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चीन-तालिबान के बीच गहरी हो रही दोस्ती, भारत-अमेरिका के लिए खतरे की घंटी

हिंसा प्रभावित अफगानिस्तान में चीन सबसे बड़ा खिलाड़ी बन कर उभरा है, जबकि अमेरिका और भारत के समक्ष बाधाओं का ढेर लगा हुआ है. चीन ने अपने हालिया कदमों से अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. इस पर पढ़ें वरिष्ठ संवाददाता संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट..

चीन-तालिबान
चीन-तालिबान
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Published : Jul 30, 2021, 1:35 AM IST

Updated : Jul 30, 2021, 4:58 AM IST

नई दिल्ली : कूटनीति और रणनीति की इस दुनिया में किसी भी व्यवस्था को उस स्थिति में ज्यादा सफल नहीं माना जाता है, जहां से लाभ कमाने की संभावना अधिक होती है. स्थिति चाहे जैसी भी हो. ऐसी ही स्थिति इस समय चीन की है, क्योंकि वह अफगानिस्तान की मौजूदा स्थित का लाभ उठाना चाह रहा है. चीन का यह रुख आदर्शवाद के सिद्धांतो के खिलाफ है.

औपनिवेशिक काल में ब्रिटेन-रूस के बीच और शीत युद्ध के दौरान अमेरिका-रूस के बीच प्रतिद्वंद्विता देखने को मिली है. जिसका खामियाजा कहीं न कहीं पूरी दुनिया को भुगतना पड़ा था. ऐसी ही एक और प्रतिद्वंद्विता अफगानिस्तान में देखी जा रही है, जो चीन और अमेरिका के बीच संघर्ष के चलते तबाह देश में आकार लेने लगी है. जिसका खामियाजा वहां की आवाम को भुगतना पड़ रहा है.

तिआंजिन में तालिबान
अमेरिका विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन बुधवार को प्रधानमंत्री मोदी, विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात की थी. इसी तरह अफ़ग़ान तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल से चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने उत्तरी चीन के तिआनजिन में मुलाक़ात की थी. तालिबानी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मुल्लाह अब्दुल ग़नी बरादर कर रहे हैं.

इस दौरान चीन ने चरपंथी समूह की प्रशंसा करते हुए अफगानिस्तान में उसे अहम सैन्य और राजनीतिक ताकत करार दिया. इसके साथ ही चीन ने तालिबान से सभी आतंकवादी समूहों से संपर्क तोड़ने को कहा कि खासतौर पर शिनजियांग के उइगर मुस्लिम चरमपंथी समूह ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) से.

गौरतलब है कि 8 जुलाई को रूस की यात्रा के बाद तालिबान के लिए चीन दूसरा पड़ाव है.

आइए देखें कि कैसे पासा चीनियों के पक्ष में भारी है.
सबसे पहले, चीन और रूस के द्विपक्षीय संबंध पहले से ही अच्छे हैं. वहीं तालिबान ने काबुल के आस-पास के कई प्रांतों पर कब्जा कर लिया है और तालिबान इन दोनों देशों को प्राथमिकता दे रहा है. यदि आने वाले समय में अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होता है तो ये दोनों देश अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.

तालिबान द्वारा चीन पर व्यक्त किया गया विश्वास दिलचस्प है, क्योंकि चीन ने अफगानिस्तान के भीतर वार्ता को सुगम बनाने और यहां तक ​​कि मेजबानी करने की पेशकश की है.

दूसरा, मुल्लाह अब्दुल ग़नी बरादर ने नेतृत्व वाला तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने दोहराया कि ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) को अफगानिस्तान में संचालित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट चीन के शिनजियांग के उइगर उग्रवादियों का एक सशस्त्र संगठन है, जिसका उद्देश्य मुस्लिम उइगरों के लिए एक स्वतंत्र मातृभूमि स्थापित करना है. तालिबान की यह प्रतिबद्धता चीनी हितों के लिए एक बड़ा लाभ है.

वहीं चीन का मानना है कि शिनजिंयाग प्रांत व देश के अन्य इलाकों में होने वाले सभी हिंसक हमलों के पीछे ईटीआईएम का हाथ है. मुलाकात के दौरान यी ने बरादर से सकारात्मक छवि बनाने और विस्तृत व समावेशी राजनीतिक ढांचा का आह्वान किया जो अफगानिस्तान की राष्ट्रीय वास्तविकता के अनुकूल हो.

तीसरा, तालिबान के साथ दोस्ती चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की एक प्रमुख परियोजना है, जो आतंकवादी प्रभावित अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र से होकर गुजरती है.

चौथा, ऐसे समय में जब तालिबान अंतरराष्ट्रीय मान्यता की मांग कर रहा है, ऐसे वक्त ने चीन ने तालिबान का गर्मजोशी से स्वागत किया है और अफगानिस्तान में निवेश करने की पेशकश की. जिसमें अयनाक तांबे की खदान को विकसित करने के लिए $ 3 बिलियन की प्रतिबद्धता शामिल है. नकदी की तंगी से जूझ रहे तालिबान के लिए फायदे की स्थिति होगी.

पांचवां, तालिबान के समर्थन के माध्यम से अफगानिस्तान में चीन का प्रभाव बढ़ जाएगा. वहीं पाकिस्तान के जरिए अरब सागर कई बिंदुओं तक चीन की पहुंच हो जाएगी, जो दशकों से एक चीनी सपना रहा है. अफगानिस्तान में नियंत्रण से मध्य एशिया तक पहुंच बनाना चीन के लिए आसान हो जाएगा, एक ऐसा क्षेत्र जो अन्य संसाधनों के अलावा विशाल ऊर्जा भंडार के लिए जाना जाता है.

छठा चीन को अपने 'लौह भाई' पाकिस्तान से समर्थन का प्रमुख लाभ है, जो तालिबान को प्रॉक्सी-नियंत्रित करता है. चीन ने पाकिस्तान में भारी निवेश किया है, जिसके चलते पाकिस्तान पर चीन का नियंत्रण स्थिर है.

कमजोर अमेरिकी स्थिति
दूसरी ओर, 2001 के बाद से युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में अमेरिका की सेना थी. इसके बाद भी अमेरिका को कोई लाभ नहीं मिला है. इतना ही नहीं वह अफगानिस्तान से तालिबान को खत्म करने में भी विफल रहा. यदि तालिबान काबुल में एक स्थिर शासन स्थापित करने में सफल हो जाता है, तो कश्मीर उग्रवाद में गतिविधि बढ़ने की बहुत प्रबल संभावना है.

कौन है तालिबान
तालिबान का अफगानिस्तान में उदय 90 के दशक में हुआ. सोवियत सैनिकों के लौटने के बाद वहां अराजकता का माहौल पैदा हुआ, जिसका फायदा तालिबान ने उठाया. उसने दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान से तालिबान ने जल्द ही अपना प्रभाव बढ़ाया. सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया. 1996 में अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर काबुल पर कब्जा कर लिया था.

इसके बाद तालिबान ने इस्लामिक कानून को सख्ती लागू किया. मसलन मर्दों का दाढ़ी बढाना और महिलाओं का बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया. सिनेमा, संगीत और लड़कियों की पढ़ाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया. बामियान में तालिबान ने यूनेस्को संरक्षित बुद्ध की प्रतिमा तोड़ दी.

2001 में जब 9/11 के हमले हुए तो तालिबान अमेरिका के निशाने पर आया. अलकायदा के ओसामा बिन लादेन को पनाह देने के आरोप में अमेरिका ने तालिबान पर हमले किए. करीब 20 साल तक अमेरिका तालिबान के साथ लड़ता रहा. 1 मई से वहां से अमेरिकी सैनिकों ने वापसी शुरू कर दी है. 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी सेना पूरी तरह अफगानिस्तान से हट जाएगी. अंदेशा है कि इसके बाद आईएसआई और तालिबान भारत के प्रोजेक्ट को और निशाना बनाएगी.

नई दिल्ली : कूटनीति और रणनीति की इस दुनिया में किसी भी व्यवस्था को उस स्थिति में ज्यादा सफल नहीं माना जाता है, जहां से लाभ कमाने की संभावना अधिक होती है. स्थिति चाहे जैसी भी हो. ऐसी ही स्थिति इस समय चीन की है, क्योंकि वह अफगानिस्तान की मौजूदा स्थित का लाभ उठाना चाह रहा है. चीन का यह रुख आदर्शवाद के सिद्धांतो के खिलाफ है.

औपनिवेशिक काल में ब्रिटेन-रूस के बीच और शीत युद्ध के दौरान अमेरिका-रूस के बीच प्रतिद्वंद्विता देखने को मिली है. जिसका खामियाजा कहीं न कहीं पूरी दुनिया को भुगतना पड़ा था. ऐसी ही एक और प्रतिद्वंद्विता अफगानिस्तान में देखी जा रही है, जो चीन और अमेरिका के बीच संघर्ष के चलते तबाह देश में आकार लेने लगी है. जिसका खामियाजा वहां की आवाम को भुगतना पड़ रहा है.

तिआंजिन में तालिबान
अमेरिका विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन बुधवार को प्रधानमंत्री मोदी, विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात की थी. इसी तरह अफ़ग़ान तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल से चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने उत्तरी चीन के तिआनजिन में मुलाक़ात की थी. तालिबानी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मुल्लाह अब्दुल ग़नी बरादर कर रहे हैं.

इस दौरान चीन ने चरपंथी समूह की प्रशंसा करते हुए अफगानिस्तान में उसे अहम सैन्य और राजनीतिक ताकत करार दिया. इसके साथ ही चीन ने तालिबान से सभी आतंकवादी समूहों से संपर्क तोड़ने को कहा कि खासतौर पर शिनजियांग के उइगर मुस्लिम चरमपंथी समूह ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) से.

गौरतलब है कि 8 जुलाई को रूस की यात्रा के बाद तालिबान के लिए चीन दूसरा पड़ाव है.

आइए देखें कि कैसे पासा चीनियों के पक्ष में भारी है.
सबसे पहले, चीन और रूस के द्विपक्षीय संबंध पहले से ही अच्छे हैं. वहीं तालिबान ने काबुल के आस-पास के कई प्रांतों पर कब्जा कर लिया है और तालिबान इन दोनों देशों को प्राथमिकता दे रहा है. यदि आने वाले समय में अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होता है तो ये दोनों देश अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.

तालिबान द्वारा चीन पर व्यक्त किया गया विश्वास दिलचस्प है, क्योंकि चीन ने अफगानिस्तान के भीतर वार्ता को सुगम बनाने और यहां तक ​​कि मेजबानी करने की पेशकश की है.

दूसरा, मुल्लाह अब्दुल ग़नी बरादर ने नेतृत्व वाला तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने दोहराया कि ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) को अफगानिस्तान में संचालित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट चीन के शिनजियांग के उइगर उग्रवादियों का एक सशस्त्र संगठन है, जिसका उद्देश्य मुस्लिम उइगरों के लिए एक स्वतंत्र मातृभूमि स्थापित करना है. तालिबान की यह प्रतिबद्धता चीनी हितों के लिए एक बड़ा लाभ है.

वहीं चीन का मानना है कि शिनजिंयाग प्रांत व देश के अन्य इलाकों में होने वाले सभी हिंसक हमलों के पीछे ईटीआईएम का हाथ है. मुलाकात के दौरान यी ने बरादर से सकारात्मक छवि बनाने और विस्तृत व समावेशी राजनीतिक ढांचा का आह्वान किया जो अफगानिस्तान की राष्ट्रीय वास्तविकता के अनुकूल हो.

तीसरा, तालिबान के साथ दोस्ती चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की एक प्रमुख परियोजना है, जो आतंकवादी प्रभावित अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र से होकर गुजरती है.

चौथा, ऐसे समय में जब तालिबान अंतरराष्ट्रीय मान्यता की मांग कर रहा है, ऐसे वक्त ने चीन ने तालिबान का गर्मजोशी से स्वागत किया है और अफगानिस्तान में निवेश करने की पेशकश की. जिसमें अयनाक तांबे की खदान को विकसित करने के लिए $ 3 बिलियन की प्रतिबद्धता शामिल है. नकदी की तंगी से जूझ रहे तालिबान के लिए फायदे की स्थिति होगी.

पांचवां, तालिबान के समर्थन के माध्यम से अफगानिस्तान में चीन का प्रभाव बढ़ जाएगा. वहीं पाकिस्तान के जरिए अरब सागर कई बिंदुओं तक चीन की पहुंच हो जाएगी, जो दशकों से एक चीनी सपना रहा है. अफगानिस्तान में नियंत्रण से मध्य एशिया तक पहुंच बनाना चीन के लिए आसान हो जाएगा, एक ऐसा क्षेत्र जो अन्य संसाधनों के अलावा विशाल ऊर्जा भंडार के लिए जाना जाता है.

छठा चीन को अपने 'लौह भाई' पाकिस्तान से समर्थन का प्रमुख लाभ है, जो तालिबान को प्रॉक्सी-नियंत्रित करता है. चीन ने पाकिस्तान में भारी निवेश किया है, जिसके चलते पाकिस्तान पर चीन का नियंत्रण स्थिर है.

कमजोर अमेरिकी स्थिति
दूसरी ओर, 2001 के बाद से युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में अमेरिका की सेना थी. इसके बाद भी अमेरिका को कोई लाभ नहीं मिला है. इतना ही नहीं वह अफगानिस्तान से तालिबान को खत्म करने में भी विफल रहा. यदि तालिबान काबुल में एक स्थिर शासन स्थापित करने में सफल हो जाता है, तो कश्मीर उग्रवाद में गतिविधि बढ़ने की बहुत प्रबल संभावना है.

कौन है तालिबान
तालिबान का अफगानिस्तान में उदय 90 के दशक में हुआ. सोवियत सैनिकों के लौटने के बाद वहां अराजकता का माहौल पैदा हुआ, जिसका फायदा तालिबान ने उठाया. उसने दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान से तालिबान ने जल्द ही अपना प्रभाव बढ़ाया. सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया. 1996 में अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर काबुल पर कब्जा कर लिया था.

इसके बाद तालिबान ने इस्लामिक कानून को सख्ती लागू किया. मसलन मर्दों का दाढ़ी बढाना और महिलाओं का बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया. सिनेमा, संगीत और लड़कियों की पढ़ाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया. बामियान में तालिबान ने यूनेस्को संरक्षित बुद्ध की प्रतिमा तोड़ दी.

2001 में जब 9/11 के हमले हुए तो तालिबान अमेरिका के निशाने पर आया. अलकायदा के ओसामा बिन लादेन को पनाह देने के आरोप में अमेरिका ने तालिबान पर हमले किए. करीब 20 साल तक अमेरिका तालिबान के साथ लड़ता रहा. 1 मई से वहां से अमेरिकी सैनिकों ने वापसी शुरू कर दी है. 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी सेना पूरी तरह अफगानिस्तान से हट जाएगी. अंदेशा है कि इसके बाद आईएसआई और तालिबान भारत के प्रोजेक्ट को और निशाना बनाएगी.

Last Updated : Jul 30, 2021, 4:58 AM IST
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