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MP Urban Body Election 2022: 57 साल बाद भी नहीं बन सका सिंधिया की मर्जी का महापौर, नहीं बदला मेयर पद से जुड़ा मिथक

नगर निगम ग्वालियर न केवल प्रदेश बल्कि देश भर में बीजेपी के कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी की ताकत दिखाने का पांच दशक तक उदाहरण देने का काम करता था, अब 57 वर्ष पूर्व जब इस निगम में जनसंघ काबिज हुई थी. तब देश मे यह चौंकाने वाली बात थी, क्योंकि तब तक देश मे कांग्रेस इकलौती सियासी ब्राण्ड थी और जनसंघ बमुश्किल दो चार पार्षद जिता पाती थी. कांग्रेस एक बार जनसंघ जीती, इसके बाद फिर पार्टी इस पर काबिज नहीं हो पाई. तब से आज तक मिथक बन गया कि जिस दल की कमान सिंधिया परिवार के पास रहती है, नगर निगम में उसका मेयर नहीं बन पाता. इस बार इस मिथक के टूटने की आसार थे, क्योंकि इस नगर निगम पर बीजेपी का साढ़े पांच दशक से भी ज्यादा पुराना कब्जा था और कांग्रेस उसे हराना तो दूर उसे कभी चुनौती भी नहीं दे पाती थी. लेकिन इस बार कांग्रेस सिंधिया मुक्त हुई तो उसने चमत्कार करते हुए नगर निगम ग्वालियर को बीजेपी मुक्त कर दिया, लेकिन सिंधिया परिवार से जुड़ा मिथक नहीं टूटा. (MP Urban Body Election 2022) (Gwalior mayor 2022)

Scindia party member could not become Gwalior mayor 2022
57 साल बाद भी नहीं बन सका सिंधिया की मर्जी का महापौर
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Published : Jul 18, 2022, 11:10 PM IST

ग्वालियर। ग्वालियर के ऐतिहासिक नगर निगम की सत्ता पर पूरे 57 साल से कब्जा जमाए हुए बैठी थी, लेकिन इस बार का चुनाव खास था, जिसकी वजह था सिंधिया परिवार. 70 के दशक से अंचल की सियासत पर सिंधिया परिवार का कब्जा रहा है, खास बात ये कि सिंधिया परिवार कांग्रेस में सभी टिकट बांटता रहा है, लेकिन अभी तक कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि सिंधिया परिवार अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के समर्थन में वोट मांगने सड़क पर उतरा हो. फिलहाल इस बार सब कुछ उलट-पुलट हुआ, सिंधिया इस बार कांग्रेस में नहीं बल्कि उसी बीजेपी में हैं जिसके खिलाफ वे लगातार अपने प्रत्याशी लड़ाते थे. बीजेपी के नेता हर चुनाव को गंभीरता से लेकर वोट मांगते है, इसलिए लोगों की निगाहें अब यह देखने पर लगीं है. सिंधिया परिवार ने पहली बार अपनी परंपरा को तोड़ते हुए नगर निगम मेयर और पार्षद प्रत्याशियों के लिए प्रचार किया, रोड शो किया और वोट मांगे, बावजूद इसके यहां से पहली दफा कांग्रेस प्रत्याशी शोभा सिकरवार ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. (MP Urban Body Election 2022) (Gwalior mayor 2022)

महारानी ने ली थी कांग्रेस की सदस्यता: स्वतंत्रता के बाद से ही सिंधिया परिवार का कांग्रेस में प्रवेश हो गया था, 1947 में देश आजाद हुआ और ग्वालियर रियासत का भारत सरकार में विलय हो गया. तत्कालीन महाराज जियाजी राव सिंधिया को भारत सरकार ने ब्रिटिश परम्परा की तरह उनको नव गठित मध्यभारत प्रान्त का राज्य प्रमुख बनाया गया था और उन्होंने ही राज्य के पहले मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई थी. राजतन्त्र समाप्त होने के बाद तत्कालीन महाराजा सिंधिया ने राजनीति में न जाने का फैसला किया था, लेकिन उनकी पत्नी महारानी विजयाराजे सिंधिया ने उप प्रधानमंत्री बल्लभ भाई पटेल के समक्ष कांग्रेस की सदस्यता ली थी. इसके बाद वे सांसद और विधायक रहीं, लेकिन 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा से उनका विवाद हो गया और उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ में शामिल हो गईं. इस तरह राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले और इंदिरा गांधी के सलाहकार पंडित डीपी मिश्र की सरकार का पतन हो गया और राजमाता के विधायकों के सहयोग से जनसंघ ने संभवत: देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया. जिसे इतिहास में संबिद सरकार के नाम से जाना जाता है.

कांग्रेस ने जीती थीं दो सीटें: इस घटनाक्रम के समय राजमाता के इकलौते पुत्र माधव राव सिंधिया लन्दन में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, वे 1970 में लौटे और कुछ महीनों बाद 25 वीं वर्षगांठ मनाई. राजमाता ने उन्हें अपनी परम्परागत गुना संसदीय सीट गिफ्ट की और उन्हें वहां से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ाया और जीत हासिल की, लेकिन युवा माधवराव को जनसंघ के विचार और तौर-तरीके पसंद नहीं आए और राजमाता से भी अलगाव होने लगा, इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी. राजमाता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और उनके पुत्र माधव राव नेपाल चले गए, जहां उनकी बड़ी बहिन ऊषा राजे भी रहती थीं और स्वयं माधव राव की ससुराल भी थी. इसी दौरान माधव राव और इंदिरा गांधी के बीच नजदीकी बढ़ी, इमरजेंसी हटने के बाद आम चुनाव हुए तो माधव राव ने जनसंघ से चुनाव न लड़ने का फैसला किया. वे निर्दलीय मैदान में उतरे और कांग्रेस ने उनके खिलाफ अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा. देश भर में चल रही कांग्रेस विरोधी लहर में पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस साफ हो गई, स्वयं पीएम इंदिरा गांधी भी चुनाव नहीं जीत सकीं. मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस का बुरा हाल हो गया, फिर भी दो लोकसभा सीटें पार्टी ने जीतीं. एक छिंदवाड़ा और दूसरी गुना. छिंदवाड़ा से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गार्गी शंकर मिश्रा जीत गए और गुना से माधवराव जीते.

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मेयर के लिए कभी सड़क पर नहीं उतरे थे सिंधिया: इस जीत के साथ ही देश भर की निगाहें इस युवा सांसद पर गईं, जीत के कुछ साल बाद ही वे कांग्रेस में औपचारिक तौर पर शामिल हो गए. तब से वे अंतिम सांस तक कांग्रेस में रहे, हालांकि हवाला मामले में नाम आने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए कांग्रेस छोड़ी और तमाम दलों से ऑफर मिलने के बावजूद वे किसी दल में शामिल नहीं हुए. बाद में ग्वालियर सीट से वे मप्र विकास कांग्रेस से चुनाव लड़े और शानदार जीत हासिल की. अपने अंतिम समय तक ग्वालियर नगर निगम में मेयर से लेकर पार्षद तक के टिकट का फैसला वे ही करते थे, लेकिन वे कभी किसी मेयर या पार्षद प्रत्याशी का प्रचार करने नहीं गए. उनके असमयिक निधन के बाद उनके युवा बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने परिवार और राजनीतिक विरासत संभाली, कांग्रेस के सभी निर्णय सूत्र पिता की तरह उनके हाथ में ही रहे, लेकिन उन्होंने भी अपने समर्थकों को सिर्फ टिकट देने तक सीमित रखा. प्रचार करके जिताने के लिए सिंधिया कभी सड़कों पर नहीं आए, यह भी सच है कि कांग्रेस में रहते कभी भी यहां कांग्रेस का मेयर नहीं बन सका.

इस बार भी नहीं बदली सिंधिया परिवार की यह परम्परा: इस बार का सियासी माहौल एकदम अलग ही था, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में है. इस बार मेयर प्रत्याशी सुमन शर्मा का चयन बीजेपी संगठन ने अपने परंरागत तरीके से किया और सिंधिया 66 वार्डों में से महज 18 में अपने समर्थकों को टिकट दिला पाए. सिंधिया परिवार की छोटे चुनाव में शाही परिवार के प्रचार से दूर रहने की परंपरा को तोड़ते हुए केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर आकर बीजेपी के समर्थन में जमकर प्रचार किया, माना जा रहा था कि बीजेपी की परंपरागत जीतने वाली सीट पर प्रचार करने से यह मिथक टूट जाएगा कि जिस दल में सिंधिया रहते हैं ग्वालियर नगर निगम में उसका मेयर नहीं बनता, लेकिन ये टूटा नहीं बल्कि कायम रहा.

इस बार टूट सकता था मिथक: राजनीतिक प्रेक्षकों ही नहीं आम जनता को भी लग रहा था कि मेयर पद को लेकर सिंधिया परिवार को लेकर व्याप्त मिथक इस बार टूट सकता है. इस बार सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो चुके थे और यहां 57 वर्षों से बीजेपी का मेयर चुनता आ रहा था, लेकिन परिणाम चौंकाने वाले आए. सारे अनुमानों को झुठलाते हुए इस बार कांग्रेस की प्रत्याशी डॉ शोभा सिकरवार, बीजेपी उम्मीदवार सुमन शर्मा को 28 हजार से भी ज्यादा मतों के अंतर से हराकर मेयर बन गईं और इस बार भी जय विलास से जुड़ा यह मिथक कायम रहा कि जहां सिंधिया रहते हैं, मेयर उनके विपक्ष की पार्टी का ही बनता है.

ग्वालियर। ग्वालियर के ऐतिहासिक नगर निगम की सत्ता पर पूरे 57 साल से कब्जा जमाए हुए बैठी थी, लेकिन इस बार का चुनाव खास था, जिसकी वजह था सिंधिया परिवार. 70 के दशक से अंचल की सियासत पर सिंधिया परिवार का कब्जा रहा है, खास बात ये कि सिंधिया परिवार कांग्रेस में सभी टिकट बांटता रहा है, लेकिन अभी तक कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि सिंधिया परिवार अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के समर्थन में वोट मांगने सड़क पर उतरा हो. फिलहाल इस बार सब कुछ उलट-पुलट हुआ, सिंधिया इस बार कांग्रेस में नहीं बल्कि उसी बीजेपी में हैं जिसके खिलाफ वे लगातार अपने प्रत्याशी लड़ाते थे. बीजेपी के नेता हर चुनाव को गंभीरता से लेकर वोट मांगते है, इसलिए लोगों की निगाहें अब यह देखने पर लगीं है. सिंधिया परिवार ने पहली बार अपनी परंपरा को तोड़ते हुए नगर निगम मेयर और पार्षद प्रत्याशियों के लिए प्रचार किया, रोड शो किया और वोट मांगे, बावजूद इसके यहां से पहली दफा कांग्रेस प्रत्याशी शोभा सिकरवार ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. (MP Urban Body Election 2022) (Gwalior mayor 2022)

महारानी ने ली थी कांग्रेस की सदस्यता: स्वतंत्रता के बाद से ही सिंधिया परिवार का कांग्रेस में प्रवेश हो गया था, 1947 में देश आजाद हुआ और ग्वालियर रियासत का भारत सरकार में विलय हो गया. तत्कालीन महाराज जियाजी राव सिंधिया को भारत सरकार ने ब्रिटिश परम्परा की तरह उनको नव गठित मध्यभारत प्रान्त का राज्य प्रमुख बनाया गया था और उन्होंने ही राज्य के पहले मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई थी. राजतन्त्र समाप्त होने के बाद तत्कालीन महाराजा सिंधिया ने राजनीति में न जाने का फैसला किया था, लेकिन उनकी पत्नी महारानी विजयाराजे सिंधिया ने उप प्रधानमंत्री बल्लभ भाई पटेल के समक्ष कांग्रेस की सदस्यता ली थी. इसके बाद वे सांसद और विधायक रहीं, लेकिन 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा से उनका विवाद हो गया और उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ में शामिल हो गईं. इस तरह राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले और इंदिरा गांधी के सलाहकार पंडित डीपी मिश्र की सरकार का पतन हो गया और राजमाता के विधायकों के सहयोग से जनसंघ ने संभवत: देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया. जिसे इतिहास में संबिद सरकार के नाम से जाना जाता है.

कांग्रेस ने जीती थीं दो सीटें: इस घटनाक्रम के समय राजमाता के इकलौते पुत्र माधव राव सिंधिया लन्दन में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, वे 1970 में लौटे और कुछ महीनों बाद 25 वीं वर्षगांठ मनाई. राजमाता ने उन्हें अपनी परम्परागत गुना संसदीय सीट गिफ्ट की और उन्हें वहां से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ाया और जीत हासिल की, लेकिन युवा माधवराव को जनसंघ के विचार और तौर-तरीके पसंद नहीं आए और राजमाता से भी अलगाव होने लगा, इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी. राजमाता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और उनके पुत्र माधव राव नेपाल चले गए, जहां उनकी बड़ी बहिन ऊषा राजे भी रहती थीं और स्वयं माधव राव की ससुराल भी थी. इसी दौरान माधव राव और इंदिरा गांधी के बीच नजदीकी बढ़ी, इमरजेंसी हटने के बाद आम चुनाव हुए तो माधव राव ने जनसंघ से चुनाव न लड़ने का फैसला किया. वे निर्दलीय मैदान में उतरे और कांग्रेस ने उनके खिलाफ अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा. देश भर में चल रही कांग्रेस विरोधी लहर में पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस साफ हो गई, स्वयं पीएम इंदिरा गांधी भी चुनाव नहीं जीत सकीं. मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस का बुरा हाल हो गया, फिर भी दो लोकसभा सीटें पार्टी ने जीतीं. एक छिंदवाड़ा और दूसरी गुना. छिंदवाड़ा से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गार्गी शंकर मिश्रा जीत गए और गुना से माधवराव जीते.

MP Urban Body Election 2022 में कास्ट फैक्टर पड़ा भारी! जानिए ग्वालियर में BJP की हार और कांग्रेस की जीत की वजह

मेयर के लिए कभी सड़क पर नहीं उतरे थे सिंधिया: इस जीत के साथ ही देश भर की निगाहें इस युवा सांसद पर गईं, जीत के कुछ साल बाद ही वे कांग्रेस में औपचारिक तौर पर शामिल हो गए. तब से वे अंतिम सांस तक कांग्रेस में रहे, हालांकि हवाला मामले में नाम आने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए कांग्रेस छोड़ी और तमाम दलों से ऑफर मिलने के बावजूद वे किसी दल में शामिल नहीं हुए. बाद में ग्वालियर सीट से वे मप्र विकास कांग्रेस से चुनाव लड़े और शानदार जीत हासिल की. अपने अंतिम समय तक ग्वालियर नगर निगम में मेयर से लेकर पार्षद तक के टिकट का फैसला वे ही करते थे, लेकिन वे कभी किसी मेयर या पार्षद प्रत्याशी का प्रचार करने नहीं गए. उनके असमयिक निधन के बाद उनके युवा बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने परिवार और राजनीतिक विरासत संभाली, कांग्रेस के सभी निर्णय सूत्र पिता की तरह उनके हाथ में ही रहे, लेकिन उन्होंने भी अपने समर्थकों को सिर्फ टिकट देने तक सीमित रखा. प्रचार करके जिताने के लिए सिंधिया कभी सड़कों पर नहीं आए, यह भी सच है कि कांग्रेस में रहते कभी भी यहां कांग्रेस का मेयर नहीं बन सका.

इस बार भी नहीं बदली सिंधिया परिवार की यह परम्परा: इस बार का सियासी माहौल एकदम अलग ही था, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में है. इस बार मेयर प्रत्याशी सुमन शर्मा का चयन बीजेपी संगठन ने अपने परंरागत तरीके से किया और सिंधिया 66 वार्डों में से महज 18 में अपने समर्थकों को टिकट दिला पाए. सिंधिया परिवार की छोटे चुनाव में शाही परिवार के प्रचार से दूर रहने की परंपरा को तोड़ते हुए केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर आकर बीजेपी के समर्थन में जमकर प्रचार किया, माना जा रहा था कि बीजेपी की परंपरागत जीतने वाली सीट पर प्रचार करने से यह मिथक टूट जाएगा कि जिस दल में सिंधिया रहते हैं ग्वालियर नगर निगम में उसका मेयर नहीं बनता, लेकिन ये टूटा नहीं बल्कि कायम रहा.

इस बार टूट सकता था मिथक: राजनीतिक प्रेक्षकों ही नहीं आम जनता को भी लग रहा था कि मेयर पद को लेकर सिंधिया परिवार को लेकर व्याप्त मिथक इस बार टूट सकता है. इस बार सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो चुके थे और यहां 57 वर्षों से बीजेपी का मेयर चुनता आ रहा था, लेकिन परिणाम चौंकाने वाले आए. सारे अनुमानों को झुठलाते हुए इस बार कांग्रेस की प्रत्याशी डॉ शोभा सिकरवार, बीजेपी उम्मीदवार सुमन शर्मा को 28 हजार से भी ज्यादा मतों के अंतर से हराकर मेयर बन गईं और इस बार भी जय विलास से जुड़ा यह मिथक कायम रहा कि जहां सिंधिया रहते हैं, मेयर उनके विपक्ष की पार्टी का ही बनता है.

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