हैदराबादः हम सब यह जानते हैं की इस धरती पर दो तरह के जीव-जंतु होते हैं. एक वह जो चल-फिर सकते हैं, सांस ले सकते हैं, प्रजनन की क्षमता रखते हैं. इन्हें हम लिविंग थिंग्स( जानवर, पेड पौधौं, इंसानों ) के रूप में जानते हैं. दूसरे वह हैं जो स्थिर होते हैं, चल फिर नहीं सकते और प्रजनन नहीं कर सकते. इन्हे हम नॉन लिविंग थिंग्स (यन्त्र, औजार, टेबल-कुर्सी आदि) कहते हैं. क्या आपको मालूम हैं की एक ऐसी जाति भी है जो लिविंग और नॉन लिविंग दोनों होती है. कौन हैं यह? कहां से आये? कैसे रहते हैं ? इन सभी सवालों के जवाब दे रहीं हैं विसालाक्षी अरीगेला. इन्होंने माइक्रोबायोलॉजी में ग्रेजुएशन एंड पोस्ट ग्रेजुएशन किया है.
विसालाक्षी अरीगेला के मुताबिक, जो जाति लिविंग और नॉन लिविंग दोनों होती है, उन्हे वायरस कहते हैं. यह भी एक किस्म के मिक्रोऑर्गैनिस्मस या माइक्रोब्स होते हैं. विसालाक्षी अरीगेला ने पहले हमें दूसरे माइक्रोब्स; एल्गी, बैक्टीरिया, फंगाई, प्रोटोजोआ के बारे में बताया था. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिये, आप इस लिंक पर क्लिक करिए.
रोजमर्रा की जिन्दगी को कैसे प्रभावित करते हैं माइक्रोऑर्गैनिस्मस या माइक्रोब्स
बीमारियां फैलाने वाले संसार में रहने वाले, इन इंफेक्शन फैलाने वाले वायरसेस के बारे में विसालाक्षी का यह कहना है कि यह वायरसेस माइक्रोस्कोपिक होते हैं. यह इतने छोटे होते हैं की आप इन्हें सिर्फ आंखों से नहीं देख सकते हैं. यह सिर्फ इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से ही देखे जा सकते हैं. जबकि एल्गी, बैक्टीरिया, फंगाई, प्रोटोजुआ को देखने के लिये सिर्फ एक साधारण माइक्रोस्कोप की जरुरत पडती है.
यह वायरसेस, एल्गी, बैक्टीरिया, फंगाई, प्रोटोजुआ से भिन्न होते हैं. यह माइक्रोब्स (एल्गी, बैक्टीरिया, फंगाई, प्रोटोजुआ) सॉइल (मिट्टी), वाॅटर(पानी), एयर(हवा) और ऑर्गैनिक वेस्ट्स(जैविक कचरा) में पनपते हैं. इसलिए अपना पोषण भी यहीं से प्राप्त करते हैं.
लेकिन वायरसेस को पनपने और फैलने के लिए लिविंग सेल्स की जरुरत पड़ती है. दूसरे माइक्रोब्स यानि की एल्गी, बैक्टीरिया, फंगाई, प्रोटोजुआ, जानवरों, पेड़ पौधों और इंसानों में यह वायरसेस पनपते हैं.
अब एक अहम सवाल यह उठता है कि वायरसेस खुद से क्यों नहीं बढ़ते या पनपते? सॉइल (मिट्टी), वाॅटर(पानी), एयर(हवा) और ऑर्गैनिक वेस्ट्स(जैविक कचरा) होने के बावजूद, इन वायरसेस को बढ़ने और फैलने के लिए दूसरे जीवित कोशिकाओं की आवकश्यता क्यों पड़ती है. बहुत ही सरलता से विसालाक्षी ने यह समझाया की वायरसेस की आंतरिक क्षमता ही नहीं है की वो खुद से पनप सकें.
अब आप यह सोच रहे होंगे की यह कैसी विचित्र बात है. इसके जवाब में विसालाक्षी यह समझा रही हैं की वायरसेस पहले होस्ट सेल्स (कोशिकााओं) में घुसते हैं और फिर तेजी से बढ़ने लगते हैं. इसके बाद, होस्ट सेल्स में ऐसे लक्षण पैदा करते हैं जो कई अलग-अलग बीमारियों के रूप में सामने आते हैं.
अब मन में यह साल उठता है की, क्या हर लक्षण हानिकारक होता है. इसके जवाब में विसालाक्षी, तरह तरह की बिमारियों के बारे में बताकर समझा रही हैं. आमतौर पर जब हमें सर्दी लग जाती है तो लक्षण एक दम हल्के फुल्के होते हैं. पोलियो, एड्स जैसी बिमारियों के लक्षण अधिक कष्टदायी होते हैं. कई बार तो यह जानलेवा भी हो सकते हैं.
जब भी हम वायरसेस का नाम सुनते हैं, तो केवल बीमारियों का नाम दिमाग में आता है. नतीजतन, हम सब डर जाते हैं. एक सवाल जहन में आता है की क्या इन वायरसेस का कोई निवारण है? विसालाक्षी का यह कहना है कि निवारण बिलकुल संभव है. पोलियो कि अगर बात करें, तो हम यह देखेंगे कि धीरे-धीरे यह बीमारी कम हो रही है. पर यह तभी संभव हो रहा है, जब इसकी वैक्सीन (टीका) आयी. इससे एक और बात सामने आती है कि वायरसेस का इस्तेम्मल वैक्सीन्स बनाने के लिए भी किया जाता है.
केवल पोलियो ही नहीं बल्कि वैक्सीन्स के चलते, काउपोक्स, मीजल्स और अन्य बीमारियां भी धीरे-धीरे कम हो रही हैं.
कुछ बीमारियां तो वैक्सीन्स से नियंत्रण में लायी जा सकती हैं पर कुछ बीमारियां जिनकी वैक्सीन नहीं है, उनके लिए क्या करें, जिससे इनसे बचा जा सके. सबसे पहले यह समझना होगा कि यह वायरसेस एक होस्ट से दूसरे होस्ट में हवा, पानी से फैलते हैं. इतना ही नहीं, यह एक दूसरे के सीधे संपर्क में आने से फैलते हैं. यह वेक्टर्स के माध्यम से भी फैलते हैं. वेक्टर्स यानि कि अन्य जीव जंतु जिनके अंदर यह वायरसेस होते हैं.
जिस तरह से वायरसेस फैलते हैं, उसी तरह से हम कुछ बाचाव के तरीके अपना सकते हैं.
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