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अमेरिका-तालिबान समझौता : दो दशक तक खिंचे संघर्ष पर विराम

अमेरिका और तालिबान के बीच हुआ समझौता करीब 19 साल से चल रहे भीषण संघर्ष को रोकने के लिए एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है. इस संघर्ष में लगभग 2,400 अमेरिकी सैनिक जबकि 34 हजार अफगान नागरिक मारे गए. इस युद्ध में अमेरिका ने लगभग 975 अरब डॉलर खर्च किए.

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Published : Mar 1, 2020, 10:31 PM IST

Updated : Mar 7, 2020, 8:39 PM IST

हैदराबाद : अफगानिस्तान में हिंसा रोकने के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच अहम समझौता हुआ है. अफगानिस्तान में करीब 19 वर्षों से चल रहे भीषण संघर्ष को रोकने के लिए यह एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है. यह संघर्ष 2001 एक में उस समय शुरू हुआ, जब अमेरिका स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आंतकी हमला हुआ था.

अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद 07 अक्टूबर 2001 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की घोषणा के बाद अमेरिकी और ब्रिटिश सैनिकों ने अफगानिस्तान पर हमला किया. इस हमले में बड़े पैमाने पर तालिबान और अलकायदा के लड़ाकों, प्रशिक्षण शिविरों और हवाई सुरक्षा को लक्षित कर तबाह कर दिया गया.

इसके बाद नवंबर 2001 में 1,300 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान पहुंचे, जिसके बाद यह संख्या दिसंबर 2001 तक बढ़कर 2,500 हो गई. इन सैनिकों ने पर्वतीय क्षेत्र तोरा-बोरा में अल-कायदा नेता ओसामा बिन लादेन की तलाश की. इस दौरान अमेरिकी बलों में तालिबान को बाहर कर दिया और एक अंतरिम अफगान सरकार स्थापित की.

इस दौरान अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में अफगान सेना के नेतृत्व में तालिबान के साथ युद्ध लड़ते रहे. वर्ष का अंत होते-होते अफगानिस्तान में अमेरिकी ने अपने 9700 सैनिक तैनात कर दिए. यह संख्या 2003 में बढ़कर 13,100 हो गई.

2009 में जैसे-जैसे अफगानिस्तान में लड़ाई तीव्र होती गई, वैसे-वैसे अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ती गई. 2009 के अंत होने तक अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की संख्या 33 हजार हो गई, जो अगस्त 2010 तक एक लाख पहुंच गई. 2011 में अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

लादेन की मौत के बाद जून 2011 में राष्ट्रपति ओबामा ने सेना की वापसी की योजना की घोषणा की और 2011 के अंत तक 10,000 सैनिक अमेरिका वापस बुला लिए गए. दिसंबर 2013 तक अमेरिकी सैनकों की संख्या महज 46 हजार रह गई. इसके बाद भी सैनिक वापस अमेरिका जाते रहे.

दिसंबर 2014 में अफगानिस्तान में सेना की संख्या घट कर आधी रह गई. इस दौरान ओबामा ने युद्ध अभियान को समाप्त घोषित कर दिया, लेकिन अफगान सैनिकों को प्रशिक्षण देना जारी रखा.

इसके बाद 21 अगस्त 2017 में नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान में अतिरिक्त सैनिकों को तैनात करने का एलान किया.

02 सितंबर 2019 अमेरिकी दूत ने तालिबान के जल्माय खलीलजाद के साथ बातचीत के बाद, घोषणा की कि विद्रोही समूह के साथ एक समझौते के तहत पहले 5,000 अमेरिकी सैनिक अंतिम समझौते के 135 दिनों में बाद वापस अमेरिका जाएंगे.

07 सितंबर 2019 को ट्रंप ने कहा कि उनके और तालिबान नेता व अफगान राष्ट्रपति के बीच गुप्त बैठक हुई और कैंप डेविड को रद्द कर दिया गया.

21 फरवरी 2020 को विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने घोषणा की कि अमेरिकी अधिकारी और तालिबान एक फैसले पर पहुंच गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अफगानिस्तान में हिंसा में कमी हो सकती है, इस महीने के अंत में एक समझौते के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाएगा जो अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध को समाप्त करेगा.

कौन है तालिबान
पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है अराजकता में उभरा समूह, यह समूह 1989 में सोवियत सैनिकों की वापसी के बाद वजूद में आया. इसने 1996 में काबुल पर अपना नियंत्रण कर लिया और दो साल के भीतर ही देश के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा कर लिया. इस दौरान तालिबान ने शरिया या इस्लामी कानून के अपने स्वयं के संस्करण को देशभर में लागू कर दिया.

सत्ता में आने से पहले उन्होंने टीवी, संगीत और सिनेमा पर प्रतिबंध लगा दिया, सख्त ड्रेस कोड लागू कर दिए, महिला शिक्षा पर गंभीर रूप से अंकुश लगाया दिया और कानून तोड़ने पर क्रूर दंड दिया जाता.

हालांकि अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान को तालिबान से खदेड़ दिया, लेकिन अफगानिस्तान ने बाहर होने के बाद तालिबान नेता मुल्ला उमर ने तालिबान का नेतृत्व करना जारी रखा. 2013 में मुल्ला उमर की उनकी मृत्यु हो गई, हालांकि तालिबान ने दो साल तक इसकी पुष्टि नहीं की.

मुल्ला उमर के तालिबान का नेतृत्व अब मावलवी हिबतुल्लाह अखुंदजादा कर रहे हैं.

अफगानिस्तान युद्ध इतने लंबे समय तक क्यों चला
अफगानिस्तान युद्ध इतने लंबे समय तक चलने का कारण यह था कि तालिबान फिर से संगठित होने में सक्षम थे.

इसके अलावा अफगानिस्तान के पड़ोसी, पाकिस्तान की भी भूमिका है. कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान में तालिबान की जड़ें हैं. वह अमेरिकी आक्रमण के दौरान तालिबान वहां फिर से एकजुट हुआ, लेकिन पाकिस्तान ने उनकी मदद करने या उनकी रक्षा करने से इनकार कर दिया. यहां तक ​​कि अमेरिका ने भी आतंकवादियों से लड़ने के लिए ऐसा करने की मांग की.

तालिबान के संसाधन और संघर्ष के दौरान वे कैसे मजबूत रहे
19 वर्ष लंबे संघर्ष के दौरान तालिबान अमेरिकी सेना सामने मजबूती से खड़ा रहा. जो वाकई हैरान करने वाला है. तालिबान को, जो चीज मजबूत बनाती है, वह है अफगानिस्तान में पैदा होने वाली अफीम. अफगानिस्तान अफीम की खेती करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक देश है.

एक अनुमान के अनुसार अफगानिस्तान एक वर्ष में डेढ़ से तीन बिलियन डॉलर की कीमत की अफीम निर्यात करता है, अफीम देश का सबसे बड़ा व्यवसाय है. इसके अलावा अफगानिस्तान दुनिया भर में अवैध हेरोइन के बड़ी मात्रा की आपूर्ति करता है.

हालांकि, सरकारी क्षेत्रों में भी कुछ खेती होती है, लेकिन ज्यादातर अफीम उगाना तालिबान के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में होता है और माना जाता है कि यह आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है.

अफीमकी खेती हेलमंद प्रांत और कंधार में 30 हजार से अधिक हेक्टेयर में की जाती है, जहां 23,410 हेक्टेयर में अफीम की खेती की जाती है.

इसके अलावा तालिबान टैक्स से पैसा कमाता है. तालिबान अफीम किसानों से 10 प्रतिशत खेती कर वसूल करता है. इसके बाद अफीम को हेरोइन में परिवर्तित करने वाली प्रयोगशालाओं से भी कर वसूल जाता है, साथ ही जो व्यापारी अवैध दवाओं की तस्करी करते हैं उनसे भी भारी कर लिया जाता है.

इसके अलावा अवैध दवा अर्थव्यवस्था में तालिबान की वार्षिक हिस्सेदारी अनुमानित 100 से 400 मिलियन डॉलर है.

अफगानिस्तान युद्ध में अमेरिका का नुक्सान
करीब 19 वर्ष अफगानिस्तान में चले इस युद्ध में अमेरिका ने कुल 975 बिलियन डॉलर खर्च किए.

युद्ध से नुकसान
अफगानिस्तान में 2001 से अब तक लगभग 2,400 अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं, जबकि 20 हजार गंभीर रूप से घायल हैं. युद्ध की वित्तीय लागत एक ट्रिलियन डॉलर के करीब पहुंच रही है.

इसके अलावा 2009 से अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के सहायता मिशन के दौरान हुई हिंसा में एक लाख से अधिक अफगानी मारे गए या घायल हुए.

इस अवधि के दौरान लगभग 34 हजार अफगान नागरिक मारे गए हैं, जिनमें से कई बच्चे हैं.

कौन कर रहा तालिबान का नेतृत्व
तालिबान की बातचीत करने वाली 14 सदस्यीय टीम में गुआंतानामो फाइव ( अमेरिका द्वारा रिहा कैदी) भी शामिल हैं, उन्हें विवादास्पद अमेरिकी हिरासत शिविर में लगभग 13 वर्षों तक रहे. उन्हें 2014 में कैदी एक्सचेंज के तहत कतर भेजा गया.

मोहम्मद फजल - 2001 में अमेरिकी सैन्य अभियान के दौरान तालिबान के उप रक्षा मंत्री था.

मोहम्मद नबी ओमारी - जिसके हक्कानी आतंकवादी नेटवर्क के करीबी संबंध हैं.

मुल्ला नोरुल्लाह नूरी - एक वरिष्ठ तालिबान सैन्य कमांडर और पूर्व प्रांतीय गवर्नर था.

खैरुल्ला खैरखवा - तालिबान के आंतरिक मंत्री और हेरात, अफगानिस्तान के तीसरे सबसे बड़े शहर के गवर्नर के रूप में सेवा दी.

अब्दुल हक वसीक - तालिबान के खुफिया प्रमुख.
तालिबान के एक वरिष्ठ व्यक्ति और कतर में अपने राजनीतिक कार्यालय के पूर्व प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजाई समूह की वार्ता टीम का नेतृत्व कर रहे हैं.

कतर में मौजूद मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, राजनीतिक मामलों के लिए तालिबान के उप प्रमुख और समूह के सह-संस्थापकों में से एक है, जो लगभग नौ साल की कैद में बिताने के बाद पिछले साल अक्टूबर में पाकिस्तान की जेल से रिहा हुआ था.

हैदराबाद : अफगानिस्तान में हिंसा रोकने के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच अहम समझौता हुआ है. अफगानिस्तान में करीब 19 वर्षों से चल रहे भीषण संघर्ष को रोकने के लिए यह एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है. यह संघर्ष 2001 एक में उस समय शुरू हुआ, जब अमेरिका स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आंतकी हमला हुआ था.

अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद 07 अक्टूबर 2001 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की घोषणा के बाद अमेरिकी और ब्रिटिश सैनिकों ने अफगानिस्तान पर हमला किया. इस हमले में बड़े पैमाने पर तालिबान और अलकायदा के लड़ाकों, प्रशिक्षण शिविरों और हवाई सुरक्षा को लक्षित कर तबाह कर दिया गया.

इसके बाद नवंबर 2001 में 1,300 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान पहुंचे, जिसके बाद यह संख्या दिसंबर 2001 तक बढ़कर 2,500 हो गई. इन सैनिकों ने पर्वतीय क्षेत्र तोरा-बोरा में अल-कायदा नेता ओसामा बिन लादेन की तलाश की. इस दौरान अमेरिकी बलों में तालिबान को बाहर कर दिया और एक अंतरिम अफगान सरकार स्थापित की.

इस दौरान अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में अफगान सेना के नेतृत्व में तालिबान के साथ युद्ध लड़ते रहे. वर्ष का अंत होते-होते अफगानिस्तान में अमेरिकी ने अपने 9700 सैनिक तैनात कर दिए. यह संख्या 2003 में बढ़कर 13,100 हो गई.

2009 में जैसे-जैसे अफगानिस्तान में लड़ाई तीव्र होती गई, वैसे-वैसे अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ती गई. 2009 के अंत होने तक अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की संख्या 33 हजार हो गई, जो अगस्त 2010 तक एक लाख पहुंच गई. 2011 में अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

लादेन की मौत के बाद जून 2011 में राष्ट्रपति ओबामा ने सेना की वापसी की योजना की घोषणा की और 2011 के अंत तक 10,000 सैनिक अमेरिका वापस बुला लिए गए. दिसंबर 2013 तक अमेरिकी सैनकों की संख्या महज 46 हजार रह गई. इसके बाद भी सैनिक वापस अमेरिका जाते रहे.

दिसंबर 2014 में अफगानिस्तान में सेना की संख्या घट कर आधी रह गई. इस दौरान ओबामा ने युद्ध अभियान को समाप्त घोषित कर दिया, लेकिन अफगान सैनिकों को प्रशिक्षण देना जारी रखा.

इसके बाद 21 अगस्त 2017 में नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान में अतिरिक्त सैनिकों को तैनात करने का एलान किया.

02 सितंबर 2019 अमेरिकी दूत ने तालिबान के जल्माय खलीलजाद के साथ बातचीत के बाद, घोषणा की कि विद्रोही समूह के साथ एक समझौते के तहत पहले 5,000 अमेरिकी सैनिक अंतिम समझौते के 135 दिनों में बाद वापस अमेरिका जाएंगे.

07 सितंबर 2019 को ट्रंप ने कहा कि उनके और तालिबान नेता व अफगान राष्ट्रपति के बीच गुप्त बैठक हुई और कैंप डेविड को रद्द कर दिया गया.

21 फरवरी 2020 को विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने घोषणा की कि अमेरिकी अधिकारी और तालिबान एक फैसले पर पहुंच गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अफगानिस्तान में हिंसा में कमी हो सकती है, इस महीने के अंत में एक समझौते के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाएगा जो अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध को समाप्त करेगा.

कौन है तालिबान
पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है अराजकता में उभरा समूह, यह समूह 1989 में सोवियत सैनिकों की वापसी के बाद वजूद में आया. इसने 1996 में काबुल पर अपना नियंत्रण कर लिया और दो साल के भीतर ही देश के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा कर लिया. इस दौरान तालिबान ने शरिया या इस्लामी कानून के अपने स्वयं के संस्करण को देशभर में लागू कर दिया.

सत्ता में आने से पहले उन्होंने टीवी, संगीत और सिनेमा पर प्रतिबंध लगा दिया, सख्त ड्रेस कोड लागू कर दिए, महिला शिक्षा पर गंभीर रूप से अंकुश लगाया दिया और कानून तोड़ने पर क्रूर दंड दिया जाता.

हालांकि अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान को तालिबान से खदेड़ दिया, लेकिन अफगानिस्तान ने बाहर होने के बाद तालिबान नेता मुल्ला उमर ने तालिबान का नेतृत्व करना जारी रखा. 2013 में मुल्ला उमर की उनकी मृत्यु हो गई, हालांकि तालिबान ने दो साल तक इसकी पुष्टि नहीं की.

मुल्ला उमर के तालिबान का नेतृत्व अब मावलवी हिबतुल्लाह अखुंदजादा कर रहे हैं.

अफगानिस्तान युद्ध इतने लंबे समय तक क्यों चला
अफगानिस्तान युद्ध इतने लंबे समय तक चलने का कारण यह था कि तालिबान फिर से संगठित होने में सक्षम थे.

इसके अलावा अफगानिस्तान के पड़ोसी, पाकिस्तान की भी भूमिका है. कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान में तालिबान की जड़ें हैं. वह अमेरिकी आक्रमण के दौरान तालिबान वहां फिर से एकजुट हुआ, लेकिन पाकिस्तान ने उनकी मदद करने या उनकी रक्षा करने से इनकार कर दिया. यहां तक ​​कि अमेरिका ने भी आतंकवादियों से लड़ने के लिए ऐसा करने की मांग की.

तालिबान के संसाधन और संघर्ष के दौरान वे कैसे मजबूत रहे
19 वर्ष लंबे संघर्ष के दौरान तालिबान अमेरिकी सेना सामने मजबूती से खड़ा रहा. जो वाकई हैरान करने वाला है. तालिबान को, जो चीज मजबूत बनाती है, वह है अफगानिस्तान में पैदा होने वाली अफीम. अफगानिस्तान अफीम की खेती करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक देश है.

एक अनुमान के अनुसार अफगानिस्तान एक वर्ष में डेढ़ से तीन बिलियन डॉलर की कीमत की अफीम निर्यात करता है, अफीम देश का सबसे बड़ा व्यवसाय है. इसके अलावा अफगानिस्तान दुनिया भर में अवैध हेरोइन के बड़ी मात्रा की आपूर्ति करता है.

हालांकि, सरकारी क्षेत्रों में भी कुछ खेती होती है, लेकिन ज्यादातर अफीम उगाना तालिबान के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में होता है और माना जाता है कि यह आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है.

अफीमकी खेती हेलमंद प्रांत और कंधार में 30 हजार से अधिक हेक्टेयर में की जाती है, जहां 23,410 हेक्टेयर में अफीम की खेती की जाती है.

इसके अलावा तालिबान टैक्स से पैसा कमाता है. तालिबान अफीम किसानों से 10 प्रतिशत खेती कर वसूल करता है. इसके बाद अफीम को हेरोइन में परिवर्तित करने वाली प्रयोगशालाओं से भी कर वसूल जाता है, साथ ही जो व्यापारी अवैध दवाओं की तस्करी करते हैं उनसे भी भारी कर लिया जाता है.

इसके अलावा अवैध दवा अर्थव्यवस्था में तालिबान की वार्षिक हिस्सेदारी अनुमानित 100 से 400 मिलियन डॉलर है.

अफगानिस्तान युद्ध में अमेरिका का नुक्सान
करीब 19 वर्ष अफगानिस्तान में चले इस युद्ध में अमेरिका ने कुल 975 बिलियन डॉलर खर्च किए.

युद्ध से नुकसान
अफगानिस्तान में 2001 से अब तक लगभग 2,400 अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं, जबकि 20 हजार गंभीर रूप से घायल हैं. युद्ध की वित्तीय लागत एक ट्रिलियन डॉलर के करीब पहुंच रही है.

इसके अलावा 2009 से अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के सहायता मिशन के दौरान हुई हिंसा में एक लाख से अधिक अफगानी मारे गए या घायल हुए.

इस अवधि के दौरान लगभग 34 हजार अफगान नागरिक मारे गए हैं, जिनमें से कई बच्चे हैं.

कौन कर रहा तालिबान का नेतृत्व
तालिबान की बातचीत करने वाली 14 सदस्यीय टीम में गुआंतानामो फाइव ( अमेरिका द्वारा रिहा कैदी) भी शामिल हैं, उन्हें विवादास्पद अमेरिकी हिरासत शिविर में लगभग 13 वर्षों तक रहे. उन्हें 2014 में कैदी एक्सचेंज के तहत कतर भेजा गया.

मोहम्मद फजल - 2001 में अमेरिकी सैन्य अभियान के दौरान तालिबान के उप रक्षा मंत्री था.

मोहम्मद नबी ओमारी - जिसके हक्कानी आतंकवादी नेटवर्क के करीबी संबंध हैं.

मुल्ला नोरुल्लाह नूरी - एक वरिष्ठ तालिबान सैन्य कमांडर और पूर्व प्रांतीय गवर्नर था.

खैरुल्ला खैरखवा - तालिबान के आंतरिक मंत्री और हेरात, अफगानिस्तान के तीसरे सबसे बड़े शहर के गवर्नर के रूप में सेवा दी.

अब्दुल हक वसीक - तालिबान के खुफिया प्रमुख.
तालिबान के एक वरिष्ठ व्यक्ति और कतर में अपने राजनीतिक कार्यालय के पूर्व प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजाई समूह की वार्ता टीम का नेतृत्व कर रहे हैं.

कतर में मौजूद मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, राजनीतिक मामलों के लिए तालिबान के उप प्रमुख और समूह के सह-संस्थापकों में से एक है, जो लगभग नौ साल की कैद में बिताने के बाद पिछले साल अक्टूबर में पाकिस्तान की जेल से रिहा हुआ था.

Last Updated : Mar 7, 2020, 8:39 PM IST
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