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150 साल बाद भी पेरिस कम्यून का फ्रांस की राजनीति पर असर

पेरिस कम्यून की सरकार केवल 72 दिन तक चली, लेकिन इस शासन ने इतिहास में एक मॉडल पेश किया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, गैरबराबरी और शोषण को किस तरह मिटाया जा सकता है. यह घटना 150 साल बाद भी फ्रांस पर अपना प्रभाव छोड़ती है.

पेरिस कम्यून
पेरिस कम्यून
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Published : May 30, 2021, 8:13 PM IST

हैदराबाद : पेरिस कम्यून (Paris Commune) फ्रांस के इतिहास की एक महान घटना है. 18 मार्च 1871 का वो दिन जब मजदूर वर्ग सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया था. इतिहास में यह पहली बार था, जब किसी सर्वहारा सत्ता की स्थापना हुई थी. 26 मार्च को पेरिस कम्यून का चुनाव हुआ और फिर 28 मार्च को इसकी घोषणा कर दी गई. मजदूर वर्ग के सत्ता में आने से पूंजीपति वर्ग की नींव डगमगाने लगी.

पेरिस कम्यून की सरकार केवल 72 दिन तक चली, लेकिन इस शासन ने इतिहास में एक मॉडल पेश किया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, गैरबराबरी और शोषण को किस तरह मिटाया जा सकता है. यह घटना 150 साल बाद भी फ्रांस पर अपना प्रभाव छोड़ती है.

ये भी पढ़ें : महामारी के बीच भी चीन-ताइवान के बीच राजनीतिक तनाव, जानिए कारण

सेना ने कुचला आंदोलन

इस ऐतिहासिक घटना के अगले तीन महीनों तक पीपुल्स कमेटी ने राजधानी की बागडोर संभाली, जबकि आधिकारिक फ्रांसीसी सरकार पूरी तरह से चरमराई हुई थी, लेकिन फ्रांसीसी सरकार ने सेना के जरिए इस आंदोलन को कुचल डाला.

सर्वहारा सत्ता का विनाश होता देख रुढ़िवादी ताकतों के चेहरे खिलखिला उठे. वहीं, जर्मन विचारक कार्ल मार्क्स ने इस घटना को अपनी श्रमिक क्रांति के एक प्रोटोटाइप के रूप में देखा.

फ्रेंको-प्रशिया युद्ध के मद्देनजर

प्रशिया के सैनिकों द्वारा चार महीने की घेराबंदी के बाद, गंभीर अकाल और जीवन यापन की बढ़ती लागत, कामकाजी वर्ग (जो हौसमैन के शहरी नवीनीकरण के बाद पेरिस के पूर्वी हिस्से में एकजुट थे) उन्हें अलग किया गया और वर्साय में नई सरकार (कम्युनार्ड विद्रोही की नजर में शांतिवादी, शाही, सहयोगी) ने अपनी सेना का इस्तेमाल कर श्रमिकों के बढ़ते असंतोष को बलपूर्वक दबाने का प्रयास किया.

इधर, पूर्वी पेरिस में लोग संगठित हो गए और 30,000 लोगों ने विद्रोह में हथियार उठा लिए. 18 मार्च के बाद से पुरुष और महिलाएं, बिल्डर, पत्थर काटने वाले, बढ़ई, स्थानीय दुकानदारों ने नेशनल गार्ड की रक्षा का जिम्मा संभालने के लिए सेना में शामिल हो गए.

इस दौरान पेरिस कम्यून के 147 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, यहां से सर्वहारा वर्ग का आंदोलन एक अंत की ओर जाने लगा. 19वीं सदी की इस अंतिम क्रांति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप मिला. आज भी इस घटना की वर्षगांठ पर कार्यक्रम आयोजित कर पेरिस के इतिहास की झलक पेश की जाती है.

ये भी पढ़ें : नेपाल सरकार ने राम मंदिर के निर्माण के लिए बजट में धन आवंटित किया

150 साल बाद घटना का असर

पेरिस कम्यून की सत्ता भले ही 72 दिन चली हो, लेकिन फ्रांस पर इसका प्रभाव आज भी साफ-साफ नजर आता है.

पेरिस में वामपथियों द्वारा आज भी इस आंदोलन की भूमिका और उसके महत्व पर प्रकाश डाला जाता है.

वहीं, दक्षिणपंथी मानते हैं कि पेरिस की महापौर ऐनी हिडाल्गो पेरिस कम्यून समर्थन में राजनीतिक लाभ तलाश रही हैं. उनका मानना है कि ऐनी हिडाल्गो की नजर राष्ट्रपति चुनाव पर है.

वहीं, वामपंथी भी लगातार दक्षिणपंथियों पर 'सांप्रदायिक' होने का आरोप लगाते रहते हैं.

हैदराबाद : पेरिस कम्यून (Paris Commune) फ्रांस के इतिहास की एक महान घटना है. 18 मार्च 1871 का वो दिन जब मजदूर वर्ग सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया था. इतिहास में यह पहली बार था, जब किसी सर्वहारा सत्ता की स्थापना हुई थी. 26 मार्च को पेरिस कम्यून का चुनाव हुआ और फिर 28 मार्च को इसकी घोषणा कर दी गई. मजदूर वर्ग के सत्ता में आने से पूंजीपति वर्ग की नींव डगमगाने लगी.

पेरिस कम्यून की सरकार केवल 72 दिन तक चली, लेकिन इस शासन ने इतिहास में एक मॉडल पेश किया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, गैरबराबरी और शोषण को किस तरह मिटाया जा सकता है. यह घटना 150 साल बाद भी फ्रांस पर अपना प्रभाव छोड़ती है.

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सेना ने कुचला आंदोलन

इस ऐतिहासिक घटना के अगले तीन महीनों तक पीपुल्स कमेटी ने राजधानी की बागडोर संभाली, जबकि आधिकारिक फ्रांसीसी सरकार पूरी तरह से चरमराई हुई थी, लेकिन फ्रांसीसी सरकार ने सेना के जरिए इस आंदोलन को कुचल डाला.

सर्वहारा सत्ता का विनाश होता देख रुढ़िवादी ताकतों के चेहरे खिलखिला उठे. वहीं, जर्मन विचारक कार्ल मार्क्स ने इस घटना को अपनी श्रमिक क्रांति के एक प्रोटोटाइप के रूप में देखा.

फ्रेंको-प्रशिया युद्ध के मद्देनजर

प्रशिया के सैनिकों द्वारा चार महीने की घेराबंदी के बाद, गंभीर अकाल और जीवन यापन की बढ़ती लागत, कामकाजी वर्ग (जो हौसमैन के शहरी नवीनीकरण के बाद पेरिस के पूर्वी हिस्से में एकजुट थे) उन्हें अलग किया गया और वर्साय में नई सरकार (कम्युनार्ड विद्रोही की नजर में शांतिवादी, शाही, सहयोगी) ने अपनी सेना का इस्तेमाल कर श्रमिकों के बढ़ते असंतोष को बलपूर्वक दबाने का प्रयास किया.

इधर, पूर्वी पेरिस में लोग संगठित हो गए और 30,000 लोगों ने विद्रोह में हथियार उठा लिए. 18 मार्च के बाद से पुरुष और महिलाएं, बिल्डर, पत्थर काटने वाले, बढ़ई, स्थानीय दुकानदारों ने नेशनल गार्ड की रक्षा का जिम्मा संभालने के लिए सेना में शामिल हो गए.

इस दौरान पेरिस कम्यून के 147 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, यहां से सर्वहारा वर्ग का आंदोलन एक अंत की ओर जाने लगा. 19वीं सदी की इस अंतिम क्रांति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप मिला. आज भी इस घटना की वर्षगांठ पर कार्यक्रम आयोजित कर पेरिस के इतिहास की झलक पेश की जाती है.

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150 साल बाद घटना का असर

पेरिस कम्यून की सत्ता भले ही 72 दिन चली हो, लेकिन फ्रांस पर इसका प्रभाव आज भी साफ-साफ नजर आता है.

पेरिस में वामपथियों द्वारा आज भी इस आंदोलन की भूमिका और उसके महत्व पर प्रकाश डाला जाता है.

वहीं, दक्षिणपंथी मानते हैं कि पेरिस की महापौर ऐनी हिडाल्गो पेरिस कम्यून समर्थन में राजनीतिक लाभ तलाश रही हैं. उनका मानना है कि ऐनी हिडाल्गो की नजर राष्ट्रपति चुनाव पर है.

वहीं, वामपंथी भी लगातार दक्षिणपंथियों पर 'सांप्रदायिक' होने का आरोप लगाते रहते हैं.

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