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'किंग' से किंग मेकर कैसे बन गए यूपी के ब्राह्मण ? - AIMIM

यूपी चुनाव से पहले हर दल ने कमर कस ली है लेकिन सबकी नजर इस बार सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण वोट पर है. फिर चाहे सपा हो या बसपा या फिर कांग्रेस, आखिर ऐसा क्या हुआ है कि यूपी में ब्राह्मणों को रिझाने में हर दल एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है. अजीज अहमद का विश्लेषण

यूपी चुनाव
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Published : Jul 28, 2021, 8:42 PM IST

हैदराबाद: उत्तर प्रदेश ज्यों-ज्यों विधानसभा चुनाव की ओर सरक रहा है, त्यों-त्यों राजनीतिक दलों की सरगर्मियां बढ़ती जा रही हैं. यूं तो चुनाव के लिए कई मुद्दे पहले से ही लहलहा रहे हैं, लेकिन एक नया मुद्दा सभी दल नए सिरे से उगाने में लग गए हैं. वो है "ब्राह्मणों की हमदर्दी". शायद ये पहला चुनाव होगा जिसमें मुस्लिम वोट, दलित वोट यहां तक कि राम मंदिर को भी छोड़कर सभी पार्टियां सिर्फ ब्राह्मणों को रिझाने में जुट गयी हैं. आखिर क्यों सभी राजनीतिक दल मुस्लिमों, दलितों और अन्य जातियों को छोड़कर सिर्फ ब्राह्मणों को ही रिझाने या मनाने में लग गए है?

इतिहास में झांके तो हमेशा मुस्लिमों को रिझाने की भरसक कोशिश होती रही है या फिर दलितों पर डोरे डालने की कोशिश की जाती रही है. जातिगत वोट बैंक की राजनीति के इतर देखें तो राम मंदिर हर चुनाव में ख़ास मुद्दा बना रहा है, लेकिन इस मुद्दे ने कभी किसी राजनितिक दल को सत्ता तक नहीं पहुंचाया. भाजपा के लिए तो ये मुद्दा "जन्म सिद्ध अधिकार" जैसा है. इस चुनाव में राम मंदिर मुद्दा भाजपा के लिए सपने के पूरा होने जैसा है, क्योंकि भव्य राम मंदिर बनने के लिए आधारशिला भी रखी जा चुकी है. सर्वोच्च अदालत ने सारे रास्ते भी साफ़ कर दिए है. इतनी बड़ी सफलता का परचम हाथ में होने के बावजूद भाजपा को भी करीब तीन करोड़ ब्राह्मण पार्टी से मुंह मोड़ते दिख रहे हैं.

ब्राह्मण वोट बैंक पर सबकी नजर
ब्राह्मण वोट बैंक पर सबकी नजर

माना जा रहा है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों ने कमल का साथ दिया था इसीलिए भाजपा सत्ता तक आसानी से पहुंच गयी थे. लेकिन सत्तासीन होने के बाद राज्य में ब्राह्मणों के साथ सौतेला व्यवहार ऐसा शुरू हुआ जो अब भाजपा के लिए गले की हड्डी बन गया है. सत्ता में भागीदारी से जो दरार पड़ी तो बिकरू कांड के आरोपी विकास दुबे के अपेक्षित एनकाउंटर के बाद गहरी खाई में तब्दील हो गई. 56 मंत्रियों के मंत्रीमंडल में महज़ आठ ब्राह्मणों को जगह दी गई थी, वो भी कम वजनी विभागो के साथ नवाजे गए. इससे ये सम्भावना बलवती हो गयी कि कहीं इस बार ब्राह्मण वोट मुट्ठी से न फिसल जाए. चुनाव सिर पर आते देख पार्टी के आकाओं और संघ को इसका एहसास हुआ और सत्ता वापसी के लिए संगठन इस खाई को पाटने में जुट गया.

भाजपा का संघर्ष

पार्टी हाईकमान ने अपने उसी अस्त्र का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है , जिससे मध्यप्रदेश, असम और बंगाल में अपनाया गया था. इसी क्रम में सबसे पहले कांग्रेस में हाशिये पर पड़े पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे जितिन प्रसाद को साथ लाया गया. जितिन प्रसाद शुरू से ही ब्राह्मणों की राजनीति करते रहे है. उन्होंने कभी ब्राह्मण चेतना परिषद् की स्थापना भी की थी. इसके अलावा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर आरोप भी लगाया था कि उनके राज में ब्राह्मणों पर अत्याचार बढ़े हैं. शायद इसी आवाज़ को मद्धम करने और बीजेपी से ब्राह्मणों की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें पार्टी में लाया गया. लेकिन जितिन प्रसाद कितने वोट जुटाऊ साबित होंगे इस पर राजनीतिक पंडित शंका में है.

जितिन प्रसाद बीजेपी में हुए शामिल
जितिन प्रसाद बीजेपी में हुए शामिल

कांग्रेस की कोशिश

कांग्रेस यूपी में ब्राह्मण राजनीति को हवा देने में जुट गयी है. इसके लिए जरिया बनाया गया है बिकरू कांड के मुख्य आरोपी विकास दुबे के एनकाउंटर को, हालांकि विकास दुबे मारा जा चुका है किन्तु कांग्रेस उसे चुनाव तक ज़िंदा रखना चाहती है. कांग्रेस को तो जैसे यूपी में संजीवनी मिल गई है. पार्टी के कई नेताओं ने एनकाउंटर पर सवाल उठाते हुए योगी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है. आचार्य प्रमोद कृष्णम ने तो यहां तक कह दिया कि 'ये सरकार ब्राह्मणों की हत्यारी है. उन्होंने सरकार से सवाल पूछा कि यूपी में ब्राह्मण होना अभिशाप है क्या, सरकार को इसका श्राप लगेगा "

बहुजन समाज पार्टी की कोशिश

सबसे चौकाने वाला प्रयास शुरू किया है बहुजन समाज पार्टी ने, उसने तो अभियान ही ऐसा शुरू कर दिया है मानो पार्टी का गठन ही ब्राह्मणों के हितों की रक्षा के लिए हुआ हो. 23 जुलाई से राम की नगरी अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलनों का आगाज़ किया गया. पहले ही सम्मलेन में बसपा के शीर्ष नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने मुखर होकर न सिर्फ योगी सरकार को कटघरे में खड़ा किया बल्कि ऐलानिया तौर पर सरकार के विरुद्ध राजनीतिक जंग छेड़ दी. उन्हने कहा " बिकरु कांड के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश देकर कहा गया था कि इस मामले में 100 ब्राह्मणों को निपटाना है. ब्राह्मणों को मारने के लिए उनकी गाड़ियों को पलटाकर मुठभेड़ में मारा गिराया गया. यही वजह है कि दो दिन की दुल्हन खुशी दुबे को भी पुलिस ने जबरन आरोपी बनाकर जेल भेज दिया. यही नहीं सिर्फ ब्राह्मण होने की वजह से प्रदेश सरकार खुशी दुबे की जमानत हाईकोर्ट तक से नहीं होने दे रही है." इसके अलावा राम मंदिर निर्माण और कई मुद्दों पैर भाजपा पर तमाम सवाल दागे. बसपा का अगला ब्राह्मण सम्मलेन आस्था की एक और नगरी मथुरा -वृन्दावन से शुरू किया जाएगा. ये सिलसिला चुनाव तक जारी रहने की उम्मीद है.

बसपा भी ब्राह्मणों को मनाने में जुटी
बसपा भी ब्राह्मणों को मनाने में जुटी

सपा के प्रयास

हमेशा से मुस्लिमों को अपना वोट बैंक समझने वाली समाजवादी पार्टी को भी भाजपा से छिटकते दिख रहे अंगूर (ब्राह्मण वोट) मुंह में गिरते नज़र आ रहे हैं. उनके सारे हितों की चिंता अचानक होने लगी है बावजूद इसके कि 2007 और 2019 में ये "अंगूर" उसके लिए खट्टे साबित हो चुके है , फिर भी एक उम्मीद की नज़र से उन्हें रिझाना शुरू कर दिया है. सपा भी अगस्त से ब्राह्मण सम्मेलन शुरू करेगी, इसके लिए राज्य के दिग्गज ब्राह्मणों माता प्रसाद पांडे, मनोज पांडेय, अभिषेक मिश्रा, पवन पांडे व सनातन पांडे को आगे किया गया है. चाचा -भतीजे की जंग से जूझ रही सपा सिर्फ ब्राह्मण वोटों की संजीवनी पाकर क्या भाजपा को सत्ता से बेदखल कर पाएगी ? यही एक सवाल उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फ़िज़ां में तैर रहा है.

सपा को भी याद आए ब्राह्मण
सपा को भी याद आए ब्राह्मण

AIMIM की मुस्लिम वोटों में सेंध

यहाँ पर अगर हम ऑल इंडिया मजलिस इ इत्तिहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के बात नहीं करेंगे तो बात अधूरी रह जाएगी. जातिगत सभी समीकरण तब बेमानी हो जाते है यदि मुस्लिम वोटों के भागेदारी की बात उत्तर प्रदेश में ना की जाए. उत्तरप्रदेश में तकरीबन 19 फीसदी मुसलमान हैं. अमूमन ये माना जाता है की मुस्लिम वोट हमेशा सपा , बसपा या कांग्रेस को ही सपोर्ट करते रहे है. लेकिन अब ये बुरी तरह छितर गए है. या यू कहें कि कोई भी राजनीतिक दल ये नहीं कह सकता कि ये हमारी जागीर है. लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव से AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने हक़ जताना शुरू कर दिया है. हालांकि यूपी के मुसलमान उन्हें स्वीकार नहीं करते है. फिर भी AIMIM के असर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. पिछले विधानसभा चुनाव में भले ही "सिफर " हाथ लगा हो लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में आंशिक सफलता हासिल कर असदुद्दीन ओवैसी के हौसले काफी बुलंद हैं.

ओवैसी को मिला राजभर का साथ
ओवैसी को मिला राजभर का साथ

उप्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर के साथ 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' में जुड़ जाने से मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगा दी है. वे भले ही सीटें न जीत पाएं लेकिन मुस्लिमों को किसी एक राजनीतिक दल के साथ सामूहिक रूप से जुड़ने में बाधा ज़रूर बन सकते हैं. यदि ऐसा भी होता है तो यही एक आस भाजपा को ऑक्सीजन देने वाली साबित हो सकती है.

ये कहना गलत नही होगा कि उत्तरप्रदेश में अगर क्षत्रिय vs ब्राह्मण नहीं होता तो आज किसी राजनीतिक दल के पास कोई ठोस मुद्दा नहीं होता क्योंकि "राम मंदिर निर्माण " का सबसे मज़बूत मुद्दा भाजपा पहले ही अपनी झोली में डाल चुकी थी. भाजपा ने एक तरह से विपक्ष को खुद ही एक मुद्दा दे दिया. जिसे भुनाने के लिए गैर भाजपाई सभी राजनीतिक दल जुट गए हैं. ये तो नहीं कह सकते कि " एक जुट" हो गए हैं, लेकिन सभी खुद को मजबूत करने में लग गए हैं.

आम तौर सपा को पिछड़ी जाति का अगुवा, बसपा को दलित वोट बैंक और भाजपा को अगड़ी जाति का पैरोकार माना जाता है, लेकिन भाजपा के सामने इस बार अपने ही नेतृत्व को बचाये रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है. क्योंकि आबादी के लिहाज से राज्य में लगभग तीन करोड़ ब्राह्मण हैं. बीते दो साल में ब्राह्मणों की हत्या का प्रतिशत अधिक हुआ है और सत्ता योगी आदित्य नाथ के हाथों में है जो कि क्षत्रिय है. विपक्षी दल इसी का फायदा उठा कर उन्हें ( ब्राह्मण) भाजपा से अलग करने के लिए खुद के साथ जुड़ने की दावत दे रहे है.

ये भी पढ़ें: यूपी के संभावित सीएम : विधानसभा चुनाव में लड़ेंगे नहीं, जीत गए तो बनेंगे MLC !

हैदराबाद: उत्तर प्रदेश ज्यों-ज्यों विधानसभा चुनाव की ओर सरक रहा है, त्यों-त्यों राजनीतिक दलों की सरगर्मियां बढ़ती जा रही हैं. यूं तो चुनाव के लिए कई मुद्दे पहले से ही लहलहा रहे हैं, लेकिन एक नया मुद्दा सभी दल नए सिरे से उगाने में लग गए हैं. वो है "ब्राह्मणों की हमदर्दी". शायद ये पहला चुनाव होगा जिसमें मुस्लिम वोट, दलित वोट यहां तक कि राम मंदिर को भी छोड़कर सभी पार्टियां सिर्फ ब्राह्मणों को रिझाने में जुट गयी हैं. आखिर क्यों सभी राजनीतिक दल मुस्लिमों, दलितों और अन्य जातियों को छोड़कर सिर्फ ब्राह्मणों को ही रिझाने या मनाने में लग गए है?

इतिहास में झांके तो हमेशा मुस्लिमों को रिझाने की भरसक कोशिश होती रही है या फिर दलितों पर डोरे डालने की कोशिश की जाती रही है. जातिगत वोट बैंक की राजनीति के इतर देखें तो राम मंदिर हर चुनाव में ख़ास मुद्दा बना रहा है, लेकिन इस मुद्दे ने कभी किसी राजनितिक दल को सत्ता तक नहीं पहुंचाया. भाजपा के लिए तो ये मुद्दा "जन्म सिद्ध अधिकार" जैसा है. इस चुनाव में राम मंदिर मुद्दा भाजपा के लिए सपने के पूरा होने जैसा है, क्योंकि भव्य राम मंदिर बनने के लिए आधारशिला भी रखी जा चुकी है. सर्वोच्च अदालत ने सारे रास्ते भी साफ़ कर दिए है. इतनी बड़ी सफलता का परचम हाथ में होने के बावजूद भाजपा को भी करीब तीन करोड़ ब्राह्मण पार्टी से मुंह मोड़ते दिख रहे हैं.

ब्राह्मण वोट बैंक पर सबकी नजर
ब्राह्मण वोट बैंक पर सबकी नजर

माना जा रहा है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों ने कमल का साथ दिया था इसीलिए भाजपा सत्ता तक आसानी से पहुंच गयी थे. लेकिन सत्तासीन होने के बाद राज्य में ब्राह्मणों के साथ सौतेला व्यवहार ऐसा शुरू हुआ जो अब भाजपा के लिए गले की हड्डी बन गया है. सत्ता में भागीदारी से जो दरार पड़ी तो बिकरू कांड के आरोपी विकास दुबे के अपेक्षित एनकाउंटर के बाद गहरी खाई में तब्दील हो गई. 56 मंत्रियों के मंत्रीमंडल में महज़ आठ ब्राह्मणों को जगह दी गई थी, वो भी कम वजनी विभागो के साथ नवाजे गए. इससे ये सम्भावना बलवती हो गयी कि कहीं इस बार ब्राह्मण वोट मुट्ठी से न फिसल जाए. चुनाव सिर पर आते देख पार्टी के आकाओं और संघ को इसका एहसास हुआ और सत्ता वापसी के लिए संगठन इस खाई को पाटने में जुट गया.

भाजपा का संघर्ष

पार्टी हाईकमान ने अपने उसी अस्त्र का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है , जिससे मध्यप्रदेश, असम और बंगाल में अपनाया गया था. इसी क्रम में सबसे पहले कांग्रेस में हाशिये पर पड़े पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे जितिन प्रसाद को साथ लाया गया. जितिन प्रसाद शुरू से ही ब्राह्मणों की राजनीति करते रहे है. उन्होंने कभी ब्राह्मण चेतना परिषद् की स्थापना भी की थी. इसके अलावा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर आरोप भी लगाया था कि उनके राज में ब्राह्मणों पर अत्याचार बढ़े हैं. शायद इसी आवाज़ को मद्धम करने और बीजेपी से ब्राह्मणों की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें पार्टी में लाया गया. लेकिन जितिन प्रसाद कितने वोट जुटाऊ साबित होंगे इस पर राजनीतिक पंडित शंका में है.

जितिन प्रसाद बीजेपी में हुए शामिल
जितिन प्रसाद बीजेपी में हुए शामिल

कांग्रेस की कोशिश

कांग्रेस यूपी में ब्राह्मण राजनीति को हवा देने में जुट गयी है. इसके लिए जरिया बनाया गया है बिकरू कांड के मुख्य आरोपी विकास दुबे के एनकाउंटर को, हालांकि विकास दुबे मारा जा चुका है किन्तु कांग्रेस उसे चुनाव तक ज़िंदा रखना चाहती है. कांग्रेस को तो जैसे यूपी में संजीवनी मिल गई है. पार्टी के कई नेताओं ने एनकाउंटर पर सवाल उठाते हुए योगी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है. आचार्य प्रमोद कृष्णम ने तो यहां तक कह दिया कि 'ये सरकार ब्राह्मणों की हत्यारी है. उन्होंने सरकार से सवाल पूछा कि यूपी में ब्राह्मण होना अभिशाप है क्या, सरकार को इसका श्राप लगेगा "

बहुजन समाज पार्टी की कोशिश

सबसे चौकाने वाला प्रयास शुरू किया है बहुजन समाज पार्टी ने, उसने तो अभियान ही ऐसा शुरू कर दिया है मानो पार्टी का गठन ही ब्राह्मणों के हितों की रक्षा के लिए हुआ हो. 23 जुलाई से राम की नगरी अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलनों का आगाज़ किया गया. पहले ही सम्मलेन में बसपा के शीर्ष नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने मुखर होकर न सिर्फ योगी सरकार को कटघरे में खड़ा किया बल्कि ऐलानिया तौर पर सरकार के विरुद्ध राजनीतिक जंग छेड़ दी. उन्हने कहा " बिकरु कांड के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश देकर कहा गया था कि इस मामले में 100 ब्राह्मणों को निपटाना है. ब्राह्मणों को मारने के लिए उनकी गाड़ियों को पलटाकर मुठभेड़ में मारा गिराया गया. यही वजह है कि दो दिन की दुल्हन खुशी दुबे को भी पुलिस ने जबरन आरोपी बनाकर जेल भेज दिया. यही नहीं सिर्फ ब्राह्मण होने की वजह से प्रदेश सरकार खुशी दुबे की जमानत हाईकोर्ट तक से नहीं होने दे रही है." इसके अलावा राम मंदिर निर्माण और कई मुद्दों पैर भाजपा पर तमाम सवाल दागे. बसपा का अगला ब्राह्मण सम्मलेन आस्था की एक और नगरी मथुरा -वृन्दावन से शुरू किया जाएगा. ये सिलसिला चुनाव तक जारी रहने की उम्मीद है.

बसपा भी ब्राह्मणों को मनाने में जुटी
बसपा भी ब्राह्मणों को मनाने में जुटी

सपा के प्रयास

हमेशा से मुस्लिमों को अपना वोट बैंक समझने वाली समाजवादी पार्टी को भी भाजपा से छिटकते दिख रहे अंगूर (ब्राह्मण वोट) मुंह में गिरते नज़र आ रहे हैं. उनके सारे हितों की चिंता अचानक होने लगी है बावजूद इसके कि 2007 और 2019 में ये "अंगूर" उसके लिए खट्टे साबित हो चुके है , फिर भी एक उम्मीद की नज़र से उन्हें रिझाना शुरू कर दिया है. सपा भी अगस्त से ब्राह्मण सम्मेलन शुरू करेगी, इसके लिए राज्य के दिग्गज ब्राह्मणों माता प्रसाद पांडे, मनोज पांडेय, अभिषेक मिश्रा, पवन पांडे व सनातन पांडे को आगे किया गया है. चाचा -भतीजे की जंग से जूझ रही सपा सिर्फ ब्राह्मण वोटों की संजीवनी पाकर क्या भाजपा को सत्ता से बेदखल कर पाएगी ? यही एक सवाल उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फ़िज़ां में तैर रहा है.

सपा को भी याद आए ब्राह्मण
सपा को भी याद आए ब्राह्मण

AIMIM की मुस्लिम वोटों में सेंध

यहाँ पर अगर हम ऑल इंडिया मजलिस इ इत्तिहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के बात नहीं करेंगे तो बात अधूरी रह जाएगी. जातिगत सभी समीकरण तब बेमानी हो जाते है यदि मुस्लिम वोटों के भागेदारी की बात उत्तर प्रदेश में ना की जाए. उत्तरप्रदेश में तकरीबन 19 फीसदी मुसलमान हैं. अमूमन ये माना जाता है की मुस्लिम वोट हमेशा सपा , बसपा या कांग्रेस को ही सपोर्ट करते रहे है. लेकिन अब ये बुरी तरह छितर गए है. या यू कहें कि कोई भी राजनीतिक दल ये नहीं कह सकता कि ये हमारी जागीर है. लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव से AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने हक़ जताना शुरू कर दिया है. हालांकि यूपी के मुसलमान उन्हें स्वीकार नहीं करते है. फिर भी AIMIM के असर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. पिछले विधानसभा चुनाव में भले ही "सिफर " हाथ लगा हो लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में आंशिक सफलता हासिल कर असदुद्दीन ओवैसी के हौसले काफी बुलंद हैं.

ओवैसी को मिला राजभर का साथ
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उप्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर के साथ 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' में जुड़ जाने से मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगा दी है. वे भले ही सीटें न जीत पाएं लेकिन मुस्लिमों को किसी एक राजनीतिक दल के साथ सामूहिक रूप से जुड़ने में बाधा ज़रूर बन सकते हैं. यदि ऐसा भी होता है तो यही एक आस भाजपा को ऑक्सीजन देने वाली साबित हो सकती है.

ये कहना गलत नही होगा कि उत्तरप्रदेश में अगर क्षत्रिय vs ब्राह्मण नहीं होता तो आज किसी राजनीतिक दल के पास कोई ठोस मुद्दा नहीं होता क्योंकि "राम मंदिर निर्माण " का सबसे मज़बूत मुद्दा भाजपा पहले ही अपनी झोली में डाल चुकी थी. भाजपा ने एक तरह से विपक्ष को खुद ही एक मुद्दा दे दिया. जिसे भुनाने के लिए गैर भाजपाई सभी राजनीतिक दल जुट गए हैं. ये तो नहीं कह सकते कि " एक जुट" हो गए हैं, लेकिन सभी खुद को मजबूत करने में लग गए हैं.

आम तौर सपा को पिछड़ी जाति का अगुवा, बसपा को दलित वोट बैंक और भाजपा को अगड़ी जाति का पैरोकार माना जाता है, लेकिन भाजपा के सामने इस बार अपने ही नेतृत्व को बचाये रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है. क्योंकि आबादी के लिहाज से राज्य में लगभग तीन करोड़ ब्राह्मण हैं. बीते दो साल में ब्राह्मणों की हत्या का प्रतिशत अधिक हुआ है और सत्ता योगी आदित्य नाथ के हाथों में है जो कि क्षत्रिय है. विपक्षी दल इसी का फायदा उठा कर उन्हें ( ब्राह्मण) भाजपा से अलग करने के लिए खुद के साथ जुड़ने की दावत दे रहे है.

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