मुंबई : अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर मचे घमासान पर शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में निशाना साधा है. अपने संपादकीय में सामना ने लिखा, महाराष्ट्र में आपातकाल जैसे हालात बनने की अफवाह भारतीय जनता पार्टी के महाराष्ट्र में रहने वाले लोग फैला रहे हैं. उनकी जोड़ी में दिल्ली की सरकार के अनुभवी सयानों का भी शामिल होना और भी हैरान करने वाला है.
किसी दौर में 'कांग्रेसी' घास को अनुपयोगी उत्पाद कहा जाता था. उसे केवल अनुपयोगी नहीं, बल्कि बेहद उपद्रवी होने का मत भी उस समय के राजनीतिक विरोधियों द्वारा व्यक्त किया जाता था. उसी घास का काढ़ा बनाकर फिलहाल भाजपा वाले दिन में दो बार पीते होंगे, ऐसा उनका बर्ताव है. मुंबई के एक समाचार चैनल के संपादक अर्नब गोस्वामी को एक बेहद निजी मामले में गिरफ्तार किया गया है. उसकी गिरफ्तारी का राजनीतिज्ञों और पत्रकारों से संबंध नहीं है. अर्नब ने तिलक आगरकर की तरह सरकार के खिलाफ जमकर लिखा, इसलिए सरकार ने उसका गिरेबान पकड़ा है, यह ऐसा कोई मामला नहीं है.
दो साल पहले अलीबाग निवासी अन्वय नाईक और उनकी माता की खुदकुशी से संबंधित मामले में यह गिरफ्तारी है. नाईक ने मृत्यु से पहले जो पत्र लिखा था उसमें गोस्वामी के साथ हुए आर्थिक व्यवहार, धोखाधड़ी का संदर्भ है. उसी तनाव के कारण नाईक व उनकी मां ने आत्महत्या की. परंतु पहले की सरकार ने अर्नब गोस्वामी को बचाने के लिए मामले को दबा दिया. इसके लिए पुलिस व न्यायालय पर दबाव डाला. पति की मौत की नए सिरे से जांच की जाए ऐसी अर्जी नाईक की पत्नी ने पुलिस व न्यायालय में दी थी. कानून के अनुसार जो होना चाहिए वही हुआ है. गोस्वामी को पुलिस ने हिरासत में लिया है. अब जांच में सच्चाई बाहर आएगी. इसमें 'आपातकाल' आया, काला दिन निकल आया, पत्रकारिता पर हमला हुआ, ऐसा क्या है?
सामना में यह भी लिया गया है कि गुजरात में सरकार के विरोध में लिखने वाले संपादकों की गिरफ्तारी हुई. उत्तर प्रदेश में पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया, तब किसी को आपातकाल की याद नहीं आई. महाराष्ट्र के भाजपा वालों को अन्वय नाईक को न्याय मिले, इसलिए बवाल करना चाहिए, वह हमारे भूमिपुत्र हैं, लेकिन हाल के दिनों में भाजपा वालों को सौत के बच्चों को गोद में खिलाने में मजा आने लगा है. भूमिपुत्र मर जाए, तो भी चलेगा, लेकिन सौत के बच्चे को सोने के चम्मच से दूध पिलाना है, ऐसी उनकी नीति स्पष्ट हो गई है.
आपातकाल क्या था, समझना चाहिए
सामना के संपादकीय में लिखा गया है कि आपातकाल जिन्होंने देखा था, उनमें से एक लालकृष्ण आडवाणी मौजूद हैं व आपातकाल क्या था, यह आज के नौसिखियों को उनसे समझना चाहिए. कानून के लिए सब एक समान हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करने का साहस दिखाया था. उसी निर्णय से आपातकाल का बीज बोया गया. यह चुनाव रद्द करते समय न्यायाधीश सिन्हा अपने आदेश पत्र में कहते हैं कि मेरे लिए इसके अलावा दूसरा कोई भी निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है. कानून के दायरे में प्रधानमंत्री के लिए खास प्रावधान नहीं है. सहज ही मेरे लिए इसमें अलग निर्णय देना असंभव है, यह हमारा कानून और न्याय का दायरा है. कानून ने प्रधानमंत्री इंदिरा, नरसिंह राव को भी नहीं छोड़ा. कई मंत्रियों को सलाखों के पीछे जाना पड़ा. कानूनी कार्रवाई का सामना करके अमित शाह भी तपकर, निखरकर सलाखों के बाहर निकले हैं.