जयपुर. राजस्थान के आमेर महल में स्थित शिला देवी जयपुरवासियों की आराध्य देवी हैं. हर साल नवरात्रि में यहां मेला लगता है, और देवी के दर्शनों के लिए हजारों श्रद्धालु आते हैं. मान्यता है कि इस प्रतिमा के सामने तो विनाश और पीठ पीछे विकास है. यही वजह है कि इस मूर्ति को पहले दक्षिण मुखी और जयपुर की बसावट के बाद उत्तर मुखी किया गया था. वहीं, बताया जाता है कि ये प्रतिमा (History of Amer Shila Mata Mandir) बंगाल से यहां लाई गई थी. इसका श्रेय मिर्जा राजा मानसिंह को जाता है. इसके पीछे क्या है कहानी पढिये ये खास रिपोर्ट.
जयपुर में एक कहावत है कि सांगानेर का सांगा बाबा, जयपुर का हनुमान, आमेर की शिला देवी, लायो राजा महान. 1580 में बंगाल कूचबिहार का इलाके में आने वाले जसोर के राजा को हराकर शिला देवी के विग्रह को मिर्जा राजा मानसिंह वहां से लेकर आए थे. ये प्रतिमा उत्तराविमुख है. आमेर के प्राचीन मंदिरों में इसका स्थान सर्वोपरि है. बताया जाता है कि पहले देवी को नर बलि दी जाती थी, लेकिन बाद में यहां भैंसे की बलि दी जाने लगी. पशु बलि 1972 तक चलता रहा. हालांकि अब ये भी बंद हो गया है.
जयपुर की संस्कृति में शिला देवी हैं समाहितः इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत के अनुसार (Adorable Goddess of Jaipur People) जयपुर की संस्कृति में शिला देवी समाहित हैं. नवरात्र में दुर्गा पाठी लोग यहां दर्शन करने के बाद पूजा पाठ में जुटते हैं. यहां मौजूद 500 साल के पुराने मंदिरों में आमेर का शिला माता मंदिर सबसे प्रमुख है.
शिला माता के आमेर आने की यह है कहानीः इतिहासकार ने बताया कि राजा केदार बंगाल के शासक थे और मुगल सुबेदारी के समय मिर्जा राजा मान सिंह से उनका टकराव हुआ. राजा मानसिंह को जानकारी मिली कि राजा केदार के पास शिला माता का विग्रह है. राजा केदार को युद्ध में हराने के बाद ये प्रतिमा मानसिंह बंगाल से आमेर लेकर के आए. ऐसे मिथक भी शिला माता के विग्रह के साथ जुड़े हुए हैं कि ये विग्रह समुद्र तल में थी और राजा के स्वप्न में आया कि इस विग्रह को निकालने पर युद्ध में विजय मिलेगी.
यह है ज्योतिषीय मान्यताः इतिहासकार देवेंद्र भगत ने बताया कि पहले इस विग्रह की दृष्टि जयपुर की तरफ थी. सवाई जयसिंह द्वितीय के समय इस विग्रह को उत्तर मुखी किया गया. ज्योतिषीय मान्यता थी कि चूंकि ये महिषासुर मर्दिनी का विग्रह है. ऐसे में जयपुर की तरफ दृष्टि होने से यहां अकाल पड़ने की संभावना हो सकती थी. यही वजह है कि विग्रह को दक्षिण मुखी से उत्तर मुखी किया गया. वर्तमान में आमेर के राज महल में ये मंदिर मौजूद है.
बंगाली पद्धिति से होती है पूजाः नवरात्रों में आमजन के लिए ये मंदिर खुलता है. यहां बंगाली पद्धति से पूजा की जाती है. इतिहासकार आनंद शर्मा ने बताया कि शिला माता के विग्रह को बंगाल से राजा मानसिंह लेकर लाए थे. जासोर के राजा को उन्होंने परास्त किया था. तब ये प्रतिमा उनको मिली थी. या यूं कहें राजा मानसिंह इस प्रतिमा को यहां लाना चाहते थे. क्योंकि ये प्रतिमा बहुत चमत्कारी प्रतिमा है. वहीं इस प्रतिमा के साथ बंगाल के ही पुजारियों को यहां लाया गया था और यहां उन्हें बसाया था.
विग्रह के बारे में कहा जाता है कि इसके सामने तो विनाश और इसके पीठ पीछे विकास है. इसलिए पहले तो इस प्रतिमा को दक्षिणमुखी रखा गया था. लेकिन जयपुर बसने के बाद इस प्रतिमा को उत्तरमुखी कर दिया गया था, ताकि उसकी पीठ जयपुर की तरफ हो जाए. उसके बाद ही जयपुर ने बहुत विकास किया है. ये मान्यता भी है और इसमें बहुत हद तक सच्चाई भी नजर आती है। क्योंकि जयपुर में जिस तरह का विकास हुआ, उस तरह का विकास राजपूताना के अन्य किसी राज्य में नहीं हुआ.
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प्रतिमा की दृष्टि टेढ़ी होने के पीछे का रहस्य : माता शिलादेवी को चमत्कारिक के साथ रहस्यमयी भी माना जाता है. इतिहास में कई तरह की बातें हैं. इसमें से एक मान्यता यह भी प्रचलन में है कि 1727 ईस्वी में आमेर को छोड़कर कछवाहा राजवंश ने अपनी राजधानी जयपुर को बनाया तो माता ने रुष्ट होकर अपनी दृष्टि टेढ़ी कर ली. वहीं एक मत ये भी है कि राजा मानसिंह से स्वप्न में माता ने मंदिर स्थापना के बाद रोज एक नर बलि का भी वचन लिया था. राजा मानसिंह ने इस वचन को निभाया, लेकिन बाद के शासक इसे निभा नहीं पाए और नर के बजाय पशु बलि देने लगे. इससे भी नाराज होकर शिला देवी की दृष्टि टेढ़ी होने की बात कही जाती है.
चांदी का दरवाजा है आकर्षण का केंद्र : शिला देवी के मंदिर में अंदर जाने पर सबसे पहले आकर्षण का केंद्र यहां का मुख्य द्वार है, जो चांदी का बना हुआ है. इस पर नवदुर्गा शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि और सिद्धिदात्री की प्रतिमा उत्कीर्ण हैं. दस महाविद्याओं के रूप में काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर, भैरवी, धूमावती, बगुलामुखी, मातंगी, और कमला चित्रित हैं. दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की गणेशजी की मूर्ति स्थापित है. मंदिर में कलात्मक संगमरमर का कार्य महाराजा मानसिंह द्वितीय ने 1906 में करवाया था.
शिला माता मंदिर से जुड़े कुछ खास रीत-रिवाज : कुछ जानकारों का कहना है कि शिला माता मंदिर की मूल प्रतिमा का तेज इतना इतना अधिक है कि उसे महल राजा मान सिंह जी सहन कर सकते थे. इसके बाद मूल स्वरूप को तहखाने में रखा गया, जबकि प्रतीकात्मक स्वरूप की पूजा अर्चना की जाती है. वहीं नरबलि और पशु बलि के बाद माता के गुजिया (मावे के पेड़े) और नारियल का भोग लगना शुरू हुआ. वहीं मंदिर में पहुंचने वाले भक्तों के सिंदूर का टीका लगाया जाता है. यही नहीं यहां भरने वाले छठ के मेले को लेकर जिला कलेक्टर की ओर से अवकाश भी घोषित किया जाता है.