ETV Bharat / international

विशेष लेख : 'अमेरिका-ईरान मतभेद के बीच भारत को करनी चाहिए मध्यस्थता'

author img

By

Published : Jan 5, 2020, 6:45 PM IST

यह नया साल मध्य पूर्व में बढ़ते तनावों के साथ शुरू हुआ. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा, मई 2018 में, पूर्व राष्ट्रपति ओबामा द्वारा, ईरान से किये गये समझौते से हाथ खींचने के बाद से शुरू हुई तनातनी ने अब दोनों देशों के बीच युद्ध होने के संकेत दे दिये हैं.

etvbharat
नरेन्द्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप और हसन रुहानी

इस तनातनी के उग्र होने के पीछे ताजा कारण है, ईरान के आईआरजीसी के कमांडर मेजर जनरल कासिम सुलेमानी और पोपुलर मोबिलाइजेशन फोर्स के कमांडर अबू मुहादी अल मुहंदिस का मारा जाना. यह दोनों बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिका के ड्रोन हमले में मारे गये.

ईरान की सेना ने अपने दो प्रमुख सैन्य कमांडरों की मौत का बदला लेने की कसम खाई है. वहीं, ट्रंप ने भी कहा है कि, ईरान के खिलाफ और एक्शन जंग को रोकने के लिए होगा उसे शुरू करने के लिए नहीं.

1979 में, अमेरिका के करीबी, शाह रज़ा पहलवी के इस्लामिक क्रांति के चलते तख्ता पलट होने के बाद से ही, अमेरिका और ईरान के संबंधों में तनाव चला आ रहा है. इसके तुरंत बाद ही अमेरिका ने ईरान से अपने सभी संबंध खत्म कर दिये थे. तभी से ईरान में अमेरिकी हितों की रक्षा, तेहरान में मौजूद पाकिस्तानी दूतावास के जरिए हो रही है.

1995 में अमेरिका द्वारा ईरान पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाने के कारण इन दोनों देशों के संबंध और खराब हो गये थे. इन संबंधों के खराब होने के पीछे एक और बड़ा कारण था कि, ज़्यादातर सुन्नी अरब देश, सऊदी अरब के नेतृत्व में ईरान को अपने तेल के बड़े भंडारों के साथ विश्व के तेल बाज़ार में मुक़ाबला करते नहीं देखना चाहते थे.

अमेरिका, सऊदी अरब से तेल खरीदने वाला सबसे बड़ा खरीदार है और साउदी अरब अमेरिका से सबसे ज़्यादा हथियार खरीदता है. इसके कारण यहूदी लॉबी के लिए ईरान को अलग अलग रखना फायदेमंद था.

हालांकि, 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा ने ईरान के साथ एक परमाणु संधि की. इसके तहत ईरान को समयबद्ध तरीके से, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संस्थान के तहत अपने परमाणु कार्यक्रम को कम करना था. अमेरिका के राष्ट्रपति को समय-समय पर ईरान द्वारा इस संधि का पालन करना भी सुनिश्चित करना था.

एक साल चलने के बाद, नये राष्ट्रपति ट्रंप ने इस संधि से हाथ खींच लिया. ट्रंप ने अपने चुनावी में घोषणा में ही इस संधि को अमेरिका के लिए हानिकारक करार दिया था और कहा था कि सत्ता में आते ही वो इसे खारिज कर देंगे.

हालांकि, इसके लिए अमेरिका को यूरोपियन यूनियन, फ्रांस, रूस, चीन, ब्रिटेन और जर्मनी का विरोध भी झेलना पड़ा. इस संधि को खत्म करने के पीछे, इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के उस तर्क को कारण माना गया, जिसमें यह कहा गया था कि, ईरान ने चुपचाप अपना परमाणु कार्यक्रम दोबारा शुरू कर दिया है.

इसके चलते ईरान की तरफ से भी प्रतिक्रिया आई और एक के बाद एक घटनाओं के चलते अब हालात यह हैं कि, खाड़ी में ईरान से सुरक्षा के नाम पर 18,000 अमेरिकी सैनिक तैनात कर दिये गये हैं.

खाड़ी में मौजूदा हालात अगर और खराब होते हैं तो इनका भारत पर क्या असर पड़ सकता है ?
इस क्षेत्र में अमेरिका के हिस्सा लेने वाले पूरे युद्ध की संभावनाएं कम हैं. अमेरिका फिलहाल, अफगानिस्तान और इराक से अपने सेनाओं को पूरी तरह से नहीं निकाल पाया है, और साथ ही वो उत्तर कोरिया से परमाणु और चीन से व्यापारिक तनातनी में भी फंसा है. ऐसे हालातों में कोई भी समझदार अमेरिकी नेता जंग का एक और मैदान खोलने की वकालत नहीं करेगा.

हालांकि, अगर जंग होती है तो, खाड़ी से तेल की सप्लाई की लाइफ लाइन, स्ट्रेट ऑफ होरमज़ से तेल के टैंकरों की आवाजाही पर असर पड़ेगा, जिसका सीधा असर तेल की कीमतों पर होगा. तेल की कीमतों में इजाफा फिलहाल बिना जंग के ही शुरू हो गया है.

खाड़ी में काम करने वाले 4 मिलियन भारतीयों का भविष्य और उनसे देश में आने वाला पैसा भी खतरे में पड़ जाएगा. जंग के हालात में खाड़ी से देश आने वाले ऐसे भारतीयों की तादाद भी अचानक बढ़ जाएगी जो देश की कमजोर अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होगा.

ऐसे हालात में क्या करना चाहिए ?
भारत के पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं. हमें बिना किसी का पक्ष लिए, दोनों पक्षों को मंजूर समाधान की तरफ काम करना चाहिए. भारत उन आठ देशों में शामिल है, जिन्होंने हालातों को सामान्य करने के लिए दोनों पक्षों से अपील की है. वहीं, इन सभी देशों में भारत की स्थिति मध्यस्थता करने के लिए ज्यादा मुफीद है.

हमारे अमेरिका से सामरिक रिश्ते हैं और ईरान से सांस्कृतिक रिश्ते, जो अमेरिका से हमारी नज़दीकी के बावजूद खराब नहीं हुए हैं. विश्व मंच पर पीएम मोदी के बढ़ते प्रभाव और एक पूर्व राजनायिक एस जयशंकर के विदेश मंत्री होने के कारण, यह समय है कि भारत अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए दोनों देशों के बीच सार्थक मध्यस्थता की कोशिश करे.

दोनों पक्ष भले ही हमारी बात न मानें, लेकिन उसे सुनेंगे जरूर. इसके साथ-साथ, कच्चे तेल की आपूर्ति के लिए हमें और विकल्पों की तलाश भी करनी चाहिये. वेनेजुएला, विश्व में तेल का एक और बड़ा उत्पादक है, लेकिन अमेरिका ने उस पर भी प्रतिबंध लगा रखे हैं. ऐसे में भारत को, नाइजीरिया, ब्राज़ील और अंगोला से तेल की ख़रीद को बढ़ाना चाहिए.

सौर ऊर्जा और तेल की जगह और तरह के स्रोत के विकास पर भी जोर देने की जरूरत है, ताकि अगर मध्यपूर्व में हालात बिगड़े तो हमारी जरूरतों को मदद मिल सके.

(लेखक- जेके त्रिपाठी)

इस तनातनी के उग्र होने के पीछे ताजा कारण है, ईरान के आईआरजीसी के कमांडर मेजर जनरल कासिम सुलेमानी और पोपुलर मोबिलाइजेशन फोर्स के कमांडर अबू मुहादी अल मुहंदिस का मारा जाना. यह दोनों बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिका के ड्रोन हमले में मारे गये.

ईरान की सेना ने अपने दो प्रमुख सैन्य कमांडरों की मौत का बदला लेने की कसम खाई है. वहीं, ट्रंप ने भी कहा है कि, ईरान के खिलाफ और एक्शन जंग को रोकने के लिए होगा उसे शुरू करने के लिए नहीं.

1979 में, अमेरिका के करीबी, शाह रज़ा पहलवी के इस्लामिक क्रांति के चलते तख्ता पलट होने के बाद से ही, अमेरिका और ईरान के संबंधों में तनाव चला आ रहा है. इसके तुरंत बाद ही अमेरिका ने ईरान से अपने सभी संबंध खत्म कर दिये थे. तभी से ईरान में अमेरिकी हितों की रक्षा, तेहरान में मौजूद पाकिस्तानी दूतावास के जरिए हो रही है.

1995 में अमेरिका द्वारा ईरान पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाने के कारण इन दोनों देशों के संबंध और खराब हो गये थे. इन संबंधों के खराब होने के पीछे एक और बड़ा कारण था कि, ज़्यादातर सुन्नी अरब देश, सऊदी अरब के नेतृत्व में ईरान को अपने तेल के बड़े भंडारों के साथ विश्व के तेल बाज़ार में मुक़ाबला करते नहीं देखना चाहते थे.

अमेरिका, सऊदी अरब से तेल खरीदने वाला सबसे बड़ा खरीदार है और साउदी अरब अमेरिका से सबसे ज़्यादा हथियार खरीदता है. इसके कारण यहूदी लॉबी के लिए ईरान को अलग अलग रखना फायदेमंद था.

हालांकि, 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा ने ईरान के साथ एक परमाणु संधि की. इसके तहत ईरान को समयबद्ध तरीके से, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संस्थान के तहत अपने परमाणु कार्यक्रम को कम करना था. अमेरिका के राष्ट्रपति को समय-समय पर ईरान द्वारा इस संधि का पालन करना भी सुनिश्चित करना था.

एक साल चलने के बाद, नये राष्ट्रपति ट्रंप ने इस संधि से हाथ खींच लिया. ट्रंप ने अपने चुनावी में घोषणा में ही इस संधि को अमेरिका के लिए हानिकारक करार दिया था और कहा था कि सत्ता में आते ही वो इसे खारिज कर देंगे.

हालांकि, इसके लिए अमेरिका को यूरोपियन यूनियन, फ्रांस, रूस, चीन, ब्रिटेन और जर्मनी का विरोध भी झेलना पड़ा. इस संधि को खत्म करने के पीछे, इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के उस तर्क को कारण माना गया, जिसमें यह कहा गया था कि, ईरान ने चुपचाप अपना परमाणु कार्यक्रम दोबारा शुरू कर दिया है.

इसके चलते ईरान की तरफ से भी प्रतिक्रिया आई और एक के बाद एक घटनाओं के चलते अब हालात यह हैं कि, खाड़ी में ईरान से सुरक्षा के नाम पर 18,000 अमेरिकी सैनिक तैनात कर दिये गये हैं.

खाड़ी में मौजूदा हालात अगर और खराब होते हैं तो इनका भारत पर क्या असर पड़ सकता है ?
इस क्षेत्र में अमेरिका के हिस्सा लेने वाले पूरे युद्ध की संभावनाएं कम हैं. अमेरिका फिलहाल, अफगानिस्तान और इराक से अपने सेनाओं को पूरी तरह से नहीं निकाल पाया है, और साथ ही वो उत्तर कोरिया से परमाणु और चीन से व्यापारिक तनातनी में भी फंसा है. ऐसे हालातों में कोई भी समझदार अमेरिकी नेता जंग का एक और मैदान खोलने की वकालत नहीं करेगा.

हालांकि, अगर जंग होती है तो, खाड़ी से तेल की सप्लाई की लाइफ लाइन, स्ट्रेट ऑफ होरमज़ से तेल के टैंकरों की आवाजाही पर असर पड़ेगा, जिसका सीधा असर तेल की कीमतों पर होगा. तेल की कीमतों में इजाफा फिलहाल बिना जंग के ही शुरू हो गया है.

खाड़ी में काम करने वाले 4 मिलियन भारतीयों का भविष्य और उनसे देश में आने वाला पैसा भी खतरे में पड़ जाएगा. जंग के हालात में खाड़ी से देश आने वाले ऐसे भारतीयों की तादाद भी अचानक बढ़ जाएगी जो देश की कमजोर अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होगा.

ऐसे हालात में क्या करना चाहिए ?
भारत के पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं. हमें बिना किसी का पक्ष लिए, दोनों पक्षों को मंजूर समाधान की तरफ काम करना चाहिए. भारत उन आठ देशों में शामिल है, जिन्होंने हालातों को सामान्य करने के लिए दोनों पक्षों से अपील की है. वहीं, इन सभी देशों में भारत की स्थिति मध्यस्थता करने के लिए ज्यादा मुफीद है.

हमारे अमेरिका से सामरिक रिश्ते हैं और ईरान से सांस्कृतिक रिश्ते, जो अमेरिका से हमारी नज़दीकी के बावजूद खराब नहीं हुए हैं. विश्व मंच पर पीएम मोदी के बढ़ते प्रभाव और एक पूर्व राजनायिक एस जयशंकर के विदेश मंत्री होने के कारण, यह समय है कि भारत अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए दोनों देशों के बीच सार्थक मध्यस्थता की कोशिश करे.

दोनों पक्ष भले ही हमारी बात न मानें, लेकिन उसे सुनेंगे जरूर. इसके साथ-साथ, कच्चे तेल की आपूर्ति के लिए हमें और विकल्पों की तलाश भी करनी चाहिये. वेनेजुएला, विश्व में तेल का एक और बड़ा उत्पादक है, लेकिन अमेरिका ने उस पर भी प्रतिबंध लगा रखे हैं. ऐसे में भारत को, नाइजीरिया, ब्राज़ील और अंगोला से तेल की ख़रीद को बढ़ाना चाहिए.

सौर ऊर्जा और तेल की जगह और तरह के स्रोत के विकास पर भी जोर देने की जरूरत है, ताकि अगर मध्यपूर्व में हालात बिगड़े तो हमारी जरूरतों को मदद मिल सके.

(लेखक- जेके त्रिपाठी)

Intro:Body:Conclusion:
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.