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चीन के लिए झटका है जर्मनी की नई हिंद-प्रशांत रणनीति

जर्मनी ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लोकतांत्रिक देशों के साथ भागीदारी मजबूत करने का फैसला किया है. जर्मनी के इस कदम से चीन को जबरदस्त झटका लगा है.

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Published : Sep 14, 2020, 8:07 PM IST

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चीन को जबरदस्त झटका लगा

बर्लिन : जर्मनी ने एशिया में अपने सबसे करीबी साझेदार चीन को एक बड़ा राजनयिक झटका दिया है. जर्मनी ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लोकतांत्रिक देशों के साथ भागीदारी मजबूत करने का फैसला बहुत सोच-समझकर किया है. दरअसल, इस क्षेत्र से बर्लिन के भी व्यापारिक, आर्थिक और सामरिक हित जुड़े हैं. जाहिर है, इससे चीन खुद को घिरता हुआ महसूस करेगा और जर्मनी से नाराज होगा लेकिन बदलते वैश्विक परिदृश्य में चीन की परवाह किसे है.

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप के बाद चीन के मानवाधिकार रिकॉर्ड और एशियाई देश पर आर्थिक निर्भरता पर चिंता व्यक्त करने के बाद भारत-प्रशांत के प्रति बर्लिन का कूटनीतिक बहाव बढ़ गया है.

भारत और चीन वर्तमान में पूर्वी लद्दाख में एलएसी में चार महीने के लंबे गतिरोध में लगे हुए हैं. कई स्तरों के संवाद के बावजूद, कोई सफलता नहीं मिली है, अब भी गतिरोध जारी है.

दो सितंबर को जर्मनी के विदेश मंत्री हेइको मॉस ने कहा था हम भावी वैश्विक व्यवस्था के निर्माण में मददगार बनना चाहते हैं, जिसकी लाठी उसकी भैंस की बजाय यह विश्व-व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नियमों के अनुरूप होनी चाहिए. इसी के चलते हमने उन देशों के साथ सहयोग बढ़ाया है, जो हमारे साथ लोकतांत्रिक और उदार मूल्यों को साझा करते हैं.

चीन के साथ जर्मनी के व्यापारिक और निवेश संबंध काफी मजबूत रहे हैं. एशिया में चीन ही जर्मनी की कूटनीति का केंद्र बिंदु रहा है. हालांकि, उम्मीद के अनुरूप आर्थिक विकास भी चीनी बाजार को नहीं खोल सका. चीन में कार्यरत जर्मन कंपनियों को चीनी सरकार टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के लिए बाध्य करती है. जर्मन कंपनियां चीन में अपने कारोबार और बौद्धिक संपदा की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. ऐसे कई मुद्दों को लेकर यूरोपीय यूनियन और चीन के बीच सुलह का कोई रास्ता नहीं निकल पाया. इससे बीजिंग पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता ने बर्लिन की चिंता बढ़ा दी थी.

उस दिन से जर्मनी ने भारत-प्रशांत दृष्टिकोण से संबंधित नए दिशानिर्देशों को अपनाया. इस क्षेत्र में कानून के शासन और खुले बाजारों को बढ़ावा देने के महत्व पर बल दिया. भारत-प्रशांत रणनीति का भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और आसियान सदस्यों सहित अन्य देशों ने समर्थन किया है.

पढ़ें: भारत के खिलाफ शी जिनपिंग का आक्रामक कदम 'विफल'

रिपोर्ट के मुताबिक चीन एशिया में जर्मनी का कूटनीतिक केंद्र बिंदु था, जिसमें जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल लगभग वार्षिक रूप से देश का दौरा करती थीं. यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि चीन भारत-प्रशांत क्षेत्र के साथ जर्मनी के 50 प्रतिशत व्यापार के लिए भी जिम्मेदार है.

हालांकि, उम्मीदों के अनुसार आर्थिक विकास ने चीनी बाजार नहीं खोला है. चीन में काम कर रही जर्मन कंपनियों को चीनी सरकार द्वारा प्रौद्योगिकी सौंपने के लिए मजबूर किया गया है. इसके अलावा, यूरोपीय संघ (ईयू) और चीन के बीच इस तरह के मुद्दों को हल करने के लिए एक निवेश संधि के संबंध में वार्ता, बीजिंग पर बर्लिन की बढ़ती आर्थिक निर्भरता के बारे में चिंताओं को जन्म दे रही है.

यह हांगकांग में चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के लिए उसके एकाग्रता शिविरों की बढ़ती आलोचना के बीच आया, जिसने मर्केल की चीन समर्थक नीतियों के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध को हवा दी है.

बीजिंग के बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) में भाग लेने वाले देशों के भारी कर्ज के बोझ की आलोचना सहित जर्मनी का नया भारत-प्रशांत दृष्टिकोण चीन पर एक कड़ा रुख अपनाता है.

जर्मन फर्मों ने भी व्यापार करने और चीन में अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा करने के बारे में चिंता व्यक्त की है, खासकर चीनी उपकरण निर्माता मीडिया समूह ने 2016 के अंत में जर्मन रोबोट निर्माता कूका को खरीद लिया.

पढ़ें: चीनी सेना की बढ़ती ताकत, खतरे की घंटी : रिपोर्ट

यूरोप चीन के साथ अपने राजनयिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन करता दिखाई दे रहा है. पिछले साल ईयू ने चीन को बीजिंग के साथ अपने व्यापार और तकनीकी प्रतिद्वंद्विता को ध्यान में रखते हुए रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी करार दिया.

जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल एंड एरिया स्टडीज में पैट्रिक कोलेनर ने कहा कि बीजिंग पर एक अधिक शांत रणनीति की ओर एक बदलाव हुआ है.

जर्मनी अब भारत-प्रशांत पर यूरोपीय संघ की व्यापक रणनीति के बारे में फ्रांस के साथ काम करने की योजना बना रहा है. बर्लिन इस मुद्दे पर अपने प्रभाव को मज़बूत करना चाहता है.

फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम ने चीनी दूरसंचार दिग्गज हुआवेई को अपने फाइव जी नेटवर्क से मुक्त करना शुरू कर दिया है. हाल ही में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने यूरोप में पांच देशों का आधिकारिक दौरा किया था, लेकिन इस यात्रा से ज्यादा कुछ अच्छे परिणाम नहीं मिले, जिसके बाद दोनों पक्षों के बीच बढ़ती दरार पैदा हो गई.

बर्लिन : जर्मनी ने एशिया में अपने सबसे करीबी साझेदार चीन को एक बड़ा राजनयिक झटका दिया है. जर्मनी ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लोकतांत्रिक देशों के साथ भागीदारी मजबूत करने का फैसला बहुत सोच-समझकर किया है. दरअसल, इस क्षेत्र से बर्लिन के भी व्यापारिक, आर्थिक और सामरिक हित जुड़े हैं. जाहिर है, इससे चीन खुद को घिरता हुआ महसूस करेगा और जर्मनी से नाराज होगा लेकिन बदलते वैश्विक परिदृश्य में चीन की परवाह किसे है.

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप के बाद चीन के मानवाधिकार रिकॉर्ड और एशियाई देश पर आर्थिक निर्भरता पर चिंता व्यक्त करने के बाद भारत-प्रशांत के प्रति बर्लिन का कूटनीतिक बहाव बढ़ गया है.

भारत और चीन वर्तमान में पूर्वी लद्दाख में एलएसी में चार महीने के लंबे गतिरोध में लगे हुए हैं. कई स्तरों के संवाद के बावजूद, कोई सफलता नहीं मिली है, अब भी गतिरोध जारी है.

दो सितंबर को जर्मनी के विदेश मंत्री हेइको मॉस ने कहा था हम भावी वैश्विक व्यवस्था के निर्माण में मददगार बनना चाहते हैं, जिसकी लाठी उसकी भैंस की बजाय यह विश्व-व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नियमों के अनुरूप होनी चाहिए. इसी के चलते हमने उन देशों के साथ सहयोग बढ़ाया है, जो हमारे साथ लोकतांत्रिक और उदार मूल्यों को साझा करते हैं.

चीन के साथ जर्मनी के व्यापारिक और निवेश संबंध काफी मजबूत रहे हैं. एशिया में चीन ही जर्मनी की कूटनीति का केंद्र बिंदु रहा है. हालांकि, उम्मीद के अनुरूप आर्थिक विकास भी चीनी बाजार को नहीं खोल सका. चीन में कार्यरत जर्मन कंपनियों को चीनी सरकार टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के लिए बाध्य करती है. जर्मन कंपनियां चीन में अपने कारोबार और बौद्धिक संपदा की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. ऐसे कई मुद्दों को लेकर यूरोपीय यूनियन और चीन के बीच सुलह का कोई रास्ता नहीं निकल पाया. इससे बीजिंग पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता ने बर्लिन की चिंता बढ़ा दी थी.

उस दिन से जर्मनी ने भारत-प्रशांत दृष्टिकोण से संबंधित नए दिशानिर्देशों को अपनाया. इस क्षेत्र में कानून के शासन और खुले बाजारों को बढ़ावा देने के महत्व पर बल दिया. भारत-प्रशांत रणनीति का भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और आसियान सदस्यों सहित अन्य देशों ने समर्थन किया है.

पढ़ें: भारत के खिलाफ शी जिनपिंग का आक्रामक कदम 'विफल'

रिपोर्ट के मुताबिक चीन एशिया में जर्मनी का कूटनीतिक केंद्र बिंदु था, जिसमें जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल लगभग वार्षिक रूप से देश का दौरा करती थीं. यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि चीन भारत-प्रशांत क्षेत्र के साथ जर्मनी के 50 प्रतिशत व्यापार के लिए भी जिम्मेदार है.

हालांकि, उम्मीदों के अनुसार आर्थिक विकास ने चीनी बाजार नहीं खोला है. चीन में काम कर रही जर्मन कंपनियों को चीनी सरकार द्वारा प्रौद्योगिकी सौंपने के लिए मजबूर किया गया है. इसके अलावा, यूरोपीय संघ (ईयू) और चीन के बीच इस तरह के मुद्दों को हल करने के लिए एक निवेश संधि के संबंध में वार्ता, बीजिंग पर बर्लिन की बढ़ती आर्थिक निर्भरता के बारे में चिंताओं को जन्म दे रही है.

यह हांगकांग में चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के लिए उसके एकाग्रता शिविरों की बढ़ती आलोचना के बीच आया, जिसने मर्केल की चीन समर्थक नीतियों के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध को हवा दी है.

बीजिंग के बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) में भाग लेने वाले देशों के भारी कर्ज के बोझ की आलोचना सहित जर्मनी का नया भारत-प्रशांत दृष्टिकोण चीन पर एक कड़ा रुख अपनाता है.

जर्मन फर्मों ने भी व्यापार करने और चीन में अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा करने के बारे में चिंता व्यक्त की है, खासकर चीनी उपकरण निर्माता मीडिया समूह ने 2016 के अंत में जर्मन रोबोट निर्माता कूका को खरीद लिया.

पढ़ें: चीनी सेना की बढ़ती ताकत, खतरे की घंटी : रिपोर्ट

यूरोप चीन के साथ अपने राजनयिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन करता दिखाई दे रहा है. पिछले साल ईयू ने चीन को बीजिंग के साथ अपने व्यापार और तकनीकी प्रतिद्वंद्विता को ध्यान में रखते हुए रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी करार दिया.

जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल एंड एरिया स्टडीज में पैट्रिक कोलेनर ने कहा कि बीजिंग पर एक अधिक शांत रणनीति की ओर एक बदलाव हुआ है.

जर्मनी अब भारत-प्रशांत पर यूरोपीय संघ की व्यापक रणनीति के बारे में फ्रांस के साथ काम करने की योजना बना रहा है. बर्लिन इस मुद्दे पर अपने प्रभाव को मज़बूत करना चाहता है.

फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम ने चीनी दूरसंचार दिग्गज हुआवेई को अपने फाइव जी नेटवर्क से मुक्त करना शुरू कर दिया है. हाल ही में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने यूरोप में पांच देशों का आधिकारिक दौरा किया था, लेकिन इस यात्रा से ज्यादा कुछ अच्छे परिणाम नहीं मिले, जिसके बाद दोनों पक्षों के बीच बढ़ती दरार पैदा हो गई.

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