी को मिल जाती है उसके मामा की प्रॉपर्टी, जिसमें शर्त यह है बेबी 6 महीने तक खानदानी शफाखाना चलाएगी जिसमें सेक्स से जुड़ी बीमारियों का यूनानी तरीके से इलाज होता है.
अब इसके बाद शुरू होता है बेबी का संघर्ष. लड़की हकीम से कोई भी सेक्स से जुड़ी समस्या पर बात नहीं करना चाहता. साथ ही साथ समाज उसके लिए और मुश्किलें खड़ी करते जाता है. हालांकि विषय बहुत संजीदा है क्योंकि समाज में अभी भी सेक्स पर खुलेआम बातचीत नहीं की जा सकती और यही फिल्म की मुख्य धारा भी कहती है.
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मगर इस संजीदा विषय पर जिस रिसर्च और ट्रीटमेंट की जरूरत थी उसका अभाव फिल्म में साफ नजर आता है. निर्देशिका के सामने यह दुविधा लगातार बनी रही कि वह एक कमर्शियल फिल्म बना रही हैं या एक विकी डोनर और शुभ मंगल सावधान की परंपरा का रियलिस्टिक सिनेमा. उनकी यह दुविधा पर्दे पर साफ नजर आती है. इस मुद्दे पर कॉमेडी बनाते हुए जिस गंभीरता की जरूरत थी वह पूरी फिल्म में नदारद नजर आती है.
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अभिनय की बात करें तो सोनाक्षी सिन्हा का किरदार दिल्ली 6 की एक पंजाबी लड़की का है. ये निर्देशक की समझाने की कमी थी या सोनाक्षी ने उस किरदार को समझने की कोशिश ही नहीं की, यह तो पता नहीं मगर बेबी बेदी कहीं भी दिल्ली 6 की नजर नहीं आती हैं.
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बादशाह एक बहुत अच्छे रैपर हैं मगर अभिनय उनके बस का नहीं उन्हें आने वाले समय में भी इससे दूर रहना चाहिए. कुलभूषण खरबंदा और अनु कपूर जब जब पर्दे पर आते हैं अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं. वरुण शर्मा ठंडी हवा के झोंके की तरह सुकून देते हैं.
कुल मिलाकर खानदानी शफाखाना एक औसत फिल्म है, जिसके ऊपर समय और पैसा लगाने की जरूरत से ज्यादा ही आवश्यकता हो तो लगाया जाए अन्यथा अगले हफ्ते का इंतजार किया जाए.