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बैंकों की ऋणशोधन प्रक्रिया संबंधी अधिकारों पर नहीं पड़ेगा न्यायालय के आदेश का असर - आईबीसी

उच्चतम न्यायालय ने दो अप्रैल को एक आदेश में रिजर्व बैंक के दिवाला एवं ऋणशोधन संबंधित एक परिपत्र को निरस्त कर दिया था.

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Published : Apr 7, 2019, 7:23 PM IST

नई दिल्ली : रिजर्व बैंक के परिपत्र पर उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय से दिवाला एवं ऋणशोधन प्रक्रिया से संबंधित कर्जदाताओं के अधिकारों में कोई खलल नहीं पड़ेगा. इससे प्रक्रिया में व्यवहारात्मक बदलाव आएंगे तथा कर्जदाता अपनी कार्रवाई और निष्क्रियता दोनों के लिए अधिक जवाबदेह होंगे. आईबीबीआई प्रमुख एम.एस.साहू ने ये बातें कहीं.

उच्चतम न्यायालय ने दो अप्रैल को एक आदेश में रिजर्व बैंक के दिवाला एवं ऋणशोधन संबंधित एक परिपत्र को निरस्त कर दिया था. इस परिपत्र में प्रावधान था कि 2,000 करोड़ रुपये से ऊपर कर्ज की किश्त जमा करने में चुक के पहले दिन से ही समाधान की प्रक्रिया करने और 180 दिन तक कोई समाधान नहीं निकलने पर मामले को राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के पास भेजने की व्यवस्था थी.

साहू ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश से दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता के तहत ऋणशोधन प्रक्रिया शुरू करने से संबंधित कर्जदाताओं के अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

उन्होंने पीटीआई भाषा से कहा, "इस आदेश के आलोक में अब बैंक को ऋणशोधन प्रक्रिया शुरू करने से पहले खुद को ही यह परखना होगा कि उसे कर्ज की किश्त चुकाने में चूक के किसी मामले में प्रक्रिया क्यों शुरू करनी चाहिये और क्यों शुरू नहीं करनी चाहिये. इससे प्रक्रिया में व्यवहारात्मक बदलाव आएंगे तथा कर्जदाता अपनी सक्रियता और निष्क्रियता के लिये अधिक जवाबदेह हो जाएंगे."

साहू ने कहा कि संहिता के कारण कर्जदाताओं और कर्जदारों के व्यवहार में बदलाव आया है, जिससे गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) का दबाव कम हुआ है.
ये भी पढ़ें : सेवा प्रदाता 30 अप्रैल तक चुन सकते हैं जीएसटी कम्पोजिशन योजना का विकल्प : सीबीआईसी

नई दिल्ली : रिजर्व बैंक के परिपत्र पर उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय से दिवाला एवं ऋणशोधन प्रक्रिया से संबंधित कर्जदाताओं के अधिकारों में कोई खलल नहीं पड़ेगा. इससे प्रक्रिया में व्यवहारात्मक बदलाव आएंगे तथा कर्जदाता अपनी कार्रवाई और निष्क्रियता दोनों के लिए अधिक जवाबदेह होंगे. आईबीबीआई प्रमुख एम.एस.साहू ने ये बातें कहीं.

उच्चतम न्यायालय ने दो अप्रैल को एक आदेश में रिजर्व बैंक के दिवाला एवं ऋणशोधन संबंधित एक परिपत्र को निरस्त कर दिया था. इस परिपत्र में प्रावधान था कि 2,000 करोड़ रुपये से ऊपर कर्ज की किश्त जमा करने में चुक के पहले दिन से ही समाधान की प्रक्रिया करने और 180 दिन तक कोई समाधान नहीं निकलने पर मामले को राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के पास भेजने की व्यवस्था थी.

साहू ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश से दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता के तहत ऋणशोधन प्रक्रिया शुरू करने से संबंधित कर्जदाताओं के अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

उन्होंने पीटीआई भाषा से कहा, "इस आदेश के आलोक में अब बैंक को ऋणशोधन प्रक्रिया शुरू करने से पहले खुद को ही यह परखना होगा कि उसे कर्ज की किश्त चुकाने में चूक के किसी मामले में प्रक्रिया क्यों शुरू करनी चाहिये और क्यों शुरू नहीं करनी चाहिये. इससे प्रक्रिया में व्यवहारात्मक बदलाव आएंगे तथा कर्जदाता अपनी सक्रियता और निष्क्रियता के लिये अधिक जवाबदेह हो जाएंगे."

साहू ने कहा कि संहिता के कारण कर्जदाताओं और कर्जदारों के व्यवहार में बदलाव आया है, जिससे गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) का दबाव कम हुआ है.
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नई दिल्ली : रिजर्व बैंक के परिपत्र पर उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय से दिवाला एवं ऋणशोधन प्रक्रिया से संबंधित कर्जदाताओं के अधिकारों में कोई खलल नहीं पड़ेगा. इससे प्रक्रिया में व्यवहारात्मक बदलाव आएंगे तथा कर्जदाता अपनी कार्रवाई और निष्क्रियता दोनों के लिए अधिक जवाबदेह होंगे. आईबीबीआई प्रमुख एम.एस.साहू ने ये बातें कहीं.

उच्चतम न्यायालय ने दो अप्रैल को एक आदेश में रिजर्व बैंक के दिवाला एवं ऋणशोधन संबंधित एक परिपत्र को निरस्त कर दिया था. इस परिपत्र में प्रावधान था कि 2000 करोड़ रुपये से ऊपर कर्ज की किश्त जमा करने में चुक के पहले दिन से ही समाधान की प्रक्रिया करने और 180 दिन तक कोई समाधान नहीं निकलने पर मामले को राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के पास भेजने की व्यवस्था थी.

साहू ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश से दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता के तहत ऋणशोण्न प्रक्रिया शुरू करने से संबंधित कर्जदाताओं के अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

उन्होंने पीटीआई भाषा से कहा, "इस आदेश के आलोक में अब बैंक को ऋणशोधन प्रक्रिया शुरू करने से पहले खुद को ही यह परखना होगा कि उसे कर्ज की किश्त चुकाने में चूक के किसी मामले में प्रक्रिया क्यों शुरू करनी चाहिये और क्यों शुरू नहीं करनी चाहिये. इससे प्रक्रिया में व्यवहारात्मक बदलाव आएंगे तथा कर्जदाता अपनी सक्रियता और निष्क्रियता के लिये अधिक जवाबदेह हो जाएंगे."

साहू ने कहा कि संहिता के कारण कर्जदाताओं और कर्जदारों के व्यवहार में बदलाव आया है, जिससे गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) का दबाव कम हुआ है.

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