हैदराबाद: पिछले कुछ महीनों से भारत को 2024 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने को लेकर बहस छिड़ी हुई है. इसके हितधारक इस लक्ष्य को आशावादी नजरिए से देख रहे हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि हम इसे हासिल कर सकते हैं. नेपोलियन ने एक बार कहा था, "कुछ भी असंभव नहीं है." इसलिए आशावादी होना अच्छा है और उम्मीद है कि भारत समावेशी विकास के लक्ष्य को हासिल कर लेगा.
हालांकि, इसके साथ ही अर्थव्यवस्था के साइज को दोगुने से अधिक करने के लिए सभी राज्यों के आर्थिक हालात में व्यापक सुधार करने की आवश्यकता होगी. यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि राज्यों द्वारा खर्च किया गया धन केंद्र सरकार द्वारा खर्च की तुलना में अधिक आर्थिक प्रभाव डालता है. भारतीय की भलाई के लिए हम सभी को यह आशा करनी चाहिए कि सभी राजनीतिक दल, विशेषकर राज्यों और केंद्र में सत्ताधारी दल अर्थव्यवस्था की मदद के लिए एक साथ आएंगे.
हम एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां कठिन फैसलों को स्थगित करने से वित्तीय सेहत को बिगाड़ने वाले नतीजे मिलेंगे. यह राज्यों के हित में है कि वे अपने अंतर्निहित आर्थिक मूल सिद्धांतों को बदलें.
अर्थव्यवस्था के विकास में कृषि, विनिर्माण, सेवाओं और निर्यात सहित सभी क्षेत्रों की आवश्यकता होती है. हमारी आर्थिक वृद्धि अर्थव्यवस्था के निम्न अंत सेवा क्षेत्रों में विकास और विनिर्माण, कृषि या बुनियादी ढांचे में निवेश के पर्याप्त वृद्धि के सरकार द्वारा सभी स्तरों पर ऋण में भारी वृद्धि पर आधारित है.
यहां तक कि सरकारी खर्च बड़े पैमाने पर निवेश पर आधारित नहीं था, जो मूल्य वर्धित सेवाओं के निर्माण में मदद करेगा. इसके बजाय, लगातार सरकारें खुश थीं जब तक कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में वृद्धि हुई. इसका परिणाम यह है कि खपत के कारण ऋण में वृद्धि हुई, सरकारी खर्च और सेवा क्षेत्र के निचले छोर की वृद्धि, लेकिन वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बने रहना अपर्याप्त था - विशेषकर ऐसे समय में जब प्रौद्योगिकी तेजी से बदल रही है और जब उच्च अंत मूल्य वर्धित सेवाएं एकमात्र तरीका हैं अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए.
समस्या: खर्च और उधार की चिंता करना
भारतीय राज्यों के लिए समस्याएं उनके खर्च और उधार की प्रकृति से शुरू होती हैं. अर्थव्यवस्था में शुद्ध मूल्य वृद्धि पिछले 10 वर्षों में दोगुनी भी नहीं हुई है. 2014-17 की अवधि में राज्यों में कारखानों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई है (इससे आगे के आंकड़े नहीं दिए गए हैं). यह संभावना है कि नोटबंदी और जीएसटी के प्रभाव के कारण भी उनमें गिरावट आई होगी. दिलचस्प बात यह है कि देश में कारखानों की संख्या में सबसे ज्यादा वृद्धि 2010-14 से हुई थी.
दुख की बात है कि संयुक्त रूप से सभी राज्यों के सकल पूंजी निर्माण में 2012-13 से 2016-17 की अवधि में गिरावट आई है. यहां तक कि सरकारी आंकड़ों से संकेत मिलता है कि विमुद्रीकरण और समस्याग्रस्त जीएसटी कार्यान्वयन के दोहरे प्रहारों से क्षतिग्रस्त होने से पहले अर्थव्यवस्था ठीक हो रही थी. राज्यों के आर्थिक स्वास्थ्य में एक बडी़ समस्या यह रही कि जहां उनके खर्च और ब्याज भुगतान तेजी से बढ़ रहे हैं, वहीं व्यय में अधिकता के कारण उनके स्वयं के राजस्व बहुत धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं.
समस्या यह है कि अपना बजट पेश करते समय राज्य अपनी संभावित आय का अनुमान अधिक लगा रहे हैं और बढ़ती आय की उम्मीद में ज्यादा से ज्यादा धन खर्च कर रहे हैं. राज्यों को अपने ऋणों के उपयोग में अधिक जिम्मेदार होना होगा. यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि 2008 की वैश्विक मंदी के बाद संपूर्ण विश्व अपने सबसे कमजोर बिंदु पर है.
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रिजर्व बैंक की हालिया बैलेंस शीट में ज्यादातर राज्यों की चिंताजनक तस्वीर है. राज्यों की बकाया देनदारियां बढ़ी है. 1991 के बाद एक भी वर्ष नहीं हुआ है, जब राज्यों की कुला बकाया देनदारियों में गिरावट आई हो. 1991 में सभी राज्यों के 1.28 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर ये 2019 में 45.40 लाख करोड़ रुपये हो गई.
राज्यों के अधिकांश संसाधन अब वेतन, कर्ज और पुनर्भुगतान में खर्च हो रहे हैं. पेंशन और देनदारियां राज्यों के लिए लगातार बढ़ रहे हैं और आय में कोई वृद्धि नहीं है.
दुर्भाग्य से, अधिकांश राज्य सरकारें सोचती हैं कि वे अपने कर्मचारियों के लिए आबादी, वेतन, पेंशन और भत्तों के लिए लगातार आर्थिक वृद्धि के बिना सब्सिडी जुटाकर वोट हासिल कर सकते हैं. कई राज्य वेतन आयोग संशोधन के माध्यम से लगातार वेतन में वृद्धि कर रहे हैं, भले ही उनके पास कोई संसादन न हो.
कई भारतीय राज्य ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं, जिसमें उन्हें जरूरतों के लिए भारतीय रिजर्व बैंक से लगातार ओवरड्राफ्ट की आवश्यकता होती है. ओवरड्राफ्ट सुविधा आरबीआई द्वारा धन के एक आपातकालीन स्रोत के रूप में शुरू की गई थी, लेकिन गैर जिम्मेदाराना नीतियों के कारण यह राजकोषीय प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है.
बदलाव आवश्यक हैं
एक महत्वपूर्ण लेकिन सरल प्रश्न यह है कि इतनी गरीबी क्यों है, जबकि सभी राज्य हर साल लगभग 15 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि सामाजिक व्यय की आवश्यकता है, लेकिन इसे इस तरह से खर्च करने की आवश्यकता है कि यह जनसंख्या की समग्र आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं में मदद करे.
दूसरे महत्वपूर्ण सुधार के तहत बैंकों के बजाए बांड बाजारों के विकास पर जोर देना महत्वपूर्ण है. अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार राज्यों को मार्केट ऋण की ओर धकेल रही है. लेकिन बैंक राज्यों को उधार लेने के लिए मजबूर कर रहे हैं. यहां तक कि जब वे जानते हैं कि ऋणी राज्य पुराने ऋणों को चुकाने के लिए नए ऋण ले रहे हैं. यह किसी बैंक के लिए खतरनाक संकेत हैं, क्योंकि इससे किसी भी तरह का राजस्व पैदा नहीं होता है.
बहुत देर होने से पहले कर लें बदलाव
केंद्र सरकार के लिए तत्काल आवश्यक सुधारों में वोट बैंक की राजनीति से आगे जाकर सोचना है. उन्हें राज्य सरकारों को यह समझाने की आवश्यकता है कि राजकोषीय विवेक उनके अपने लोगों के लिए दीर्घकालिक हित में है.
राज्यों को यह भी समझने की आवश्यकता है कि इन समस्याओं के दौरान संविधान के तहत केंद्र के पास अनुच्छेद 360 का उपयोग करके राज्यों को काबू में करने की शक्ति है.
अनुच्छेद 360 स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि "यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हैं कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे भारत की वित्तीय स्थिरता या उसके किसी भी क्षेत्र के ऋण को खतरा है, तो वह घोषणा द्वारा उस प्रभाव की घोषित कर सकता है." उम्मीद है कि राज्य अपनी आबादी को उस दिशा में नहीं लेकर जाएंगे, जिससे हालात वर्तमान सुधारों से भी बदतर हो जाएं.
(वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. एस अनंत द्वारा लिखित. यह एक राय है और उपरोक्त व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. ईटीवी भारत न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)