नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि पांच से छह साल की छोटी बच्ची से बलात्कार के मामले में नरमी दिखाने के लिए आरोपी की जाति पर विचार नहीं किया जा (leniency in child sexual assault case) सकता. शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले ने अदालत की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. अपराध इतना वीभत्स और जघन्य है कि इसका असर पीड़िता पर पूरे जीवन भर रहेगा.
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा, 'दोषी की जाति ऐसे अपराधों के मामलों में उदारता दिखाने के लिए विचारणीय नहीं है. यहां हम एक ऐसे मामले से निपट रहे हैं जहां पीड़िता पांच से छह साल की थी. पीठ ने कहा कि निचली अदालत और उच्च न्यायालय के फैसलों के शीर्षक में आरोपी की जाति का उल्लेख किया गया है.
हम यह समझने में असफल हैं कि उच्च न्यायालय और ट्रायल कोर्ट के निर्णयों के शीर्षक में अभियुक्त की जाति का उल्लेख क्यों किया गया है. निर्णय के वाद शीर्षक में किसी वादी की जाति या धर्म का उल्लेख कभी नहीं किया जाना चाहिए.' शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि जब अदालत किसी आरोपी के मामले की सुनवाई करती है तो उसकी कोई जाति या धर्म नहीं होता है. शीर्ष अदालत उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ राजस्थान सरकार द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने आरोपी गौतम को दी गई सजा को आजीवन कारावास से घटाकर 12 साल जेल में कर दिया था.
पीठ ने दोषी को 14 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाते हुए कहा कि इस मामले ने अदालत की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है और अपराध इतना वीभत्स और जघन्य है कि इसका असर पीड़िता पर पूरे जीवन भर रहेगा. पीड़िता का बचपन नष्ट हो गया है. सदमे और उसके दिमाग पर हमेशा के लिए पड़े असर के कारण पीड़िता की जिंदगी बर्बाद हो गई है. इसने पीड़िता को मनोवैज्ञानिक रूप से बर्बाद कर दिया होगा.
शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने आरोपी के प्रति उदारता दिखाई क्योंकि वह 22 वर्षीय व्यक्ति था और एक गरीब अनुसूचित जाति परिवार से था और यह भी दर्ज किया कि वह आदतन अपराधी नहीं था. शीर्ष अदालत ने कहा, 'यह एक ऐसा मामला है जो समाज पर प्रभाव डालता है. यदि मामले के तथ्यों में प्रतिवादी के प्रति अनुचित उदारता दिखाई जाती है तो यह न्याय वितरण प्रणाली में आम आदमी के विश्वास को कम कर देगा.
पीठ ने कहा कि सजा अपराध की गंभीरता के अनुरूप होनी चाहिए और जब सजा देने की बात आती है, तो अदालत को न केवल दोषी की चिंता होती है, बल्कि अपराध की भी चिंता होती है. हालाँकि, शीर्ष अदालत ने कहा कि दो कारक उसे आजीवन कारावास की सजा बहाल करने से रोकते हैं - उसकी उम्र 22 वर्ष थी, जैसा कि उच्च न्यायालय ने नोट किया था, और वह उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई 12 साल की सजा काट चुका है.
शीर्ष अदालत ने 25,000 रुपये के जुर्माने में से 20,000 रुपये पीड़िता को देने का निर्देश दिया. इसने राजस्थान राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव को यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया कि पीड़िता को राज्य की पीड़ित मुआवजा योजना के तहत मुआवजा दिया जाए. फैसले का समापन करते हुए, शीर्ष अदालत ने सुझाव दिया कि जब भी किसी बच्चे पर यौन उत्पीड़न होता है, तो राज्य या कानूनी सेवा प्राधिकरणों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे को प्रशिक्षित बाल परामर्शदाता या बाल मनोवैज्ञानिक द्वारा परामर्श की सुविधा प्रदान की जाए.
इससे पीड़ित बच्चों को सदमे से बाहर आने में मदद मिलेगी, जिससे वे भविष्य में बेहतर जीवन जीने में सक्षम होंगे. राज्य को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि अपराध के शिकार बच्चे अपनी शिक्षा जारी रखें. पीड़ित बच्चे के आसपास का सामाजिक वातावरण हमेशा पीड़ित के पुनर्वास के लिए अनुकूल नहीं हो सकता है. केवल मौद्रिक मुआवजा पर्याप्त नहीं है. पीठ ने कहा कि शायद पीड़ित लड़कियों का पुनर्वास केंद्र सरकार के 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' अभियान का हिस्सा होना चाहिए. एक कल्याणकारी राज्य के रूप में ऐसा करना सरकार का कर्तव्य होगा. हम निर्देश दे रहे हैं कि इस फैसले की प्रतियां राज्य के संबंधित विभागों के सचिवों को भेजी जानी चाहिए.