भारत जैसे विशाल देश में निष्पक्ष चुनाव कराना सदैव चुनौतीपूर्ण रहा है. जब भी केंद्र और राज्य सरकारें शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव कराने में विफल रहीं, तब उन्हें बार-बार आलोचना का सामना करना पड़ा है. हाल ही में, चुनावों के दौरान हिंसा की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है, जिसका ताजा उदाहरण पश्चिम बंगाल से आया है.
पश्चिम बंगाल में आगामी पंचायत चुनाव, पहले से ही विवादों और हिंसा की घटनाओं में इतना घिरा हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट को कुछ तल्ख टिप्पणियों के साथ हस्तक्षेप करना पड़ा. इस पर निश्चित रूप से उन सभी लोगों को गंभीरता से 'ध्यान देने' की ज़रूरत है जो इस पूरे मामले में मायने रखते हैं. 1977 से 2014 तक बिहार में आईपीएस के तौर पर काम करने, जो इस अवधि के एक बड़े हिस्से के दौरान खुद को गौरवान्वित नहीं कर सका, मैं बिना किसी संकोच से इस क्षेत्र में कुछ व्यावहारिक अनुभव का दावा कर सकता हूं. मैं पहले के समय के अपने वरिष्ठों के कुछ विचित्र अनुभव जोड़ सकता हूं.
दशकों पहले जब संचार सुविधाएं इतनी नहीं थीं तो मुझे बताया गया था कि पोलिंग पार्टियां दुर्गम क्षेत्रों में जाने से बचती थी. वह मतदान सामग्री को स्ट्रांग रूम में जमा करने से पहले वोटों को विभाजित करते थे और उन पर मुहर लगाते थे. मेरे वरिष्ठों ने मुझे बताया था कि चुनाव को 'सफलतापूर्वक संपन्न' तब माना जाता है जब मतदान दल सभी सामग्री के साथ बूथ तक सुरक्षित पहुंचाया जाए और वापस स्ट्रांग रूम में सुरक्षित आ जाए. बूथ पर प्रक्रिया को चुनावी विरोधियों की ताकत पर छोड़ दिया गया था. राज्य की कोई भूमिका नहीं थी.
पुलिस में मेरे करियर की शुरुआत से शांतिपूर्वक चुनाव कराना मेरी प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक था, मुझे एक स्पष्ट एहसास हुआ कि राज्य की उपस्थिति की तुलना में सभी प्रकार की चुनाव प्रक्रियाओं का 'घनत्व" और 'तीव्रता' बहुत अधिक थी.
राज्य की उपस्थिति, जो ज्यादातर पुलिस स्टेशनों के माध्यम से महसूस की जाती है, भौगोलिक रूप से बहुत विरल थी, जबकि सभी प्रकार की चुनावी गतिविधियों की तीव्रता बहुत ज्यादा थी और हर क्षेत्र को कवर किया गया था. इसलिए, राज्य स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में अपनी भूमिका से चूक गया. जिस भी क्षेत्र में राज्य की उपस्थिति का अभाव था, वहां जिस भी पार्टी को बहुमत प्राप्त था, वहां निष्पक्ष चुनाव दूर की कौड़ी बन गया. 1981 की शुरुआत में भारत का चुनाव आयोग ऐसा नहीं था, तकनीक भी ऐसी नहीं थी. उस समय तकनीक की बात करें तो मैंने जो सबसे अच्छा देखा वह एक कैलकुलेटर था.
मुझे सिंहेश्वर विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव का सामना करना पड़ा. नौकरी में बमुश्किल चार साल बिताने के बाद और बिहार के एक दूरदराज के इलाके में एक नव निर्मित जिले में जहां कोई बुनियादी ढांचा या जनशक्ति नहीं थी, वहां रहने के बाद मैंने निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने का फैसला किया. इसके लिए डेटा ओवरलैप तकनीक और सभी संसाधनों के अनुकूलन तकनीकों की आवश्यकता थी. मैंने सांख्यिकी का अध्ययन करते समय अपने कॉलेज में जो कुछ भी सीखा था, डीएम के साथ मिलकर किया.
भारत के चुनाव आयोग द्वारा कोई एसओपी नहीं सौंपी गई थी. संक्षेप में, दो सेवाएं आईएएस और आईपीएस संविधान द्वारा केवल यह सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई थीं कि देश की नींव यानी लोकतंत्र कभी कमजोर न हो. अन्यथा इतने बड़े भत्तों के साथ उच्च शिक्षित व्यक्तियों को भर्ती करने की क्या आवश्यकता थी? यदि इन दोनों सेवाओं को सर्वोच्च 'लाठी' की आवश्यकता है, तो इसे हम अपने संविधान निर्माताओं के पवित्र सपने की विफलता भी कह सकते हैं.
मेरा अगला अनुभव 1989 में आया. अवधारणाएं वही रहीं. एक अतिरिक्त लाभ कंप्यूटर का आगमन था. डीएम और एसपी की जोड़ी 'रैंडमाइजेशन' जैसी और तकनीक लेकर आई. हमने चुनाव के दौरान पुलिस अधिकारियों को मतदान केंद्रों पर ड्यूटी के लिए बेतरतीब ढंग से आवंटित करने के लिए कंप्यूटर का उपयोग करने की एक विधि तैयार की. इसने चुनावी प्रक्रिया में तथाकथित प्रभावशाली प्रतिभागियों को अपने निहित स्वार्थों का प्रयोग करने से रोका. हिंसा में निष्पक्षता और कमी बड़ी मात्रा में दिखी. यह भी स्थानीय पहल से हुआ.
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अगला अनुभव वर्ष 1994 का है. मुझे चुनाव के सिलसिले में पुलिस मुख्यालय से संबद्ध किया गया था. ईसीआई और उसके चीफ की ताकत स्पष्ट थी. हर कोई डरा हुआ था. चुनाव की पूरी प्रक्रिया अपरंपरागत तरीके से की गई. विशिष्ट विशेषता सशस्त्र बलों पर अत्यधिक निर्भरता थी. संपूर्ण राज्य वस्तुतः सशस्त्र बलों से अटा पड़ा था. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सभी सशस्त्र बलों की कुल संख्या डनकर्क की लड़ाई में भाग लेने वाली संख्या से अधिक थी. अत्यधिक तैनाती के पूरक के लिए शायद ही कोई 'सॉफ्टवेयर' घटक था. बल के इस सारे प्रदर्शन के बावजूद, व्यवस्था हिंसा को नहीं रोक सकी. सबसे बढ़कर, चुनावों में 'शांतिपूर्ण धांधली' हुई और चुनाव परिणामों में कोई बदलाव नहीं आया.
फिर 2005 का चुनाव आया. मुझे आयोग का औपचारिक हिस्सा बने बिना उसके भीतर से काम करने का सर्वोच्च अनुभव प्राप्त हुआ. मैंने इस अवसर का उपयोग अपने सभी 'विचार प्रयोगों' को ज़मीन पर आज़माने के लिए किया. यह मैंने बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी के साथ मिलकर किया था, जिनके साथ मैंने 1989 में काम किया था. हमने अपने पहले के सभी प्रयोग तकनीक और सबसे बढ़कर सीईसी के नैतिक समर्थन के साथ आजमाए. परिणाम अप्रत्याशित रूप से अच्छे थे, लगभग किसी भी कलंक से रहित. बहुत सारी नई प्रक्रियाएं सामने आई थीं.
सबक यह सीखा गया: चुनाव प्रबंधन, सशस्त्र बलों के साथ जगह भरने की तुलना में डेटा माइनिंग और लेयरिंग तकनीकों के माध्यम से किए गए बड़े डेटा विश्लेषण के बारे में अधिक है. यह मुफ़्त से ज़्यादा निष्पक्षता के बारे में है. ये सभी और कई अन्य तकनीकें और प्रयोग बिहार में निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव कराने में उपयोग किए गए थे, जहां दिमाग की बड़ी भूमिका थी. मैंने 'अनबाउंडेड' नाम की जो किताब लिखी है उसमें भी इसका जिक्र किया है. जो लोग परिणाम प्राप्त कर सकते हैं वे अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य हैं जिनसे निश्चित रूप से ग्रे मैटर की उम्मीद की जाती है और माना जाता है कि वे राजनीतिक रूप से तटस्थ हैं.
(अभयानंद 1977 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं जिन्होंने 48वें डीजीपी के रूप में बिहार पुलिस का नेतृत्व किया था. व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं)