हैदराबाद: दिवाला एवं ऋण शोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) के 2016 में प्रभावी होने के बाद से दो लाख करोड़ रुपये से अधिक के फंसे कर्ज का निपटान हुआ है. साथ ही वित्तीय संस्थानों का नया फंसा कर्ज भी कम हुआ है. एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने शुक्रवार को यह जानकारी दी.
कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के सचिव इंजेती श्रीनिवास ने कहा, "मैं नहीं चाहता कि आईबीसी पहला उपाय (फंसे कर्ज के समाधान का) बने, बल्कि हम चाहते हैं कि यह अंतिम विकल्प हो और अभी वास्तव में यही स्थिति है." श्रीनिवास यहां 'दिवाला एवं शोधन अक्षमता कानून वैश्विक प्रतिक्रिया' विषय पर तीन दिन के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित कर रहे थे.
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इस सम्मेलन का आयोजन आईसीएफएआई लॉ स्कूल ने डेलावेयर लॉ स्कूल, वाइडनर विश्वविद्यालय और भारतीय दिवाला शोधन अक्षमता बोर्ड के साथ मिलकर किया. उन्होंने कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक की रपट दर्शाती है कि गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) में नए फंसे कर्ज का जुड़ना कम हुआ है और इसी तरह कुल एनपीए भी कम हुआ है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के बाहर नौ मामलों का निपटान हुआ है. पहले कुछ कारोबारियों ने कारोबारों को विफल करने से अपने निजी हित जोड़ लिए थे और इसके परिणामस्वरूप उद्यमियों के भीतर कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं बची थी। आईबीसी उद्यमिता और पूंजी के लिए प्रतिस्पर्धा को लेकर आयी है.
श्रीनिवास ने कहा कि आईबीसी से पहले किसी बीमार कंपनी के परिसमापन में चार साल से ज्यादा का समय लगता था और परिसंपत्तियों के प्रबंधन की शोधन लागत नौ से दस प्रतिशत तक पड़ती थी. तब इनसे उगाही का प्रतिशत 25 से 26 होता था. लेकिन पिछले दो साल में यह सब बदल गया है. उन्होंने कहा कि 80 मामलों में उगाही का प्रतिशत करीब 48 प्रतिशत रहा है और परिशोधन लागत एक प्रतिशत से भी कम रही है.
(भाषा)