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सरकार फंसे कर्ज से निपटने के लिए आरबीआई को और अधिकार देने पर कर रही विचार

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Published : May 17, 2019, 10:00 PM IST

अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने केंद्रीय बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र को खारिज कर दिया है. परिपत्र की संसदीय समिति समेत कई पक्षों ने काफी आलोचना की. पिछले महीने उच्चतम न्यायालय ने परिपत्र को रद्द कर दिया और इसे गैर-कानूनी करार दिया.

सरकार फंसे कर्ज से निपटने के लिए आरबीआई को और अधिकार देने पर कर रही विचार

नई दिल्ली: सरकार ऋण शोधन अक्षमता तथा दिवाला संहिता (आईबीसी) के तहत बैंकों की दबाव वाली संपत्ति यानी फंसे कर्ज से निपटने को लेकर आरबीआई को पर्याप्त रूप से सशक्त बनाने के लिये विभिन्न विकल्पों पर विचार कर रही है. उच्चतम न्यायालय के आदेश को देखते हुए सरकार यह कदम उठा रही है.

अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने केंद्रीय बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र को खारिज कर दिया है. सूत्रों ने कहा कि दबाव वाली संपत्ति पर जारी 12 फरवरी का परिपत्र से गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) से निपटने के संदर्भ में बैंकों के बीच अनुशासन आया है तथा अपनी समझ के हिसाब से कार्य करने की जो स्वतंत्रता थी, वह समाप्त हो गयी है. उसने कहा कि लेकिन परिपत्र थोड़ा सख्त था और हर क्षेत्र इसका हिस्सा था.

ये भी पढ़ें- आरबीआई के निर्देश के बावजूद, मणिपुर में 10 रुपये के सिक्कों को लेने से कतरा रहे लोग

परिपत्र की संसदीय समिति समेत कई पक्षों ने काफी आलोचना की. पिछले महीने उच्चतम न्यायालय ने परिपत्र को रद्द कर दिया और इसे गैर-कानूनी करार दिया. शीर्ष अदालत के आदेश के बाद कर्ज लौटाने में चूक की स्थिति में आईबीसी के तहत मामले को हर हाल में राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) को भेजने की व्यवस्था अब उपलब्ध नहीं है.

हालांकि बैंकिंग नियमन कानून की धारा 35 एए के तहत आरबीआई सरकार के साथ विचार-विमर्श के बाद किसी भी बैंक से फंसे कर्ज के मामले को एनसीएलटी को भेजने के लिये कह सकता है. सूत्रों के अनुसार फंसे कर्ज से निपटने के लिये संतुलित रुख की जरूरत है. इसे बैंकों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता, कुछ नियामकीय निगरानी होनी चाहिए. उसने कहा कि नियामकीय रूपरेखा को मजबूत करने तथा बड़े एनपीए से निपटने के मामले में बैंकों को अपने विवेकाधिकार की अनुमति नहीं देने को ध्यान में रखकर बैंक नियमन कानून पर गौर किया जा रहा है.

रिजर्व बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र में बैंकों के लिये यह अनिवार्य किया गया था कि अगर किसी फंसे कर्ज का समाधान 180 दिन के भीतर नहीं होता है, वे उसे दिवाला संहिता के तहत ऋण समाधान की कार्यवाही के लिये भेजे. यह प्रावधान उन खातों के लिये था, जहां बैंकों व वित्तीय संस्थाओं का वसूल नहीं हो रहा बकाया कम-से-कम 2,000 करोड़ रुपये हो.

नई दिल्ली: सरकार ऋण शोधन अक्षमता तथा दिवाला संहिता (आईबीसी) के तहत बैंकों की दबाव वाली संपत्ति यानी फंसे कर्ज से निपटने को लेकर आरबीआई को पर्याप्त रूप से सशक्त बनाने के लिये विभिन्न विकल्पों पर विचार कर रही है. उच्चतम न्यायालय के आदेश को देखते हुए सरकार यह कदम उठा रही है.

अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने केंद्रीय बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र को खारिज कर दिया है. सूत्रों ने कहा कि दबाव वाली संपत्ति पर जारी 12 फरवरी का परिपत्र से गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) से निपटने के संदर्भ में बैंकों के बीच अनुशासन आया है तथा अपनी समझ के हिसाब से कार्य करने की जो स्वतंत्रता थी, वह समाप्त हो गयी है. उसने कहा कि लेकिन परिपत्र थोड़ा सख्त था और हर क्षेत्र इसका हिस्सा था.

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परिपत्र की संसदीय समिति समेत कई पक्षों ने काफी आलोचना की. पिछले महीने उच्चतम न्यायालय ने परिपत्र को रद्द कर दिया और इसे गैर-कानूनी करार दिया. शीर्ष अदालत के आदेश के बाद कर्ज लौटाने में चूक की स्थिति में आईबीसी के तहत मामले को हर हाल में राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) को भेजने की व्यवस्था अब उपलब्ध नहीं है.

हालांकि बैंकिंग नियमन कानून की धारा 35 एए के तहत आरबीआई सरकार के साथ विचार-विमर्श के बाद किसी भी बैंक से फंसे कर्ज के मामले को एनसीएलटी को भेजने के लिये कह सकता है. सूत्रों के अनुसार फंसे कर्ज से निपटने के लिये संतुलित रुख की जरूरत है. इसे बैंकों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता, कुछ नियामकीय निगरानी होनी चाहिए. उसने कहा कि नियामकीय रूपरेखा को मजबूत करने तथा बड़े एनपीए से निपटने के मामले में बैंकों को अपने विवेकाधिकार की अनुमति नहीं देने को ध्यान में रखकर बैंक नियमन कानून पर गौर किया जा रहा है.

रिजर्व बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र में बैंकों के लिये यह अनिवार्य किया गया था कि अगर किसी फंसे कर्ज का समाधान 180 दिन के भीतर नहीं होता है, वे उसे दिवाला संहिता के तहत ऋण समाधान की कार्यवाही के लिये भेजे. यह प्रावधान उन खातों के लिये था, जहां बैंकों व वित्तीय संस्थाओं का वसूल नहीं हो रहा बकाया कम-से-कम 2,000 करोड़ रुपये हो.

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सरकार फंसे कर्ज से निपटने के लिए आरबीआई को और अधिकार देने पर कर रही विचार

नई दिल्ली: सरकार ऋण शोधन अक्षमता तथा दिवाला संहिता (आईबीसी) के तहत बैंकों की दबाव वाली संपत्ति यानी फंसे कर्ज से निपटने को लेकर आरबीआई को पर्याप्त रूप से सशक्त बनाने के लिये विभिन्न विकल्पों पर विचार कर रही है. उच्चतम न्यायालय के आदेश को देखते हुए सरकार यह कदम उठा रही है. 

अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने केंद्रीय बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र को खारिज कर दिया है. सूत्रों ने कहा कि दबाव वाली संपत्ति पर जारी 12 फरवरी का परिपत्र से गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) से निपटने के संदर्भ में बैंकों के बीच अनुशासन आया है तथा अपनी समझ के हिसाब से कार्य करने की जो स्वतंत्रता थी, वह समाप्त हो गयी है. उसने कहा कि लेकिन परिपत्र थोड़ा सख्त था और हर क्षेत्र इसका हिस्सा था. 

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परिपत्र की संसदीय समिति समेत कई पक्षों ने काफी आलोचना की. पिछले महीने उच्चतम न्यायालय ने परिपत्र को रद्द कर दिया और इसे गैर-कानूनी करार दिया. शीर्ष अदालत के आदेश के बाद कर्ज लौटाने में चूक की स्थिति में आईबीसी के तहत मामले को हर हाल में राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) को भेजने की व्यवस्था अब उपलब्ध नहीं है. 

हालांकि बैंकिंग नियमन कानून की धारा 35 एए के तहत आरबीआई सरकार के साथ विचार-विमर्श के बाद किसी भी बैंक से फंसे कर्ज के मामले को एनसीएलटी को भेजने के लिये कह सकता है. सूत्रों के अनुसार फंसे कर्ज से निपटने के लिये संतुलित रुख की जरूरत है. इसे बैंकों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता, कुछ नियामकीय निगरानी होनी चाहिए. उसने कहा कि नियामकीय रूपरेखा को मजबूत करने तथा बड़े एनपीए से निपटने के मामले में बैंकों को अपने विवेकाधिकार की अनुमति नहीं देने को ध्यान में रखकर बैंक नियमन कानून पर गौर किया जा रहा है. 

रिजर्व बैंक के 12 फरवरी 2018 के परिपत्र में बैंकों के लिये यह अनिवार्य किया गया था कि अगर किसी फंसे कर्ज का समाधान 180 दिन के भीतर नहीं होता है, वे उसे दिवाला संहिता के तहत ऋण समाधान की कार्यवाही के लिये भेजे. यह प्रावधान उन खातों के लिये था, जहां बैंकों व वित्तीय संस्थाओं का वसूल नहीं हो रहा बकाया कम-से-कम 2,000 करोड़ रुपये हो.


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