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सितालकुची हिंसा: क्या प्रवासी मजदूर राजनीतिक शतंरज के मोहरे के सिवा कुछ नहीं? - लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग

लॉकडाउन के एक साल बाद सितालकुची में हुई हिंसा ने प्रवासियों की उन भयावह यादों को एक बार फिर उजागर कर दिया है. सितालकुची में गोलीबारी में मारे गए चार लोगों में से दो प्रवासी मजदूर थे. वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए गांव लौटे थे. वे लोकतंत्र के इस त्योहार में भाग लेना चाहते थे. लेकिन वे लोकतंत्र के इस त्योहार के शिकार हो गए.

सितालकुची हिंसा
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Published : Apr 12, 2021, 4:37 AM IST

कोलकाता : पिछले साल लॉकडाउन के बाद प्रवासी श्रमिकों की जो दुर्दशा हुई उसकी तस्वीर अभी भी हर किसी के दिमाग में ताजा है. वे पैदल ही सैकंड़ो किलामीटर दूर निकल पड़े थे. उन्हें सड़क के किनारे रात गुजारनी पड़ी. कुछ मजदूर घर लौट आए, तो कुछ मजदूरों की रास्ते में मौत हो गई.

पश्चिम बंगाल में भी प्रवासी श्रमिकों की तस्वीर देश के बाकी हिस्सों की तरह दुखद थी. उस समय, केंद्र और राज्य प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा को लेकर एक-दूसरे को दोष देने का खेल खेल रहे थे. इस साल के विधानसभा चुनाव में फिर से वही तस्वीर देखी को मिल रही है.

आज लॉकडाउन के एक साल बाद सितालकुची में हुई हिंसा ने प्रवासियों की उन भयावह यादों को एक बार फिर उजागर कर दिया है. सितालकुची हिंसा में मारे गए चार लोगों में से दो प्रवासी मजदूर थे. वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए गांव लौटे थे. वे लोकतंत्र के इस त्योहार में भाग लेना चाहते थे. लेकिन वे लोकतंत्र के इस त्योहार के शिकार हो गए.

20 साल के नूर आलम बैंगलोर में काम करते थे और वोट डालने के लिए घर आए थे. नूर का इलाके में तृणमूल-भाजपा के झगड़े से कोई लेना-देना नहीं था. उन्हें मतदान के बाद फिर से बैंगलोर जाना था, लेकिन एक पल में सब कुछ बर्बाद हो गया.

वहीं समीउल भी काम के कारण बाहर रहता थे. वह गंगटोक में काम करते थे. वह मतदान से ठीक एक दिन पहले घर लौटे. मतदान के दिन घर की सारी खुशियां उल्ट गया. वह लोकतंत्र के त्योहार में भाग लेने के लिए आए और अपनी जान गंवा दी.

घटना में अपनी जान गंवाने वाले अन्य दो, एक नियमित अंतराल में काम के लिए दूसरे राज्यों में जाते थे.

पश्चिम बंगाल के 2011 के विधानसभा चुनाव के समय से प्रवासी श्रमिकों के वोट-राजनीति में महत्व हासिल करना शुरू कर दिया. उस समय, अधिकांश प्रवासी राज्य में लौट आए और परिवर्तन की धारा में बह गए. प्रवासियों के पूर्ण समर्थन के साथ ममता की सत्ता की राह सुचारू हो गई.

जैसे-जैसे समय बीतता गया, प्रवासियों के लिए वादे बढ़ते गए, लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. तालाबंदी के दौरान फंसे श्रमिकों की दयनीय स्थिति और उनके जीवन का दर्द आज भी ज्यों का त्यों है.

पढ़ें - कूच बिहार में नेताओं की एंट्री पर बैन लगाकर तथ्य दबाने की कोशिश कर रहा निर्वाचन आयोग : ममता

तालाबंदी के बाद ममता ने प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने का वादा किया ताकि उन्हें अब अन्य राज्यों में न जाना पड़े, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. उन्होंने राज्य में आय का रास्ता नहीं देखा और लोग कामके लिए दूसरे राज्यों में चले गए.

इस वर्ष का अभियान बंगाल से जाने वाले श्रमिकों के एक समूह को अन्य राज्यों में काम करने का वादा भी करता है. हर राजनीतिक दल ने वादा किया, अगर वे सत्ता में आते हैं, तो राज्य के श्रमिकों को दूसरे राज्यों में काम नहीं करना पड़ेगा, लेकिन लोकतंत्र के त्योहार के दौरान शनिवार को प्रवासी श्रमिकों ने जिस तरह से अपनी जान गंवाई, उससे कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या प्रवासी कामगार सिर्फ एक वोट बैंक हैं?

कोलकाता : पिछले साल लॉकडाउन के बाद प्रवासी श्रमिकों की जो दुर्दशा हुई उसकी तस्वीर अभी भी हर किसी के दिमाग में ताजा है. वे पैदल ही सैकंड़ो किलामीटर दूर निकल पड़े थे. उन्हें सड़क के किनारे रात गुजारनी पड़ी. कुछ मजदूर घर लौट आए, तो कुछ मजदूरों की रास्ते में मौत हो गई.

पश्चिम बंगाल में भी प्रवासी श्रमिकों की तस्वीर देश के बाकी हिस्सों की तरह दुखद थी. उस समय, केंद्र और राज्य प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा को लेकर एक-दूसरे को दोष देने का खेल खेल रहे थे. इस साल के विधानसभा चुनाव में फिर से वही तस्वीर देखी को मिल रही है.

आज लॉकडाउन के एक साल बाद सितालकुची में हुई हिंसा ने प्रवासियों की उन भयावह यादों को एक बार फिर उजागर कर दिया है. सितालकुची हिंसा में मारे गए चार लोगों में से दो प्रवासी मजदूर थे. वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए गांव लौटे थे. वे लोकतंत्र के इस त्योहार में भाग लेना चाहते थे. लेकिन वे लोकतंत्र के इस त्योहार के शिकार हो गए.

20 साल के नूर आलम बैंगलोर में काम करते थे और वोट डालने के लिए घर आए थे. नूर का इलाके में तृणमूल-भाजपा के झगड़े से कोई लेना-देना नहीं था. उन्हें मतदान के बाद फिर से बैंगलोर जाना था, लेकिन एक पल में सब कुछ बर्बाद हो गया.

वहीं समीउल भी काम के कारण बाहर रहता थे. वह गंगटोक में काम करते थे. वह मतदान से ठीक एक दिन पहले घर लौटे. मतदान के दिन घर की सारी खुशियां उल्ट गया. वह लोकतंत्र के त्योहार में भाग लेने के लिए आए और अपनी जान गंवा दी.

घटना में अपनी जान गंवाने वाले अन्य दो, एक नियमित अंतराल में काम के लिए दूसरे राज्यों में जाते थे.

पश्चिम बंगाल के 2011 के विधानसभा चुनाव के समय से प्रवासी श्रमिकों के वोट-राजनीति में महत्व हासिल करना शुरू कर दिया. उस समय, अधिकांश प्रवासी राज्य में लौट आए और परिवर्तन की धारा में बह गए. प्रवासियों के पूर्ण समर्थन के साथ ममता की सत्ता की राह सुचारू हो गई.

जैसे-जैसे समय बीतता गया, प्रवासियों के लिए वादे बढ़ते गए, लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. तालाबंदी के दौरान फंसे श्रमिकों की दयनीय स्थिति और उनके जीवन का दर्द आज भी ज्यों का त्यों है.

पढ़ें - कूच बिहार में नेताओं की एंट्री पर बैन लगाकर तथ्य दबाने की कोशिश कर रहा निर्वाचन आयोग : ममता

तालाबंदी के बाद ममता ने प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने का वादा किया ताकि उन्हें अब अन्य राज्यों में न जाना पड़े, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. उन्होंने राज्य में आय का रास्ता नहीं देखा और लोग कामके लिए दूसरे राज्यों में चले गए.

इस वर्ष का अभियान बंगाल से जाने वाले श्रमिकों के एक समूह को अन्य राज्यों में काम करने का वादा भी करता है. हर राजनीतिक दल ने वादा किया, अगर वे सत्ता में आते हैं, तो राज्य के श्रमिकों को दूसरे राज्यों में काम नहीं करना पड़ेगा, लेकिन लोकतंत्र के त्योहार के दौरान शनिवार को प्रवासी श्रमिकों ने जिस तरह से अपनी जान गंवाई, उससे कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या प्रवासी कामगार सिर्फ एक वोट बैंक हैं?

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