दास यहां आरआरएएन, राष्ट्रीय वर्षा क्षेत्र प्राधिकरण कृषि, केंद्रीय किसान कल्याण मंत्रालय और राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंधन संस्थान के सहयोग से 'रिवाइटलाइजिंग रेनफेड एग्रीकल्चर : रिस्ट्रक्च रिंग पॉलिसी एंड पब्लिक इन्वेस्टमेंट टू एड्रेस एग्रेरियन क्राइसिस' विषय पर आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में बोल रहे थे.
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सम्मेलन में देशभर के 450 से अधिक किसानों, नीति निमार्ताओं, शोधकताओं, शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकताओंने हिस्सा लिया. विशेषज्ञों ने कहा कि कृषि संकट को दूर करने के लिए बारिश पर निर्भर खेती में बदलाव के लिए व्यापक निवेश और उपयुक्त नीतिगत रूपरेखा तैयार करने की आवश्यकता है, इसमें हमेशा नीतियों व सार्वजनिक निवेश का अभाव रहा है.
आयोजक संगठनों ने कहा कि इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य वर्षा आधारित कृषि से जुड़े विषयों पर आम सहमति के साथ केंद्र व राज्य के स्तर पर नीतियों और कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता पर बल देना है.
राष्ट्रीय वर्षा क्षेत्र प्राधिकरण (2012) के अनुसार, भारत में 593 जिलों में से 499 जिलों में बारिश होती है. वर्षा आधारित क्षेत्र खाद्य उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं. देश में 89 फीसदी ज्वार, बाजरा और जौ का उत्पादन बारिश पर ही निर्भर करता है. इसके अलावा दलहनों का 88 फीसदी, कपास 73 फीसदी, तिलहन 69 फीसदी और चावल का 40 फीसदी उत्पादन बारिश पर निर्भर करता है.
आंकड़ों के अनुसार, देश में वर्षा वाले क्षेत्र में मवेशियों की आबादी 64, भेड़ों की 74 फीसदी भेड़ और बकरियों की 78 फीसदी हैं. ये पशु देश में खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं.
दास ने बताया कि 2003-2004 और 2012-2013 के बीच चावल और गेहूं की एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर खरीद पर 5,40,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे जबकि वर्षा आधारित उपज जैसे मोटे अनाज, बाजरा और दालों जैसी फसलों पर इसी अवधि में सरकारी खर्च महज 3,200 करोड़ रुपये हुआ था.
उन्होंने कहा कि वर्ष 2010-2011 और 2013-2014 के बीच उर्वरक सब्सिडी पर खर्च की गई राशि 2,16,400 करोड़ रुपये थी, जबकि इसी अवधि के दौरान वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम पर सिर्फ 65,600 करोड़ रुपये खर्च किए गए.
(आईएएनएस)