हैदराबाद : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वैगन ट्रेजडी ब्रिटिश क्रूरता की अद्वितीय घटना है. इस घटना के 100 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन आज भी इसका दर्द भारतीयों के दिलों को कुरेदता रहता है.
20 नवंबर, 1921 को केरल के विभिन्न हिस्सों में जमींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन हो रहे थे. केरल के उत्तरी भाग में मालाबार विद्रोह के क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी और दमन के बावजूद, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन और तेज हो गए. आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किए गए लोगों को केरल से बाहर हिरासत में भेजा जा रहा था.
अंग्रेजों द्वारा कैदियों को ले जाने के लिए अक्सर बंद मालगाड़ियों का इस्तेमाल किया जाता था. 20 नवंबर 1921 को, 100 से अधिक आंदोलनकारियों को मालगाड़ी के डिब्बे में भरकर मलप्पुरम के तिरूर रेलवे स्टेशन से कर्नाटक की बेल्लारी केंद्रीय जेल शिफ्ट किया जा रहा था. इस बंदियों पर मलप्पुरम-पलक्कड़ जिले की सीमा पर स्थित पुलमंथोल ब्रिज (Pulamanthol Bridge) को ढहाने का आरोप लगाया गया था.
'मौत के डिब्बे' में तड़प-तड़प कर तोड़ा दम
बंद डिब्बे में हवा और रोशनी न मिलने के कारण कैदियों के दम घुटने लगे और वे चीखने-चिल्लाने लगे. हालांकि ट्रेन को पलक्कड़ जिले के शोरनूर और ओलावक्कोड में रोक दिया गया था, लेकिन ब्रिटिश सेना ने डिब्बा खोलने से इनकार कर दिया. आखिरकार ट्रेन को तमिलनाडु के पोथन्नूर स्टेशन पर रोका गया, लेकिन सभी गुजरने वाले रेलवे स्टेशनों पर कैदियों की चीखें सुनाई दी थीं.
इतिहासकार वैगन ट्रेजडी को जलियांवाला बाग से भी बड़ा नरसंहार बताते हैं. मौत के डिब्बे में बंद में कैदी चीखते-चिल्लाते रहे और दम घुटने से 64 कैदियों की मौत हो गई. जबकि बचे हुए लोगों को ब्रिटिश सेना ने अस्पताल में भर्ती कराया और बाद में उन्हें जेल में डाल दिया गया. वैगन के अंदर का भयावह नजारा देखकर ब्रिटिश सैनिक भी हैरान रह गए थे. इसके बाद रेलवे अधिकारियों ने शवों से भरे वैगन को पोतन्नूर से वापस तिरूर भेज दिया था.
जब मालगाड़ी शवों के साथ तिरूर पहुंची और डिब्बे को खोला गया तो उसमें तेज बदबू आ रही थी. डिब्बे में 64 शव पड़े थे.
तिरूर के लोगों के दिलों में आज भी ताजा हैं जख्म
100 साल बाद भी, इस क्रूर नरसंहार को याद कर तिरूर के लोगों के दिलों पर इसके जख्म ताजा हो जाते हैं. पोतन्नूर से वैगन में आए 44 शवों को तिरूर कोरंगट जुमा मस्जिद और 11 को कोट जुमा मस्जिद में दफनाया गया. तिरूर के लोगों को आज भी थुम्बरी अलीकुट्टी (Thumberi Alikutty) से सुनी गई कहानियां याद हैं, जिन्होंने उस दिन जनाजे की नमाज पढ़ाई थी.
जिंदा बचे अहमद हाजी ने बताई थी अंग्रेजों की क्रूरता
वैगन नरसंहार में जिंदा बचे बंदी कोनोली अहमद हाजी (Connolly Ahmed Haji) की डरावनी यादें 1981 में 'वैगन ट्रेजडी' नामक संस्मरण में प्रकाशित हुई थीं.
जिसमें वो बताते हैं, 'ब्रिटिश सैनिकों द्वारा गिरफ्तार किए गए कैदियों को तिरूर रेलवे स्टेशन पर लाया गया. लगभग 600 कैदी थे. ब्रिटिश सैनिकों ने मालगाड़ी के डिब्बों में सभी कैदियों को ठूंस कर भर दिया. एक डिब्बे में लगभग 100 कैदियों को भरा गया. कैदियों को तकिए की रुई की तरह डिब्बे में ठूंस दिया गया था. कई कैदी एक पैर पर खड़े थे. सैनिकों ने बंदूक की बट से कैदियों को ठूंसा और फिर दरवाजा बंद कर दिया. इसके बाद मालगाड़ी चलने लगती है.'
अहमद हाजी आगे बताते हैं, 'डिब्बे में रोशनी और ताजी हवा न मिलने से कैदियों की सांसें फूलने लगीं और वे चीखने-चिल्लाने लगे. प्यास के कारण कई कैदी बेहोश हो गए. जान बचाने के लिए कुछ कैदी पसीना और पेशाब तक पीने को मजबूर हो गए. कैदी एक दूसरे पर झपट रहे थे और काटने की कोशिश कर रहे थे. डिब्बे में कील की वजह से बने एक छोटे से सुराख से कैदी एक-एक करके सांस लेने की कोशिश कर रहे थे. कुछ देर बाद मैं बेहोश हो गया. जब मुझे होश आया तो डिब्बा मल, मूत्र, खून और शवों से भरा हुआ था. किसी ने डिब्बे में ठंडा पानी डाल दिया था. मेरा शरीर कांपने लगा. जब मुझे कोयंबटूर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया तो मुझे एहसास हुआ कि मैं जिंदा हूं.'
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तिरूर म्युनिसिपल टाउन हॉल ने नरसंहार की याद में एक वैगन का निर्माण कराया है. वैगन ट्रेजेडी की याद में लाइब्रेरी और स्कूल भवनों को भी वैगन का आकार दिया गया है. जो अंग्रेजों की क्रूरता की दास्तान को आज भी बयां करते हैं.