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म्यांमार की शांति प्रक्रिया में चीन की भी सक्रिय भूमिका

चीन हमेशा से दावा करता रहा है कि वह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है. यह उसकी नीति है. लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है. वह म्यांमार की शांति प्रक्रिया में बहुत ही सक्रिय भूमिका रख रहा है. कई बार तो वह दबाव भी बनाता है. इसके जरिए वह पूरे क्षेत्र में अपने नेतृत्व को नई धार देने की कोशिश करता है. उसकी कोशिश रहती है कि म्यांमार में उसे व्यापक समर्थन मिले.

म्यांमार की शांति प्रक्रिया
म्यांमार की शांति प्रक्रिया
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Published : Feb 4, 2021, 10:43 AM IST

हैदराबाद : म्यांमार के साथ चीन 1500 मील की सीमा साझा करता है. लिहाजा, जब भी म्यांमार में सैन्य या राजनीतिक उथल-पुथल मचती है, इसका असर चीन पर पड़ना तय है. वैसे, चीन म्यांमार के आंतरिक मामलों में काफी दखलअंदाजी रखता है. जब राखिने प्रांत में रोहिंग्या संकट बढ़ा, तब चीन म्यांमार के बचाव में उतर गया. यहां पर तातमाद ने रोहिंग्या के खिलाफ 'जातीय' सफाई का क्रूर अभियान चला रखा है. संयुक्त राष्ट्र में जब म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने की बात चली, तो चीन उसकी ढाल बनकर खड़ा हो गया. आतंकवादियों के खिलाफ अभियान के नाम पर चीन ने म्यांमार की भरपूर मदद की.

राखिने में चीन का बड़ा आर्थिक हित छिपा हुआ है. उसने क्युक्फ्यू में बंदरगाह विकसित किया है. विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना बना रखी है. रेल, सड़क, पाइपलाइन को विकसित किया जा रहा है, ताकि ऊर्जा और अन्य सामग्रियों को बंगाल की खाड़ी से म्यांमार के जरिए चीन के युन्नान प्रांत तक ले जाया जा सके.

म्यांमार के आंतरिक संघर्षों के जरिए चीन की क्या भूमिका है, इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. और संभवतः यह अमेरिकी शांति-समर्थन नीतियों को आगे बढ़ाने में मदद कर सकती है.

हकीकत से अलग चीन के हालात
चीन हमेशा से दावा करता रहा है कि वह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है. यह उसकी नीति है. लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है. वह म्यांमार की शांति प्रक्रिया में बहुत ही सक्रिय भूमिका रख रहा है. कई बार तो वह दबाव भी बनाता है. इसके जरिए वह पूरे क्षेत्र में अपने नेतृत्व को नई धार देने की कोशिश करता है. उसकी कोशिश रहती है कि म्यांमार में उसे व्यापक समर्थन मिले.

चीन के भीतर और आधिकारिक नियंत्रण के बाहर निजी स्तर पर भी इस संघर्ष को बल दिया जा रहा है. इसमें सीमा पर अवैध व्यापार और अन्य सेवाएं शामिल हैं.

चीन ने पिछले एक दशक में म्यांमार नीति को मजबूत किया है. राजनयिक, सैन्य और आर्थिक पहलुओं को लेकर बेहतर समन्वय और नियंत्रण सुनिश्चित करने पर उसका मुख्य जोर रहा है. हालांकि, इसके बावजूद म्यांमार के कई ऐसे आंतरिक मामले हैं, जिसकी वजह से चीन का प्रभाव बाधित होता रहता है.

म्यांमार का दृष्टिकोण बड़ी शक्तियों के प्रति हमेशा से संदेह भरा रहा है. संप्रुभता की रक्षा का मुद्दा उठता रहा है. भारत और चीन के बीच बर्मा की भौगोलिक स्थिति है. इसने देखा है कि राजनीतिक दबाव और उपनिवेशवाद किस तरह किसी देश को कमजोर कर देता है. लिहाजा, उसे विदेशी शक्तियों का भय हमेशा रहता है.

बर्मा चीन के साथ 1500 मील की सीमा साझा करता है. वह राजनीति, युद्ध, वाणिज्य के जरिए चीन से अटूट रूप से जुड़ा है.

1769 में हुआ शांति समझौता
1760 के दशक में मंगोल के नेतृत्व वाले युआन राजवंश ने बर्मा को जीतने का कई बार प्रयास किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. भौगोलिक बाधाएं जैसे पहाड़, नदी, जंगल से निकल पाना मुश्किल होता था. आखिरकार, दोनों पक्षों ने 1769 में शांति समझौता कर लिया. तब से चीन के साथ बर्मा का एक तरीके से अप्रत्यक्ष समझौता कायम रहा.1885 में यह ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया.

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के अंत में चीन और बर्मा के बीच करीबी बढ़ी. युन्नान और उत्तरी बर्मा के बीच लोगों का आना-जाना बहुत हुआ. चीनी मूल के कई लोग बर्मा आकर बसने लगे. सीमा पर अवैध कारोबार भी बढ़ता रहा. तस्करी भी जारी रहा.

1980 के दशक में जब चीन और म्यांमार ने अपने-अपने यहां पर राजनीतिक सुधारों पर प्रतिबंध लगाया, तो दोनों को अंतरराष्ट्रीय अलगाव का सामना करना पड़ा. म्यांमार को सैन्य सहायता चीन से प्राप्त हुई. तब से चीन लगातार म्यांमार को मिलिट्री हार्डवेयर की सप्लाई करता रहा है. मिलिट्री ट्रांसपोर्ट में सहयोग करता रहा है. चीन ने म्यांमार को एंटी शिप क्रूज मिसाइल, राडार, नौसैनिक बंदूकें, कोरवेटेस प्रदान किया है. म्यांमार ने 2000-2016 के बीच चीन से 1.4 बिलियन डॉलर की रक्षा सामग्री खरीदी है. इस दौरान जब भी यूएन की ओर से प्रतिबंध की बात आई, चीन उसके बचाव में उतरता रहा है.

चीन के हित

सीमा पर शांति
दोनों देशों के बीच की सीमा खुली है. लिहाजा, सुरक्षा के लिहाज से चीन चाहता है कि उसे ठोस आश्वासन मिलता रहे.

भारतीय महासागर में पहुंच
म्यांमार की लंबी तटरेखा हिंद महासागर की ओर है. चीन हर हाल में यहां पर अबाध पहुंच चाहता है. इसके जरिए वह व्यापार और रणनीतिक पकड़ मजबूत करता है. बंगाल की खाड़ी में म्यांमार की क्युफ्यू बंदरगाह का विशेष महत्व है. यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका से आने वाले माल की लागत इस रास्ते से कम हो जाती है. इसलिए चीन ने इस बंदरगाह पर निवेश किया है.

हालांकि, चीनी नौसैनिक इस स्थिति का बहुत अधिक फायदा उठाने की स्थिति में नहीं हैं. क्योंकि म्यांमार के संविधान ने यहां पर विदेशी सेना की मौजूदगी पर प्रतिबंध लगा रखा है.

म्यांमार के विशेषज्ञों को चिंता है कि कहीं उनका देश कर्ज के जाल में न उलझ जाए. क्योंकि श्रीलंका का हंबनटोटा का उदाहरण उनके सामने है. श्रीलंका ने 2017 में 99 साल के लिए हंबनटोटा को लीज पर दे रखा है.

आर्थिक हित
म्यांमार में चीन के महत्वपूर्ण आर्थिक हित हैं. विशेष रूप से संसाधन संपन्न उत्तरी क्षेत्रों में. दशकों से, चीन लकड़ी और तेल सहित प्राकृतिक संसाधनों को निकालने और आयात करने में निवेश कर रहा है. म्यांमार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2016-2017 में द्विपक्षीय व्यापार कुल 10.8 बिलियन डॉलर का था. इसका अधिकांश हिस्सा उत्तरी म्यांमार में म्यूजियम और अन्य सीमावर्ती शहरों से होकर गुजर रहा है. चीन के कुल व्यापार की मात्रा का यह एक फीसदी है. लेकिन चीन के युन्नान प्रांत के आर्थिक हित के लिए यह बहुत ही उपयोगी है. 24 फीसदी तक योगदान है. युन्नान चीन के सबसे गरीब प्रांतों में से एक है.

ड्रग्स, लॉगिंग, वन्यजीव, लकड़ी का कोयला, जेड और अन्य रत्नों का अवैध कारोबार सीमा पर होता है. दोनों ही देश इसे स्वीकार भी करते हैं.

चीन चाहता है कि हिंद महासागर के क्युफ्फयू के गहरे पानी में वह बंदरगाह विकसित करे. चीनी कंपनियों ने मध्य पूर्व और अफ्रीका से कच्चे तेल और अपतटीय म्यांमार से कुनमिंग में प्राकृतिक गैस लाने के लिए तेल और गैस पाइपलाइनों में निवेश किया है. म्यांमार के पास प्राकृतिक गैस के 23 ट्रिलियन क्यूबिक फीट का भंडार है.

निष्कर्ष

चीन दुनिया भर के संघर्ष क्षेत्रों में सबसे अधिक शामिल है. म्यांमार में विशेष रूप से यह प्रत्यक्ष और प्रभावशाली रहा है. सामरिक हितों के लिहाज से चीन के लिए म्यांमार की विशेष भूमिका है. वह काफी दखंलदाजी रखता है. अमेरिका को चाहिए कि म्यांमार में चीन की बढ़ती भूमिका पर ध्यान दे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो पूरे क्षेत्र में अशांति फैलने का खतरा हर समय बना रहेगा.

हैदराबाद : म्यांमार के साथ चीन 1500 मील की सीमा साझा करता है. लिहाजा, जब भी म्यांमार में सैन्य या राजनीतिक उथल-पुथल मचती है, इसका असर चीन पर पड़ना तय है. वैसे, चीन म्यांमार के आंतरिक मामलों में काफी दखलअंदाजी रखता है. जब राखिने प्रांत में रोहिंग्या संकट बढ़ा, तब चीन म्यांमार के बचाव में उतर गया. यहां पर तातमाद ने रोहिंग्या के खिलाफ 'जातीय' सफाई का क्रूर अभियान चला रखा है. संयुक्त राष्ट्र में जब म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने की बात चली, तो चीन उसकी ढाल बनकर खड़ा हो गया. आतंकवादियों के खिलाफ अभियान के नाम पर चीन ने म्यांमार की भरपूर मदद की.

राखिने में चीन का बड़ा आर्थिक हित छिपा हुआ है. उसने क्युक्फ्यू में बंदरगाह विकसित किया है. विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना बना रखी है. रेल, सड़क, पाइपलाइन को विकसित किया जा रहा है, ताकि ऊर्जा और अन्य सामग्रियों को बंगाल की खाड़ी से म्यांमार के जरिए चीन के युन्नान प्रांत तक ले जाया जा सके.

म्यांमार के आंतरिक संघर्षों के जरिए चीन की क्या भूमिका है, इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. और संभवतः यह अमेरिकी शांति-समर्थन नीतियों को आगे बढ़ाने में मदद कर सकती है.

हकीकत से अलग चीन के हालात
चीन हमेशा से दावा करता रहा है कि वह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है. यह उसकी नीति है. लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है. वह म्यांमार की शांति प्रक्रिया में बहुत ही सक्रिय भूमिका रख रहा है. कई बार तो वह दबाव भी बनाता है. इसके जरिए वह पूरे क्षेत्र में अपने नेतृत्व को नई धार देने की कोशिश करता है. उसकी कोशिश रहती है कि म्यांमार में उसे व्यापक समर्थन मिले.

चीन के भीतर और आधिकारिक नियंत्रण के बाहर निजी स्तर पर भी इस संघर्ष को बल दिया जा रहा है. इसमें सीमा पर अवैध व्यापार और अन्य सेवाएं शामिल हैं.

चीन ने पिछले एक दशक में म्यांमार नीति को मजबूत किया है. राजनयिक, सैन्य और आर्थिक पहलुओं को लेकर बेहतर समन्वय और नियंत्रण सुनिश्चित करने पर उसका मुख्य जोर रहा है. हालांकि, इसके बावजूद म्यांमार के कई ऐसे आंतरिक मामले हैं, जिसकी वजह से चीन का प्रभाव बाधित होता रहता है.

म्यांमार का दृष्टिकोण बड़ी शक्तियों के प्रति हमेशा से संदेह भरा रहा है. संप्रुभता की रक्षा का मुद्दा उठता रहा है. भारत और चीन के बीच बर्मा की भौगोलिक स्थिति है. इसने देखा है कि राजनीतिक दबाव और उपनिवेशवाद किस तरह किसी देश को कमजोर कर देता है. लिहाजा, उसे विदेशी शक्तियों का भय हमेशा रहता है.

बर्मा चीन के साथ 1500 मील की सीमा साझा करता है. वह राजनीति, युद्ध, वाणिज्य के जरिए चीन से अटूट रूप से जुड़ा है.

1769 में हुआ शांति समझौता
1760 के दशक में मंगोल के नेतृत्व वाले युआन राजवंश ने बर्मा को जीतने का कई बार प्रयास किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. भौगोलिक बाधाएं जैसे पहाड़, नदी, जंगल से निकल पाना मुश्किल होता था. आखिरकार, दोनों पक्षों ने 1769 में शांति समझौता कर लिया. तब से चीन के साथ बर्मा का एक तरीके से अप्रत्यक्ष समझौता कायम रहा.1885 में यह ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया.

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के अंत में चीन और बर्मा के बीच करीबी बढ़ी. युन्नान और उत्तरी बर्मा के बीच लोगों का आना-जाना बहुत हुआ. चीनी मूल के कई लोग बर्मा आकर बसने लगे. सीमा पर अवैध कारोबार भी बढ़ता रहा. तस्करी भी जारी रहा.

1980 के दशक में जब चीन और म्यांमार ने अपने-अपने यहां पर राजनीतिक सुधारों पर प्रतिबंध लगाया, तो दोनों को अंतरराष्ट्रीय अलगाव का सामना करना पड़ा. म्यांमार को सैन्य सहायता चीन से प्राप्त हुई. तब से चीन लगातार म्यांमार को मिलिट्री हार्डवेयर की सप्लाई करता रहा है. मिलिट्री ट्रांसपोर्ट में सहयोग करता रहा है. चीन ने म्यांमार को एंटी शिप क्रूज मिसाइल, राडार, नौसैनिक बंदूकें, कोरवेटेस प्रदान किया है. म्यांमार ने 2000-2016 के बीच चीन से 1.4 बिलियन डॉलर की रक्षा सामग्री खरीदी है. इस दौरान जब भी यूएन की ओर से प्रतिबंध की बात आई, चीन उसके बचाव में उतरता रहा है.

चीन के हित

सीमा पर शांति
दोनों देशों के बीच की सीमा खुली है. लिहाजा, सुरक्षा के लिहाज से चीन चाहता है कि उसे ठोस आश्वासन मिलता रहे.

भारतीय महासागर में पहुंच
म्यांमार की लंबी तटरेखा हिंद महासागर की ओर है. चीन हर हाल में यहां पर अबाध पहुंच चाहता है. इसके जरिए वह व्यापार और रणनीतिक पकड़ मजबूत करता है. बंगाल की खाड़ी में म्यांमार की क्युफ्यू बंदरगाह का विशेष महत्व है. यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका से आने वाले माल की लागत इस रास्ते से कम हो जाती है. इसलिए चीन ने इस बंदरगाह पर निवेश किया है.

हालांकि, चीनी नौसैनिक इस स्थिति का बहुत अधिक फायदा उठाने की स्थिति में नहीं हैं. क्योंकि म्यांमार के संविधान ने यहां पर विदेशी सेना की मौजूदगी पर प्रतिबंध लगा रखा है.

म्यांमार के विशेषज्ञों को चिंता है कि कहीं उनका देश कर्ज के जाल में न उलझ जाए. क्योंकि श्रीलंका का हंबनटोटा का उदाहरण उनके सामने है. श्रीलंका ने 2017 में 99 साल के लिए हंबनटोटा को लीज पर दे रखा है.

आर्थिक हित
म्यांमार में चीन के महत्वपूर्ण आर्थिक हित हैं. विशेष रूप से संसाधन संपन्न उत्तरी क्षेत्रों में. दशकों से, चीन लकड़ी और तेल सहित प्राकृतिक संसाधनों को निकालने और आयात करने में निवेश कर रहा है. म्यांमार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2016-2017 में द्विपक्षीय व्यापार कुल 10.8 बिलियन डॉलर का था. इसका अधिकांश हिस्सा उत्तरी म्यांमार में म्यूजियम और अन्य सीमावर्ती शहरों से होकर गुजर रहा है. चीन के कुल व्यापार की मात्रा का यह एक फीसदी है. लेकिन चीन के युन्नान प्रांत के आर्थिक हित के लिए यह बहुत ही उपयोगी है. 24 फीसदी तक योगदान है. युन्नान चीन के सबसे गरीब प्रांतों में से एक है.

ड्रग्स, लॉगिंग, वन्यजीव, लकड़ी का कोयला, जेड और अन्य रत्नों का अवैध कारोबार सीमा पर होता है. दोनों ही देश इसे स्वीकार भी करते हैं.

चीन चाहता है कि हिंद महासागर के क्युफ्फयू के गहरे पानी में वह बंदरगाह विकसित करे. चीनी कंपनियों ने मध्य पूर्व और अफ्रीका से कच्चे तेल और अपतटीय म्यांमार से कुनमिंग में प्राकृतिक गैस लाने के लिए तेल और गैस पाइपलाइनों में निवेश किया है. म्यांमार के पास प्राकृतिक गैस के 23 ट्रिलियन क्यूबिक फीट का भंडार है.

निष्कर्ष

चीन दुनिया भर के संघर्ष क्षेत्रों में सबसे अधिक शामिल है. म्यांमार में विशेष रूप से यह प्रत्यक्ष और प्रभावशाली रहा है. सामरिक हितों के लिहाज से चीन के लिए म्यांमार की विशेष भूमिका है. वह काफी दखंलदाजी रखता है. अमेरिका को चाहिए कि म्यांमार में चीन की बढ़ती भूमिका पर ध्यान दे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो पूरे क्षेत्र में अशांति फैलने का खतरा हर समय बना रहेगा.

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