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बढ़ता सोशल मीडिया का दायरा और सिमटता इंसान

बदलते दौर में तकनीकी का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन आज के समय में सोशल मीडिया का प्रभाव सबसे अधिक देखने को मिल रहा है. सोशल मीडिया का बढ़ता वर्चस्व और मोबाइल फोन के बढ़ते क्रेज का व्यापक दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहा है. मानों इस नए ट्रेंड ने लोक जुड़ाव का अपना एक नया आभासी संसार गढ़ दिया हो. ईटीवी भारत ने आज सोशल मीडिया के बढ़ते चलन और समाज में आ रहे व्यापक बदलाव को टटोलने की कोशिश की है.

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Published : Mar 15, 2021, 10:42 PM IST

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रायपुर : सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण सामाजिक तौर पर किस तरह का बदलाव आया है, इसके लिए समाज के कुछ जानकारों और आम लोगों से जानने की कोशिश की है और उनका नजरिया जाना है. समाजशास्त्र विभाग के विभागध्यक्ष प्रोफेसर केके अग्रवाल ने इस संदर्भ में विस्तार से अपनी बात रखी है.

प्रोफेसर अग्रवाल ने समाजशास्त्री 'थार्सटीन वेब्लन (1857-1929)' के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत को बताया. उन्होंने वेब्लन के सिद्धांत का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने दशकों पहले इस बदलाव का संकेत दे दिया था. वेब्लन के मुताबिक मनुष्य की आदत और मनोवृत्ति तकनीकी के कारण बदलती रहती है. यह बदलाव अस्वभाविक नहीं है. इस बदलाव के पीछे मूल रूप से तकनीकी ही है.

विशेष : सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से सिमटता इंसान

बदल रही हैं मनुष्य की आदतें

अपने सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा में वेब्लन ने मनुष्य को अपनी आदतों द्वारा नियंत्रित माना है. मनुष्य की आदतें और मनोवृत्तियां विशेषकर प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के अनुरूप परिवर्तित होती रहती हैं. प्रोफेसर अग्रवाल बताते हैं कि आधुनिक समय का यह बदलाव निश्चित रूप से हमारे सम्बन्धों पर प्रभाव डालता है. इससे अप्रत्यक्ष संबन्धों का दायरा भी बढ़ा है, लेकिन हमारे बीच रहने वाले लोगों ने अपने दायरे को समेट रखा है.

पढ़ें : उत्तराखंड: 434 गांवों में आज भी नहीं बजती मोबाइल की घंटी, जानिए क्यों

प्रोफेसर अग्रवाल बताते हैं कि जहां फोन से काम चलता है, वहां व्यक्तिगत मेल-मिलाप से लोग दूर भागने लगे हैं. लोग अब तकनीकी के कठपुतली होते जा रहे हैं. हमें तकनीकी का इस्तेमाल करना चाहिए था, लेकिन अब हम तकनीकी द्वारा इस्तेमाल हो रहे हैं. मानव में स्वार्थ की भावना भी बढ़ती जा रही है और इंसान सिमट रहा है.

मोबाइल फोन पर निर्भरता

डॉ. ज्योतिरानी सिंह ने बढ़ते सोशल मीडिया के चलन और मोबाइल फोन पर अधिक निर्भर होने पर चिंता जाहिर की है. उन्होंने कहा कि लोगों के पास अब जुड़ने का एक नया आभासी माध्यम आ गया है, इसलिए लोगों में अच्छी आदतें कम होती जा रही है.

पढ़ें : 42% लड़कियों को दिन में 1 घंटे से कम समय मोबाइल इस्तेमाल की इजाजत : सर्वे

अपनत्व का अब वो माहौल नहीं दिख रहा है जो पहले दिखता था. माता-पिता द्वारा अपने बच्चों की हर इच्छा को पूरा करने का भाव भी ठीक नहीं है. कहीं ना कहीं हमें अब स्वनियंत्रित होना होगा और लोक जुड़ाव की संस्कृति को बचानी होगी.

मोबाइल इस्तेमाल से समझने की क्षमता होती है कम

प्रोफेसर महेश कुमार पांडेय बताते हैं, आज के युवा कॉलेज में भी आपस में कम चर्चा करते हुए दिखते हैं और सब मोबाइल फोन में खोए रहते हैं. यहां तक कि यात्रा के दौरान भी लोग मोबाइल में डूबे रहते हैं और अब सहयात्रियों से आमने-सामने की बातचीत कम ही होती है. मानव का इस तरह आभासी दुनिया में खोए रहना अच्छा संकेत नहीं है. इससे समझने की क्षमता भी कम होती है और मानव एकाकीपन का शिकार होता चला जा रहा है. अब सामूहिकता की भावना भी कमजोर पड़ रही है.

पढ़ें : ऑटो पर चलता-फिरता आलिशान घर, आनंद महिंद्रा ने भी इसे सराहा

बीमारियों का खतरा

मनोचिकित्सक डॉ. आशुतोष तिवारी ने मानव में बढ़ते मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के चलन पर चिंता जाहिर की है. उन्होंने वर्ष 2018 के एक स्टडी का हवाला देते हुए कहा कि जो लोग मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया में लीन रहते हैं उनमें चौंकाने वाले परिणाम दिखते हैं. ऐसे लोग चिड़चिड़ापन, नींद में कमी, याददाश्त में कमी और अवसाद के शिकार होते हैं. नए दौर में इंसान यांत्रिकी होता जा रहा है और उसमें मानवीय मूल्य कमजोर हो रहे हैं. इस संदर्भ में आम लोगों ने भी चिंता जाहिर की है और बदलते सामाजिक परिवेश में आपसी लगाव कम हो जाने को सभी ने स्वीकारा है.

पूंजीवादी व्यवस्था का एक टूल

सामाजिक जानकार नंद कश्यप ने इस संदर्भ में अपनी अलग राय व्यक्त की है और समाज में बढ़ते तकनीकी के हस्तक्षेप को पूंजीवादी व्यवस्था का एक टूल माना है. उन्होंने कहा कि नए तकनीकी के माध्यम से शोषणकारी व्यवस्था को बढ़ावा दिया जा रहा है और तकनीकी पर सामाजिक नियंत्रण को कमजोर किया जा रहा है. यह व्यवस्था मनुष्य को पूरी तरह से उपभोक्ता में बदलने की एक परोक्ष साजिश है, ताकि समाज का वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी रहे.

पढ़ें : आजादी के दशकों बाद बजी मोबाइल की घंटी, ग्रामीणों के खिले चेहरे

यह एक तरह से मनुष्य केन्द्रित व्यवस्था पर अतिक्रमण करने जैसा है, लेकिन मानव का स्वभाव परखने का भी होता है. बदलते तकनीकी को परखने के बाद मानव उपभोगवादी कल्चर को त्यागकर अपनी मौलिक मानवीय स्वभाव की ओर लौट भी सकता है.

आज ईटीवी भारत ने बढ़ते सोशल मीडिया के चलन और उसके सामाजिक दुष्प्रभाव को विस्तार से समझने की कोशिश की है. बहरहाल, अब जरूरत इस बात की है कि हम इस गम्भीर सामाजिक बदलाव को लेकर अपने-अपने स्तर पर समीक्षा करें और बदलते सामाजिक परिवेश में स्वनियंत्रित करने की कोशिश करें.

रायपुर : सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण सामाजिक तौर पर किस तरह का बदलाव आया है, इसके लिए समाज के कुछ जानकारों और आम लोगों से जानने की कोशिश की है और उनका नजरिया जाना है. समाजशास्त्र विभाग के विभागध्यक्ष प्रोफेसर केके अग्रवाल ने इस संदर्भ में विस्तार से अपनी बात रखी है.

प्रोफेसर अग्रवाल ने समाजशास्त्री 'थार्सटीन वेब्लन (1857-1929)' के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत को बताया. उन्होंने वेब्लन के सिद्धांत का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने दशकों पहले इस बदलाव का संकेत दे दिया था. वेब्लन के मुताबिक मनुष्य की आदत और मनोवृत्ति तकनीकी के कारण बदलती रहती है. यह बदलाव अस्वभाविक नहीं है. इस बदलाव के पीछे मूल रूप से तकनीकी ही है.

विशेष : सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से सिमटता इंसान

बदल रही हैं मनुष्य की आदतें

अपने सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा में वेब्लन ने मनुष्य को अपनी आदतों द्वारा नियंत्रित माना है. मनुष्य की आदतें और मनोवृत्तियां विशेषकर प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के अनुरूप परिवर्तित होती रहती हैं. प्रोफेसर अग्रवाल बताते हैं कि आधुनिक समय का यह बदलाव निश्चित रूप से हमारे सम्बन्धों पर प्रभाव डालता है. इससे अप्रत्यक्ष संबन्धों का दायरा भी बढ़ा है, लेकिन हमारे बीच रहने वाले लोगों ने अपने दायरे को समेट रखा है.

पढ़ें : उत्तराखंड: 434 गांवों में आज भी नहीं बजती मोबाइल की घंटी, जानिए क्यों

प्रोफेसर अग्रवाल बताते हैं कि जहां फोन से काम चलता है, वहां व्यक्तिगत मेल-मिलाप से लोग दूर भागने लगे हैं. लोग अब तकनीकी के कठपुतली होते जा रहे हैं. हमें तकनीकी का इस्तेमाल करना चाहिए था, लेकिन अब हम तकनीकी द्वारा इस्तेमाल हो रहे हैं. मानव में स्वार्थ की भावना भी बढ़ती जा रही है और इंसान सिमट रहा है.

मोबाइल फोन पर निर्भरता

डॉ. ज्योतिरानी सिंह ने बढ़ते सोशल मीडिया के चलन और मोबाइल फोन पर अधिक निर्भर होने पर चिंता जाहिर की है. उन्होंने कहा कि लोगों के पास अब जुड़ने का एक नया आभासी माध्यम आ गया है, इसलिए लोगों में अच्छी आदतें कम होती जा रही है.

पढ़ें : 42% लड़कियों को दिन में 1 घंटे से कम समय मोबाइल इस्तेमाल की इजाजत : सर्वे

अपनत्व का अब वो माहौल नहीं दिख रहा है जो पहले दिखता था. माता-पिता द्वारा अपने बच्चों की हर इच्छा को पूरा करने का भाव भी ठीक नहीं है. कहीं ना कहीं हमें अब स्वनियंत्रित होना होगा और लोक जुड़ाव की संस्कृति को बचानी होगी.

मोबाइल इस्तेमाल से समझने की क्षमता होती है कम

प्रोफेसर महेश कुमार पांडेय बताते हैं, आज के युवा कॉलेज में भी आपस में कम चर्चा करते हुए दिखते हैं और सब मोबाइल फोन में खोए रहते हैं. यहां तक कि यात्रा के दौरान भी लोग मोबाइल में डूबे रहते हैं और अब सहयात्रियों से आमने-सामने की बातचीत कम ही होती है. मानव का इस तरह आभासी दुनिया में खोए रहना अच्छा संकेत नहीं है. इससे समझने की क्षमता भी कम होती है और मानव एकाकीपन का शिकार होता चला जा रहा है. अब सामूहिकता की भावना भी कमजोर पड़ रही है.

पढ़ें : ऑटो पर चलता-फिरता आलिशान घर, आनंद महिंद्रा ने भी इसे सराहा

बीमारियों का खतरा

मनोचिकित्सक डॉ. आशुतोष तिवारी ने मानव में बढ़ते मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के चलन पर चिंता जाहिर की है. उन्होंने वर्ष 2018 के एक स्टडी का हवाला देते हुए कहा कि जो लोग मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया में लीन रहते हैं उनमें चौंकाने वाले परिणाम दिखते हैं. ऐसे लोग चिड़चिड़ापन, नींद में कमी, याददाश्त में कमी और अवसाद के शिकार होते हैं. नए दौर में इंसान यांत्रिकी होता जा रहा है और उसमें मानवीय मूल्य कमजोर हो रहे हैं. इस संदर्भ में आम लोगों ने भी चिंता जाहिर की है और बदलते सामाजिक परिवेश में आपसी लगाव कम हो जाने को सभी ने स्वीकारा है.

पूंजीवादी व्यवस्था का एक टूल

सामाजिक जानकार नंद कश्यप ने इस संदर्भ में अपनी अलग राय व्यक्त की है और समाज में बढ़ते तकनीकी के हस्तक्षेप को पूंजीवादी व्यवस्था का एक टूल माना है. उन्होंने कहा कि नए तकनीकी के माध्यम से शोषणकारी व्यवस्था को बढ़ावा दिया जा रहा है और तकनीकी पर सामाजिक नियंत्रण को कमजोर किया जा रहा है. यह व्यवस्था मनुष्य को पूरी तरह से उपभोक्ता में बदलने की एक परोक्ष साजिश है, ताकि समाज का वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी रहे.

पढ़ें : आजादी के दशकों बाद बजी मोबाइल की घंटी, ग्रामीणों के खिले चेहरे

यह एक तरह से मनुष्य केन्द्रित व्यवस्था पर अतिक्रमण करने जैसा है, लेकिन मानव का स्वभाव परखने का भी होता है. बदलते तकनीकी को परखने के बाद मानव उपभोगवादी कल्चर को त्यागकर अपनी मौलिक मानवीय स्वभाव की ओर लौट भी सकता है.

आज ईटीवी भारत ने बढ़ते सोशल मीडिया के चलन और उसके सामाजिक दुष्प्रभाव को विस्तार से समझने की कोशिश की है. बहरहाल, अब जरूरत इस बात की है कि हम इस गम्भीर सामाजिक बदलाव को लेकर अपने-अपने स्तर पर समीक्षा करें और बदलते सामाजिक परिवेश में स्वनियंत्रित करने की कोशिश करें.

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