वाशिंगटन: कृषि कार्यों में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं के अत्यधिक विकल्प होने और एक 'अच्छी पैदावार' का मतलब समझने के लिए बिना किसी विश्वसनीय उपाय के भारतीय किसानों को कृषि संबंधी महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय अमीर गांवों का अनुसरण करना पड़ता है. यह बात एक सर्वेक्षण में कही गई है.
भारत सरकार ने 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने के बाद उर्वरकों, कीटनाशकों, पानी और बीजों पर सब्सिडी वापस ले ली थी. सार्वजनिक कृषि वस्तुओं का भंडारण करने वाली दुकानें अचानक नए निजी ब्रांडों से भर गई थीं. अमेरिका में पर्ड्यू विश्वविद्यालय के एक पर्यावरण मानवविज्ञानी एंड्रयू फ्लैक्स ने कहा, "उपभोक्ता वैज्ञानिक इसे 'पसंद का अधिभार' कहते हैं. जब आप एक सुपरमार्केट में कदम रखते हैं और खरीदने के लिए 70 प्रकार की सरसों होती है, तो यह एक तनावपूर्ण स्थिति बन जाती है."
ये भी पढ़ें-भारत का कच्चा इस्पात उत्पादन जनवरी में गिरकर 92 लाख टन पर: रिपोर्ट
फ्लैक्स ने कहा, "जब आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज पहली बार लाए गए थे, तो बस तीन तरह के बीज थे. अब 1,200 से अधिक तरह के बीज हैं. यह पता लगाना कि कौन सा विशेष बीज खरीदना है, वास्तव में कठिन और भ्रमित करने वाला निर्णय होता है."
तेलंगाना एक प्रमुख कपास उत्पादक राज्य है, जहां ज्यादातर बुवाई छोटे किसानों द्वारा की जाती है. वहां 1990 के दशक में किसान आत्महत्याओं के अधिक मामले थे. यह भी एक कारण था जब सोचा गया कि कई आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों को पेश करना एक अच्छा विचार होगा. यहां के किसानों की बीज चयन संबंधी प्रक्रिया का पता लगाने के लिए फ्लैक्स ने 2012 से 2018 तक भारतीय गांवों में रहने के दौरान एक सर्वेक्षण किया. जर्नल अमेरिकन एंथ्रोपोलॉजिस्ट में यह सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है.
(भाषा)