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नई शिक्षा नीति से गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान को मिलेगा बढ़ावा - एनईपी 2020

भारत सरकार ने अपने बहुत पुराने योजना आयोग को 60 साल के बाद तब छोड़ा, जब हमलोगों ने एक दर्जन पंचवर्षीय योजनाओं को लागू कर लिया. इसका नया नामकरण एनआईटीआई (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) आयोग हुआ, जिसका अक्षरश: अर्थ नीति आयोग है. भारत में बड़े बदलावों के कारण यह अपने शुरुआती पांच वर्षों में ही बहुत अधिक परिचित हो गया.

एनईपी-2020
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Published : Aug 12, 2020, 9:01 AM IST

Updated : Aug 12, 2020, 1:08 PM IST

हैदराबाद : नीति आयोग ने सार्वजनिक खर्च पर बारीकी से नजर रखकर और उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए उसकी जवाबदेही तय करने पर जोर दिया. सबसे जरूरी बदलाव यह हुआ कि सरकारी धन के खर्च में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए भारत सरकार की योजनाओं को डिजिटल तरीके से लागू करने के साथ पब्लिक फंड मैनेज्मेंट सिस्टम (पीएफएमएस) के माध्यम से निगरानी की जाने लगी. अब 30 साल बाद संशोधित कर नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 लाई गई है. उम्मीद है कि यह वैश्विक मानकों के साथ लचीलेपन और जवाबदेही के जरिए गुणवत्ता में बेहतरी लाने के लिए और राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह बदल देगी. एनईपी-2020 में नीति के जुड़े बहुत सारे नए दिशा-निर्देश हैं, लेकिन यह लेख मोटे तौर पर अनुसंधान से संबंधित नीतियों तक ही सीमित रहेगा.

एसटीईएम से एसटीईएएम पर केंद्रित होगा ध्यान
शिक्षा एवं अनुसंधान हमेशा साथ-साथ चलता है. किसी देश को आत्मनिर्भर बनने के लिए अनुसंधान को बहुत कुछ करना होता है. खासकर तब और प्रासंगिक हो जाता है, जब भारत ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात कर रहा हो. शोध के क्षेत्र में किया गया निवेश लंबे समय के बाद लगातार बहुत अधिक रिटर्न देता है. अनुसंधान पर किए गए खर्च का लाभ हमेशा उससे अधिक मिलेगा. भारत के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक-आर्थिक विविधताओं के बारे में युवा मन को जोर देकर अवगत कराना बहुत सारे छात्रों को हमारे समाज को तकलीफ देने वाले विभिन्न मुद्दों का समाधान ढूंढने के लिए सक्रिय करता है. अनुसंधान में इस तरह की भावना मानविकी और सामाजिक विज्ञान के ऐसे खुलासे से उत्पन्न होती हैं, जिन्हें शोध की संस्कृति का पोषण करने वाले विश्वविद्यालयों में धार मिलती है, लेकिन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अभियंत्रण और गणित (एटीईएम) में अनुसंधान के विषय अधिकतर विश्वविद्यालयों के बाहर होते हैं. विश्वविद्यालय के शोधकर्ता एक तरफ तो भारत के वैज्ञानिकों से मुकाबला करते हैं और दूसरी तरफ जो इन विषयों के वैश्विक नेतृत्वकर्ता हैं उनसे. विश्वविद्यालयों को लाभ यह है कि हर साल नई प्रतिभाओं का आना जारी रहता है. एनईपी-2020 में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा संस्थानों (एचईआईज) की परिकल्पना की गई है, जिनमें विश्वविद्यालय, आईआईटी/एनआईटी शामिल हैं, जो बहुविषयी संस्थानों में बदले जाएंगे. इस नीति का मकसद उच्च शिक्षा संस्थानों को कला के महत्वपूर्ण अवयवों को लाकर विज्ञान, प्रौद्यौगिकी, अभियंत्रण, कला और गणित (एसटीईएएम) पर केंद्रित संस्थान में बदलना है न कि उनके अनुसंधान के विषयों को एसटीईएम विषयों तक सीमित रखना है. इस नीति में दुनिया और विशेषकर भारत के लिए कला और सामाजिक विज्ञान के महत्व पर जोर दिया गया है.

राष्ट्रीय अनुसंधान प्रतिष्ठान
भारतीय प्रोफेसरों में से कई अनुभव करते हैं कि विकसित देशों के समकालीनों ने भारत में अनुसंधान पर निवेश के अनूठे तरीकों का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है. भारत सरकार हर साल 15 हजार से अधिक अनुसंधान के फेलोशिप के लिए और डॉक्टरेट के बाद कुछ हजार फेलोशिप के लिए सहायता देती है. इससे भी अधिक प्राइम मिनिस्टर रिसर्च फेलोशिप (पीएमआरएफ) योजना के तहत हम लोगों के पास आकर्षक एवं बहुत ही प्रतिस्पर्धात्मक फेलोशिप है. भारत में अनुसंधान फेलोशिप का मकसद प्राथमिक तौर पर मेधावी युवाओं को आकर्षित कर बगैर किसी बंधन के जिज्ञासा के साथ से अनुसंधान के लिए प्रेरित करना है. पीएचडी के लिए सीधे अनुसंधान फेलोशिप के साथ युवा शोधकर्ताओं को इस तरह से बड़े पैमाने पर सहायता एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के जरिए दी जाती है, जो भारत के लिए अनूठी है.

उच्च शिक्षण संस्थानों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं में शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों को (शोध अनुदान के लिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा की तुलना में) अनुसंधान अनुदान भी उदारतापूर्वक दिया गया है. दी गई परिस्थितियों में अच्छा प्रदर्शन करने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुसंधान के लिए बुनियादी संरचना की सहायता भी उदारता के साथ मुहैया कराई गई है. किसी खास या शोधकर्ताओं के समूह को अनुदान देने के अलावा और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) आदि की ओर से भी अनुसंधान के लिए विभिन्न योजनाएं लागू की गई हैं.

इस तरह की सहायता का इस्तेमाल करके कुछ केंद्र के पैसे से चलने वाले उच्च शिक्षण संस्थान जैसे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, दिल्ली यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ हैदराबाद आदि ने इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस (आईओई) नाम से जाने जाने वाला प्रतिष्ठित दर्जा प्राप्त करने के लिए गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान परिणाम दिया है. यह विश्वविद्यालय आईओई का दर्जा पा चुके कुछ आईआईटीज और इंडियन स्कूल ऑफ साइंस जैसे गहन अनुसंधान से जुड़े अग्रणी संस्थानों के बड़े लीग में शामिल हो गए. भारत को शोध विश्वविद्यालय बनने के लिए ऐसे और उच्च शिक्षण संस्थानों की जरूरत है, जिसे एनईपी- 2020 ने स्पष्ट रूप से कहा है.

मेधावी छात्रों के लिए फेलोशिप और शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान अनुदान ने भारत में नाटकीय ढंग से अनुसंधान संस्कृति में सुधार किया है. कर दाताओं का धन अनुसंधान पर खर्च करने के लिए अधिक जवाबदेही लाने के लिए मौजूदा रुख की सही ट्यूनिंग आवश्यक है. राष्ट्रीय अनुसंधान प्रतिष्ठान ने विचार किया है कि एनईपी- 2020 को पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने के साथ अनुसंधान परिणामों की गुणवत्ता को बढ़ावा देने के लक्ष्य के रूप में भी देखा जा सकेगा. एनआरएफ को शोध की प्राथमिकताएं तय करनी हैं, राष्ट्रीय जरूरतों की पहचान करनी है, शोधकर्ताओं को वैश्विक स्तर का अनुसंधान करने लिए सहायता करनी है और अनुसंधान के लिए धन प्राप्त करने वाले खास लोगों या समूहों ने कैसा प्रदर्शन किया, उसकी निगरानी करनी है. एनईपी एनआरएफ को देश में अनुसंधान के पारिस्थितिकी तंत्र को बदलने वाले औजार के रूप में देखती है.

अनुसंधान संस्कृति विकसित करना
एक हजार से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों वाले देश में हमें इनमें और को गुणवत्ता वाले अनुसंधान विश्वविद्यालयों रूप में बदलने की जरूरत है. केंद्र और प्रदेश की सरकारों को बहुत सावधानी से रणनीति विकसित करने और अपने प्रयासों से एक-दूसरे के पूरक बनने के लिए वैसे क्षेत्रों की पहचान करने की जरूरत है, जिसमें यह ओवरलैप न करें. भारत सरकार को अनुसंधान की नैतिकता से कोई समझौता किए बगैर उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए अपनी तरफ से ऐसी योजनाएं विकसित करनी हैं, जो केंद्रीय विश्वविद्यालयों की सफलता की कहानियां बयां करें. सार्वजनिक संस्थानों में जटिलताएं और जड़ता के बीच स्थाई रोजगार मुहैया कराने वाले मॉडल को एक ऐसे मॉडल के साथ जुड़ना होगा, जो जिम्मेदारी और जवाबदेही देता है. हो सकता है कि पेशेवरों की सेवा को इस तरह से 5 या 7 साल के कार्यकाल के लिए नहीं लिया जाए. युवाओं को नियुक्ति की गारंटी देने वाले विश्वास के लिए एक न्यूनतम आउटपुट देने की जरूतर होगी, यह एक हाइब्रिड मॉडल हो सकता है.

शुरुआती संकेतों से पता चलता है कि इस तरह के हाइब्रिड मॉडल का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च में परीक्षण किया जा रहा है. इसी समय यह भी महत्वपूर्ण है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसंधान की एक स्वस्थ संस्कृति विकसित हो. भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा में मुकाबला करने के लिए एक ऐसी संस्कृति जो अच्छे शोध से जुड़े प्रश्न पूछने को बढ़ावा देती हो, एक संस्कृति जो बढ़ने से संबधित या अशांतिकारक नवाचार को बढ़ावा देती हो, एक ऐसी संस्कृति जो युवाओं को कुछ शुरू करने (स्टार्ट अप) के लिए अनुदान प्रदान करती हो, एक संस्कृति जो सहयोग को प्रोत्साहित करती हो, एक संस्कृति जो अंतःविषय अनुसंधान के लिए खुली हो, एक ऐसी संस्कृति जो शोधकर्ताओं को बड़े सवालों के समाधान की अनुमति देती हो आदि को अधिक से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों में विकसित करना और उनका पोषण करना होगा.

बड़ी संख्या में मौजूद राज्य के विश्वविद्यालय सभी एक-दूसरे तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं. बहुत सारे राज्य विश्वविद्यालय युवाओं के सबसे बड़े समूह पर नजर टिकाए रहते हैं, जिनके पास शिक्षकों की कम उपलब्धता और बहुत कम संसाधन हैं. शिक्षकों की नियुक्ति 10-20 साल के अंतराल पर होती है, जिससे अनुसंधान की गतिविधियां उत्साहहीन हो जाती हैं. कई परिसर तो ऐसे होते हैं जहां पर्याप्त संरचनात्मक सुविधाएं ही नहीं हैं, जिससे वहां अनुसंधान के बारे में सोचा भी जा सके. ऐसी स्थिति में युवा अनुसंधानकर्ताओं को अपने अनुसंधान के लक्ष्य को हासिल करने के लिए बिना किसी मतलब के बहुत अधिक भाग-दौड़ करनी पड़ती है. कुछ परिसरों में बाधारहित इंटरनेट सेवाओं की कौन कहे बिजली और पानी की आपूर्ति भी नियमित नहीं होती. राज्य सरकारें यदि अनुसंधान की संस्कृति विकसित कर उसे बनाए रखना चाहती हैं और अनुसंधान विश्वविद्यालय का दर्जा को पाने के लिए प्रतिस्पर्धा में बना रहना चाहती हैं तो कई राज्य सरकारों को विश्वविद्यालय परिसरों का कायाकल्प करने के लिए कमर कसनी होगी. ऐसा करने के लिए रोल मॉडल के रूप में अन्ना यूनिवर्सिटी, पुणे के सावित्रीबाई फुले यूनिवर्सिटी, जादवपुर यूनिवर्सिटी, पंजाब यूनिवर्सिटी आदि का अनुकरण किया जा सकता है.

शिक्षा एक सहकारी विषय है, देश को शोध की ताकत वाला और ऐसे अनुसंधान कराने के लिए जो स्थानीय जरूरतों को पूरा करे, लेकिन उनका स्तर वैश्विक हो, इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए भारत सरकार को राज्यों के साथ समन्यवय का एक बड़ा प्रयास करना होगा. इसके लिए एक कुशल प्रबंधन व्यवस्था की जरूरत है, जो बगैर आमने-सामने बैठकर मीटिंग किए अंगुलियों पर (लैपटॉप या मोबाइल) पर मूल्यांकन कर सके. महामारी की स्थिति में वीडियो कांफ्रेंस आधारित बैठकों का अनुभव छोटी मीटिंग के लिए लंबी दूरी की यात्रा से बचने का अब एक नया सामान्य तरीका होगा. इससे ऊर्जा और संसाधन दोनों की बचत होगी और सबसे महत्वपूर्ण है कि इससे कार्य क्षमता बढ़ेगी.

लेखक : प्रो. अप्पा राव पोडिले (कुलपति एवं जेसी बोस फेलो (डीएसटी), हैदराबाद विश्वविद्यालय (तेलंगाना)

हैदराबाद : नीति आयोग ने सार्वजनिक खर्च पर बारीकी से नजर रखकर और उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए उसकी जवाबदेही तय करने पर जोर दिया. सबसे जरूरी बदलाव यह हुआ कि सरकारी धन के खर्च में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए भारत सरकार की योजनाओं को डिजिटल तरीके से लागू करने के साथ पब्लिक फंड मैनेज्मेंट सिस्टम (पीएफएमएस) के माध्यम से निगरानी की जाने लगी. अब 30 साल बाद संशोधित कर नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 लाई गई है. उम्मीद है कि यह वैश्विक मानकों के साथ लचीलेपन और जवाबदेही के जरिए गुणवत्ता में बेहतरी लाने के लिए और राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह बदल देगी. एनईपी-2020 में नीति के जुड़े बहुत सारे नए दिशा-निर्देश हैं, लेकिन यह लेख मोटे तौर पर अनुसंधान से संबंधित नीतियों तक ही सीमित रहेगा.

एसटीईएम से एसटीईएएम पर केंद्रित होगा ध्यान
शिक्षा एवं अनुसंधान हमेशा साथ-साथ चलता है. किसी देश को आत्मनिर्भर बनने के लिए अनुसंधान को बहुत कुछ करना होता है. खासकर तब और प्रासंगिक हो जाता है, जब भारत ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात कर रहा हो. शोध के क्षेत्र में किया गया निवेश लंबे समय के बाद लगातार बहुत अधिक रिटर्न देता है. अनुसंधान पर किए गए खर्च का लाभ हमेशा उससे अधिक मिलेगा. भारत के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक-आर्थिक विविधताओं के बारे में युवा मन को जोर देकर अवगत कराना बहुत सारे छात्रों को हमारे समाज को तकलीफ देने वाले विभिन्न मुद्दों का समाधान ढूंढने के लिए सक्रिय करता है. अनुसंधान में इस तरह की भावना मानविकी और सामाजिक विज्ञान के ऐसे खुलासे से उत्पन्न होती हैं, जिन्हें शोध की संस्कृति का पोषण करने वाले विश्वविद्यालयों में धार मिलती है, लेकिन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अभियंत्रण और गणित (एटीईएम) में अनुसंधान के विषय अधिकतर विश्वविद्यालयों के बाहर होते हैं. विश्वविद्यालय के शोधकर्ता एक तरफ तो भारत के वैज्ञानिकों से मुकाबला करते हैं और दूसरी तरफ जो इन विषयों के वैश्विक नेतृत्वकर्ता हैं उनसे. विश्वविद्यालयों को लाभ यह है कि हर साल नई प्रतिभाओं का आना जारी रहता है. एनईपी-2020 में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा संस्थानों (एचईआईज) की परिकल्पना की गई है, जिनमें विश्वविद्यालय, आईआईटी/एनआईटी शामिल हैं, जो बहुविषयी संस्थानों में बदले जाएंगे. इस नीति का मकसद उच्च शिक्षा संस्थानों को कला के महत्वपूर्ण अवयवों को लाकर विज्ञान, प्रौद्यौगिकी, अभियंत्रण, कला और गणित (एसटीईएएम) पर केंद्रित संस्थान में बदलना है न कि उनके अनुसंधान के विषयों को एसटीईएम विषयों तक सीमित रखना है. इस नीति में दुनिया और विशेषकर भारत के लिए कला और सामाजिक विज्ञान के महत्व पर जोर दिया गया है.

राष्ट्रीय अनुसंधान प्रतिष्ठान
भारतीय प्रोफेसरों में से कई अनुभव करते हैं कि विकसित देशों के समकालीनों ने भारत में अनुसंधान पर निवेश के अनूठे तरीकों का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है. भारत सरकार हर साल 15 हजार से अधिक अनुसंधान के फेलोशिप के लिए और डॉक्टरेट के बाद कुछ हजार फेलोशिप के लिए सहायता देती है. इससे भी अधिक प्राइम मिनिस्टर रिसर्च फेलोशिप (पीएमआरएफ) योजना के तहत हम लोगों के पास आकर्षक एवं बहुत ही प्रतिस्पर्धात्मक फेलोशिप है. भारत में अनुसंधान फेलोशिप का मकसद प्राथमिक तौर पर मेधावी युवाओं को आकर्षित कर बगैर किसी बंधन के जिज्ञासा के साथ से अनुसंधान के लिए प्रेरित करना है. पीएचडी के लिए सीधे अनुसंधान फेलोशिप के साथ युवा शोधकर्ताओं को इस तरह से बड़े पैमाने पर सहायता एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के जरिए दी जाती है, जो भारत के लिए अनूठी है.

उच्च शिक्षण संस्थानों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं में शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों को (शोध अनुदान के लिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा की तुलना में) अनुसंधान अनुदान भी उदारतापूर्वक दिया गया है. दी गई परिस्थितियों में अच्छा प्रदर्शन करने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुसंधान के लिए बुनियादी संरचना की सहायता भी उदारता के साथ मुहैया कराई गई है. किसी खास या शोधकर्ताओं के समूह को अनुदान देने के अलावा और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) आदि की ओर से भी अनुसंधान के लिए विभिन्न योजनाएं लागू की गई हैं.

इस तरह की सहायता का इस्तेमाल करके कुछ केंद्र के पैसे से चलने वाले उच्च शिक्षण संस्थान जैसे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, दिल्ली यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ हैदराबाद आदि ने इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस (आईओई) नाम से जाने जाने वाला प्रतिष्ठित दर्जा प्राप्त करने के लिए गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान परिणाम दिया है. यह विश्वविद्यालय आईओई का दर्जा पा चुके कुछ आईआईटीज और इंडियन स्कूल ऑफ साइंस जैसे गहन अनुसंधान से जुड़े अग्रणी संस्थानों के बड़े लीग में शामिल हो गए. भारत को शोध विश्वविद्यालय बनने के लिए ऐसे और उच्च शिक्षण संस्थानों की जरूरत है, जिसे एनईपी- 2020 ने स्पष्ट रूप से कहा है.

मेधावी छात्रों के लिए फेलोशिप और शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान अनुदान ने भारत में नाटकीय ढंग से अनुसंधान संस्कृति में सुधार किया है. कर दाताओं का धन अनुसंधान पर खर्च करने के लिए अधिक जवाबदेही लाने के लिए मौजूदा रुख की सही ट्यूनिंग आवश्यक है. राष्ट्रीय अनुसंधान प्रतिष्ठान ने विचार किया है कि एनईपी- 2020 को पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने के साथ अनुसंधान परिणामों की गुणवत्ता को बढ़ावा देने के लक्ष्य के रूप में भी देखा जा सकेगा. एनआरएफ को शोध की प्राथमिकताएं तय करनी हैं, राष्ट्रीय जरूरतों की पहचान करनी है, शोधकर्ताओं को वैश्विक स्तर का अनुसंधान करने लिए सहायता करनी है और अनुसंधान के लिए धन प्राप्त करने वाले खास लोगों या समूहों ने कैसा प्रदर्शन किया, उसकी निगरानी करनी है. एनईपी एनआरएफ को देश में अनुसंधान के पारिस्थितिकी तंत्र को बदलने वाले औजार के रूप में देखती है.

अनुसंधान संस्कृति विकसित करना
एक हजार से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों वाले देश में हमें इनमें और को गुणवत्ता वाले अनुसंधान विश्वविद्यालयों रूप में बदलने की जरूरत है. केंद्र और प्रदेश की सरकारों को बहुत सावधानी से रणनीति विकसित करने और अपने प्रयासों से एक-दूसरे के पूरक बनने के लिए वैसे क्षेत्रों की पहचान करने की जरूरत है, जिसमें यह ओवरलैप न करें. भारत सरकार को अनुसंधान की नैतिकता से कोई समझौता किए बगैर उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए अपनी तरफ से ऐसी योजनाएं विकसित करनी हैं, जो केंद्रीय विश्वविद्यालयों की सफलता की कहानियां बयां करें. सार्वजनिक संस्थानों में जटिलताएं और जड़ता के बीच स्थाई रोजगार मुहैया कराने वाले मॉडल को एक ऐसे मॉडल के साथ जुड़ना होगा, जो जिम्मेदारी और जवाबदेही देता है. हो सकता है कि पेशेवरों की सेवा को इस तरह से 5 या 7 साल के कार्यकाल के लिए नहीं लिया जाए. युवाओं को नियुक्ति की गारंटी देने वाले विश्वास के लिए एक न्यूनतम आउटपुट देने की जरूतर होगी, यह एक हाइब्रिड मॉडल हो सकता है.

शुरुआती संकेतों से पता चलता है कि इस तरह के हाइब्रिड मॉडल का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च में परीक्षण किया जा रहा है. इसी समय यह भी महत्वपूर्ण है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसंधान की एक स्वस्थ संस्कृति विकसित हो. भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा में मुकाबला करने के लिए एक ऐसी संस्कृति जो अच्छे शोध से जुड़े प्रश्न पूछने को बढ़ावा देती हो, एक संस्कृति जो बढ़ने से संबधित या अशांतिकारक नवाचार को बढ़ावा देती हो, एक ऐसी संस्कृति जो युवाओं को कुछ शुरू करने (स्टार्ट अप) के लिए अनुदान प्रदान करती हो, एक संस्कृति जो सहयोग को प्रोत्साहित करती हो, एक संस्कृति जो अंतःविषय अनुसंधान के लिए खुली हो, एक ऐसी संस्कृति जो शोधकर्ताओं को बड़े सवालों के समाधान की अनुमति देती हो आदि को अधिक से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों में विकसित करना और उनका पोषण करना होगा.

बड़ी संख्या में मौजूद राज्य के विश्वविद्यालय सभी एक-दूसरे तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं. बहुत सारे राज्य विश्वविद्यालय युवाओं के सबसे बड़े समूह पर नजर टिकाए रहते हैं, जिनके पास शिक्षकों की कम उपलब्धता और बहुत कम संसाधन हैं. शिक्षकों की नियुक्ति 10-20 साल के अंतराल पर होती है, जिससे अनुसंधान की गतिविधियां उत्साहहीन हो जाती हैं. कई परिसर तो ऐसे होते हैं जहां पर्याप्त संरचनात्मक सुविधाएं ही नहीं हैं, जिससे वहां अनुसंधान के बारे में सोचा भी जा सके. ऐसी स्थिति में युवा अनुसंधानकर्ताओं को अपने अनुसंधान के लक्ष्य को हासिल करने के लिए बिना किसी मतलब के बहुत अधिक भाग-दौड़ करनी पड़ती है. कुछ परिसरों में बाधारहित इंटरनेट सेवाओं की कौन कहे बिजली और पानी की आपूर्ति भी नियमित नहीं होती. राज्य सरकारें यदि अनुसंधान की संस्कृति विकसित कर उसे बनाए रखना चाहती हैं और अनुसंधान विश्वविद्यालय का दर्जा को पाने के लिए प्रतिस्पर्धा में बना रहना चाहती हैं तो कई राज्य सरकारों को विश्वविद्यालय परिसरों का कायाकल्प करने के लिए कमर कसनी होगी. ऐसा करने के लिए रोल मॉडल के रूप में अन्ना यूनिवर्सिटी, पुणे के सावित्रीबाई फुले यूनिवर्सिटी, जादवपुर यूनिवर्सिटी, पंजाब यूनिवर्सिटी आदि का अनुकरण किया जा सकता है.

शिक्षा एक सहकारी विषय है, देश को शोध की ताकत वाला और ऐसे अनुसंधान कराने के लिए जो स्थानीय जरूरतों को पूरा करे, लेकिन उनका स्तर वैश्विक हो, इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए भारत सरकार को राज्यों के साथ समन्यवय का एक बड़ा प्रयास करना होगा. इसके लिए एक कुशल प्रबंधन व्यवस्था की जरूरत है, जो बगैर आमने-सामने बैठकर मीटिंग किए अंगुलियों पर (लैपटॉप या मोबाइल) पर मूल्यांकन कर सके. महामारी की स्थिति में वीडियो कांफ्रेंस आधारित बैठकों का अनुभव छोटी मीटिंग के लिए लंबी दूरी की यात्रा से बचने का अब एक नया सामान्य तरीका होगा. इससे ऊर्जा और संसाधन दोनों की बचत होगी और सबसे महत्वपूर्ण है कि इससे कार्य क्षमता बढ़ेगी.

लेखक : प्रो. अप्पा राव पोडिले (कुलपति एवं जेसी बोस फेलो (डीएसटी), हैदराबाद विश्वविद्यालय (तेलंगाना)

Last Updated : Aug 12, 2020, 1:08 PM IST
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