हैदराबाद : भारत के एकता की विशेष पहचान है सामाजिक विविधता को आवाज देना. इसके लिए राज्यों की भौगोलिक सीमाएं भाषाई आधार पर तय की गईं. इसका उद्देश्य था राज्यों की अपनी-अपनी पहचान कायम रखते हुए देश के लिए काम करना. हालांकि, इन राज्यों की सीमाओं को मिलाते समय सीमा पर रहने वाली मिश्रित आबादी के सामने कठिन समस्या आ गई. उन्हें उन राज्यों का हिस्सा बना दिया गया, जहां पर उनकी भाषाई पहचान बहुमत में नहीं थी.
इनमें से कुछ आबादी ने उन राज्यों के साथ एकमुश्त विलय की मांग की है, जिनकी वे पहचान करते हैं. कुछ राज्यों ने सुनिश्चित किया है कि इन भाषाई अल्पसंख्यकों को राज्य के प्रशासन में भाषाई आधार पर आरक्षण दें.
यह एक ऐसा भावनात्मक मुद्दा है, जो खतरनाक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की शक्ति रखता है. अलग-अलग राज्यों के बीच शांति की धारणा को चुनौती दे सकते हैं. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वे राष्ट्रवाद की जड़ों पर भी प्रहार कर सकता है.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेलागवी को महाराष्ट्र में विलय करने के ट्वीट ने कर्नाटक में खलबली मचा दी है. दोनों ही राज्यों ने इस पर अपना-अपना दावा किया है. बेलगावी में मराठी बोलने वालों का एक राजनीतिक मंच है. वे लंबे समय से आंदोलन चला रहे हैं. वे महाराष्ट्र के साथ विलय की मांग कर रहे हैं. इस बीच कर्नाटक ने इस जिले को दूसरी राजधानी के रूप में मान्यता प्रदान कर दी है. यहां पर विधायिका भवन बनवा दिया है.
नगर निगम चुनाव में यहां पर हमेशा ही महाराष्ट्र एककिरन समिति (एमईएस) और कर्नाटक की दूसरी पार्टियों के बीच तनाव रहता है. अब उद्धव ठाकरे के ट्वीट ने आग में घी जैसा काम किया है.
शिवसेना ने अपनी राजनीति का निर्माण भाषाई रूढ़िवाद और हिंदुत्व की अवधारणाओं पर किया है. कर्नाटक के अलग-अलग संगठन भी इसी तरह का भाव रखते हैं. बेलगावी इस बात का प्रतीक है कि कैसे भारतीय सुपरस्टेट के अंदर कर्नाटक की स्वीकृत सीमाएं खतरे में पड़ती दिख रही हैं. बड़ा सवाल यह होगा कि अगर दावे पर विचार किया जाए तो किस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं.
भाषाई राज्यों को समान जातीय, धार्मिक और भाषाई आबादी वाले सन्निहित क्षेत्रीय निकायों से नहीं बनाया गया था. यदि बेलागवी पर महाराष्ट्र के दावे को स्वीकार किया जाता है, तो कल वे गोवा पर दावा कर सकते हैं. केरल का कासरगोड मद्रास प्रेसीडेंसी के केनरा जिले का हिस्सा था. कर्नाटक इस पर दावा कर सकता है. कन्याकुमारी त्रावणकोर की रियासत का हिस्सा थी. मार्तंडम और नागरकोइल भी इसी का हिस्सा थी. तो क्या केरल को इस ऐतिहासिकता के आधार पर दावा करना चाहिए. और इस तरह के दावे अंतहीन हैं. ऐसा हुआ तो यह बहुत बड़ा विभाजनकारी कारक बन जाएगा.
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दरअसल, इस समय हम सबको विचार करने की जरूरत है कि भारत के राष्ट्र-राज्य की कल्पना किस आधार पर की गई है. राजनीतिक वैज्ञानिक बेनेडिक्ट एंडरसन ने उल्लेख किया था कि राष्ट्र कल्पनाशील समुदाय है. उनके सिद्धांत के आधार पर भारत की कल्पना एक समुदाय की तरह की गई है. हरेक संस्कृति ने मिलकर समग्रता विकसित की है. हर समुदाय को एक साथ बांधा है. हालांकि, आधुनिक भारत के सामने भाषाई आधार पर तनाव पैदा करना सब-नेशनलिज्म को बढ़ावा देने जैसा है. कुछेक लोग ऐतिहासिक स्मृति का हवाला देकर चुनौती दे सकते हैं.
यह हमेशा एक विवेकपूर्ण दृष्टिकोण होता है यदि राजनेता देश की भाषाई गलती का फायदा उठाने से बचते हैं. जब हमारे शहरी केंद्र अधिक महानगरीय बन जाएंगे, तो भारतीय आबादी अधिक विविधतापूर्ण हो जाएगी. बेलागवी भी एक दिन इस दिशा में आगे बढ़ेगी. उद्धव ठाकरे का दावा संकीर्ण भाषाई राजनीति की तरह है. भाषाई अल्पसंख्यकों वाले राज्यों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनका उस राज्य के शासन में उचित प्रतिनिधित्व हो. भारत का विचार भाषाई रूढ़िवाद की चपेट में नहीं आ सकता, जबकि आबादी की भाषाई पहचान को भी नकारा नहीं जा सकता.