नई दिल्ली : तीन कृषि सुधार कानूनों को निरस्त किए जाने और न्यूनतम सर्मथन मूल्य (MSP) पर खरीद के कानूनी प्रावधान की मांग को लेकर विगत 11 महीनों के चल रहे आंदोलन में मतभेद शुरू हो गए हैं.
दिल्ली के चार बॉर्डरों पर चल रहे आंदोलन में सक्रियता से शामिल ज्यादातर संगठन चाहते हैं कि सरकार से वार्ता का रास्ता फिर से खुले और समाधान के लिए यदि सरकार एमएसपी पर अनिवार्य खरीद के लिए कानून लाने पर सहमत हो जाती है तो तीन कृषि कानूनों में संशोधन पर विचार कर आगे बढ़ा जाए और आंदोलन को निष्कर्ष पर लाया जाए. लेकिन दूसरी तरफ आंदोलन पर ज्यादा प्रभाव और पकड़ रखने वाला गुट बिना कानूनों के निरस्त किए हुए किसी भी बातचीत को तैयार नहीं हैं.
बता दें कि वर्ष 2020 के नवंबर महीने की 26 तरीख को 'दिल्ली चलो' का आवाह्न अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति द्वारा किया गया था जिसमें देश भर के लगभग 250 किसान संगठन शामिल हुए थे. कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत में 200 के करीब और किसान संगठनों के जुड़ने का दावा किया गया था. जब दिल्ली के बॉर्डरों पर किसान संगठनों ने सड़क जाम किया और आंदोलन आगे बढ़ा तो किसान संगठनों के शामिल संघ का नाम संयुक्त किसान मोर्चा रख दिया गया और अब AIKSCC भी इस मोर्चे का ही हिस्सा है.
सक्रियता की बात करें तो संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े करीबी ही बताते हैं कि लगभग 50 प्रमुख संगठन हैं जो लगातार सभी मोर्चे में सक्रिय हैं. इनमें पंजाब,हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसान संगठन शामिल हैं. अन्य जुड़े किसान संगठन संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा किसी भी देशव्यापी आवाह्न में अपने अपने राज्यों में शामिल होते हैं और समर्थन भी करते हैं लेकिन दिल्ली के बॉर्डरों पर उनकी सक्रियता न के बराबर है.
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सूत्रों की माने तो AIKSCC से जुड़े ज्यादातर संगठन अब लंबे खिंचते आंदोलन का समाधान चाहते हैं लेकिन सरकार की चुप्पी से निराश हैं. इस पक्ष का यह भी मानना है कि एमएसपी पर कानून न केवल किसानों के लिए बड़ी जीत होगी बल्कि तीन कृषि कानूनों को भी एक तरह से निष्क्रिय समान ही कर देगी. उसके बाद यदि कृषि कानून लागू भी होते हैं तो इसका किसानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. जबकि संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े अन्य संगठन पहले ही इस तरह की बात को नकार चुके हैं.
हालांकि आंदोलन के कारण दिल्ली को अन्य राज्यों से जोड़ने वाले मुख्य मार्ग बंद हैं, इस वजह से न केवल वाहनों की आवाजाही में समस्या हो रही है बल्कि हजारों लोगों को अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. यह मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसान अनिश्चितकाल तक सड़क जाम नहीं कर सकते और भारत सरकार को इसका समाधान निकालना चाहिए. इस मामले में दोबारा सुनवाई दो हफ्ते बाद होनी है लेकिन सुप्रीम कोर्ट में पार्टी बनने के कारण भी किसान संगठनों के बीच मतभेद पैदा होने की बातें सामने आ रही हैं.
सूत्रों की माने तो किसानों की तरफ से सबसे पहले जय किसान आंदोलन पंजाब के प्रमुख, स्वराज अभियान के योगेन्द्र यादव, डॉ दर्शानपाल सुप्रीम कोर्ट में किसानों की तरफ से पार्टी बने और उन्होंने दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण को अपना वकील चुना. लेकिन इसको लेकर न तो संयुक्त किसान मोर्चा में कोई आम सहमति थी और न ही मोर्चा यह चाहता था कि उनके नेता कोर्ट में पार्टी बने. संयुक्त किसान मोर्चा का पक्ष था कि कानूनी लड़ाई लंबी चलेगी और इससे उन्हें बचना चाहिए.
यही कारण था कि कृषि कानूनों पर विचार और चर्चा के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी के समक्ष भी संयुक्त किसान मोर्चा ने अपना कोई पक्ष नहीं रखा था. बताया जाता है कि जब योगेन्द्र यादव, बलबीर सिंह राजेवाल, दर्शानपाल और अन्य नेता कोर्ट में पार्टी बने तब कई अन्य नेताओं ने इस पर कड़ी आपत्ती जताई थी. अब तक लगभग 40 संगठनों के नेताओं को सुप्रीम कोर्ट मे दायर याचिका में पार्टी बनाया गया है.
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दूसरी तरफ किसान संगठनों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पार्टी बने नेताओं के हवाले से यह कहा जा रहा है कि उन्हें बकायदा नोटिस भेजा गया जिसके बाद उनका पार्टी बनना एक कानूनी प्रक्रिया हो जाती है. इसमें विवाद की कोई बात नहीं है और इस विषय पर चर्चा भी की गई थी. जिन संगठनों या नेताओं को नोटिस नहीं गया उन्हें कोई गलतफहमी हो सकती है.
कानूनी प्रक्रिया में जाने के पक्ष में जो किसान संगठन नहीं हैं उनका पक्ष यह है कि यदि सुप्रीम कोर्ट पूरे मामले में कोई आदेश दे देती है तो आंदोलन टूटने का खतरा है क्यूं की सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानना उनकी मजबूरी हो जाएगी. ऐसे में किसान नेताओं का यह भी आरोप है की कोर्ट में पार्टी बने नेता आंदोलन को समेटना चाहते हैं और आने वाले दिनों में संयुक्त किसान मोर्चा उन पर ठोस निर्णय ले सकती है.
ऐसे में यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या यह आंदोलन अब सरकार के बजाय किसान संगठनों के लिए गले की फांस बन गया है? यदि किसान MSP पर खरीद के कानून बनने मात्र से मान जाते हैं तो उनके पुराने और दरकिनार कर दिए गए नेताओं की बात सिद्ध होती है और ऐसे में उनकी आलोचना भी तय है. लेकिन अपने अड़ियल रवैये से भी उन्हें बहरहाल कुछ हासिल होता नहीं दिख रहा क्यूंकि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती के बावजूद सरकार किसान मोर्चा के साथ वार्ता की पहल नहीं कर रही.
सरकार से करीब विशेषज्ञों की मानें तो उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव तक सरकार द्वारा कृषि कानूनों पर प्रत्यक्ष वार्ता की संभावना नहीं है लेकिन किसानों के लिए किसी अन्य सौगात की घोषणा करने पर सरकार जरूर विचार कर रही है. किसान संगठनों से अगली बातचीत अब सरकार कृषि कानूनों या एमएसपी पर कोई सीधे घोषणा के साथ ही करेगी जिसके आसार फिलहाल नहीं के बराबर हैं. वहीं संयुक्त किसान मोर्चा मीडिया और अन्य संवाद के माध्यमों से जरूर अपनी पुरानी मांगों पर टिके रहने की बात लगातार कर रहे हैं लेकिन आंदोलन के भीतर से ही फूट रहे विरोध के सुर ये बताते हैं कि अब न केवल आंदोलनकारी बल्कि आंदोलन भी थक रहा है और विश्राम के लिए समाधान की जमीन तलाशी जा रही है जिसके लिए रुख और रवैये में लचीलापन आना लाजमी है.