नई दिल्ली: विश्वबैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने रविवार को कहा कि भारत को बड़े स्तर पर राजकोषीय प्रोत्साहन की जरूरत है क्योंकि देश के समक्ष कोरोना वायरस महामारी के कारण आर्थिक वृद्धि मे नरमी का बड़ा जोखिम है.
उनका सोचना है कि सरकार को अपना घाटा पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक से नए नोट छापने की अपेक्षा करनी पड़ सकती है.
बसु ने पीटीआई-भाषा से बातचीत में कहा कि भारत में असमानता पहले से काफी अधिक है और कोरोना वायरस महामारी से इसमें और वृद्धि होगी.
उन्होंने कहा, "दुनिया में हर अर्थव्यवस्था में संकट के बादल हैं और भारत भी इससे अछूता नहीं है."
बसु ने कहा, "हमें बड़े स्तर पर वित्तीय प्रोत्साहन की जरूरत है. भारत में राजकोषीय प्रबंधन के लिये एफआरबीएम (राजकोषीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन) कानून, 2003 है. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकार जरूरत से ज्यादा खर्च नहीं करे. लेकिन एफआरबीएम ऐसा परिष्कृत कानून है जो इस बात को स्वीकार करता है कि प्राकृतिक आपदा के समय हमें अपेक्षाकृत अधिक घाटे की अनुमति होनी चाहिए."
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मूडीज इनवेस्टर सर्विस ने शुक्रवार को कहा कि भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर वित्त वर्ष 2020-21 में शून्य हो सकती है. साथ ही संगठन ने राजकोषीय घाटा बढ़ने, अधिक सरकारी कर्ज, कमजोर सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचा तथा नाजुक वित्तीय क्षेत्र का भी संकेत दिया.
बसु ने कहा कि केंद्र को देश के संघीय ढांचे का सम्मान करते हुए राज्यों को अधिक खर्च की अनुमति देनी चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि यह सब अल्प अवधि के लिये होना चाहिए क्योंकि लंबे समय तक ऐसा होने से महंगाई दर बढ़ेगी.
यह पूछे जाने पर कि क्या देश को सरकारी घाटे के मौद्रिकरण (नोट छाप कर घाटा पूरा करना) की जरूरत है, उन्हेंने कहा, "हमें रिजर्व बैंक द्वारा अतिरिक्त नोट छापने की जरूरत पड़ सकती है लेकिन मेरा सुझाव होगा कि इसका उपयोग संयमित रूप से होना चाहिए."
बसु ने कहा, "भारत में असमानता पहले से अधिक है और यह चिंताजनक है. यह आशंका है कि कोरोना महामारी के कारण असामानता और बढ़ेगी."
उन्होंने कहा, "मैं संपत्ति और विरासत में मिली संपत्ति पर कर लगाने के पक्ष में हूं. किसी को भी अत्यंत गरीबी की स्थिति में नहीं होना चाहिए और बिना संपत्ति और उत्तराधिकर कर के इसे ठीक नहीं किया जा सकता."
फिलहाल कोरनेल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बसु ने कहा कि इस संकट की घड़ी में सरकारों को अर्थव्यवस्था और समाज का सूक्ष्म स्तर पर प्रबंधन शुरू करना चाहिए.
उन्होंने कहा, "हमें प्रतिभावान नौकरशाह के साथ सरकार से इतर पेशेवरों की जरूरत है जो महामारी और आर्थिक संकट के बीच एक सामंजस्य स्थापित करे."
बसु ने कहा, "अधिक निगरानी वाली अर्थव्यवस्था के दुष्परिणाम हो सकते हैं. वैश्विक पूंजी की निकासी और रुपये की विनिमय दर में गिरावट से साफ है कि वैश्विक कंपनियां इन सबसे चिंतित हैं."
भारत की लॉकडाउन से बाहर निकलने की रणनीति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि यूरोप और पूर्वी एशिया में कई देशों ने पाबंदियों में ढील देनी शुरू कर दी है और विनिमय दर तथा पूंजी प्रवाह के आंकड़े से इसका लाभ देखा जा सकता है.
बसु ने कहा, "भारत के लिये लॉकडाउन से बाहर निकलना इतना आसान नहीं होगा लेकिन अगर वह प्रतिबद्ध है तो कर सकता है."
इस बारे में विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस संक्रमण के कारण मौत का आंकड़ा देखे तो भारत में यह आंकड़ा यूरोपीय देशों के मुकाबले कम है.
बसु ने कहा, "जर्मनी दुनिया का बेहतर प्रबंधित देशों में से एक है लेकिन कोरोना वायरस महामारी के कारण वहां मौत भारत के मुकाबले 80 गुना अधिक है."
उन्होंने कहा, "हमें भयवश स्वयं को बंद रखने की गलती नहीं करनी चाहिए. यह आने वाले कई साल तक आर्थिक झटके का कारण बन सकता है."
उल्लेखनीय है कि भारत में 17 मई तक लॉकडाउन है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले 25 मार्च से 21 दिन के देशव्यापी बंद की घोषणा की थी. बाद में इसे बढ़ाया गया.
(पीटीआई-भाषा)