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जल संकट को लेकर वैज्ञानिकों ने जताई चिंता, GDP की तर्ज पर GEP बनाने का दिया सुझाव

ग्लोबल वार्मिंग (Global warming) और प्रकृति के साथ बढ़ते मानवीय छेड़छाड़ से हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर साल दर साल घटते जा रहे हैं, जिसको लेकर वैज्ञानिकों ने जल संकट गहराने को लेकर आशंका जताई (Scientists apprehension about water crisis) है. वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेजी से हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं, उससे नदियों वाले हिमालय रीजन में पानी का संकट (Water crisis in the Himalayan region) गहरा सकता है. जिसका असर केवल भारत ही नहीं, बल्कि हमारे पड़ोसी देशों पर भी पड़ेगा. वैज्ञानिकों ने इसके लिए Gross Environment Product जैसी ठोस रणनीति बनाने की बात कही है.

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Published : Sep 7, 2022, 7:20 PM IST

Updated : Sep 7, 2022, 10:30 PM IST

उत्तराखंड: ऐसा माना जा रहा है कि अगर तीसरा विश्व युद्ध (third world war) हुआ तो उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह जल संकट होगा. इसके पीछे वैज्ञानिक विश्व भर में तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर (fast melting glaciers) और उससे पड़ने वाले प्रतिकूल असर को मानते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेजी के साथ उच्च हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे (Glaciers of the High Himalayas are melting) हैं, उससे नदियों वाले हिमालय रीजन में आने वाले सालों में पानी का संकट गहरा सकता है. इसका असर हिमालयी राज्यों पर तो पड़ेगा ही साथ ही भारत के पड़ोसी देशों में भी इसका असर देखने को मिलेगा. इसके पीछे वैज्ञानिकों का अपना मत है. वैज्ञानिक मानते हैं कि इस संकट से बचने के लिए ठोस एक्शन लेने की जरूरत है.

जंगलों में अतिक्रमण से खतरा: हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय गढ़वाल विवि (Hemwati Nandan Bahuguna Central Garhwal University) का उच्च शिखरिय पादप शोध संस्थान (High Peak Plant Research Institute) उत्तराखंड के उच्च स्थानों में पादपों पर शोध कार्य करता है. इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. विजय कांत पुरोहित बताते हैं कि हिमालय रीजन में जंगलों की तरफ तेजी के साथ अतिक्रमण हुआ है. इसकी वजह पर्यटन है. लोग बड़ी संख्या में बुग्यालों, जंगलों में निर्माण कार्य कर रहे हैं. इस निर्माण से नई पौध नहीं बन पा रही है. ये हिमालय के लिए घातक है. वैज्ञानिकों का मानना है कि नियोजित विकास भी हमें विनाश की तरफ ले जा रहा है. समय आ गया है कि जीडीपी की तरह हिमालय को बचाने के लिए जीईपी (Gross Environment Product) पर ध्यान दिया जाए.

जल संकट को लेकर वैज्ञानिकों ने जताई चिंता.

हिमालय पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित: हिमालय में पानी के स्रोत (Water sources in the Himalayas) के लिए सबसे बड़ा कारक चौड़ी पत्ती वाले पेड़ होते हैं, लेकिन उनका पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हुआ है. इससे इस इलाके में पानी का संकट गहरा सकता है. स्रोत सूख रहे हैं. इसके साथ-साथ हिमालय रीजन में कार्बन उत्सजन (Carbon emissions in the Himalayan region) के कारण गर्मी भी बढ़ रही है. इससे हालात ये बन रहे हैं कि मध्य हिमालय में उगने वाले पेड़ पौधे उच्च हिमालय की तरफ अपने को शिफ्ट कर रहे हैं. जैसे देवदार का बीज स्वयम उड़ कर अपने को स्थापित करता है. उसी से यह तरह तरह का चेंज आ रहा है.
ये भी पढ़ें:- उत्तराखंड ने ब्रांड एंबेसडर बनाकर बरसाया प्यार, मगर बेवफा निकले धोनी, विराट और अक्षय कुमार

तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर: आ रहे बदलावों का परिणाम ये होगा कि उच्च हिमालय में पेड़ पौधों का अतिक्रमण (encroachment of trees in the high himalayas) होगा. यहां वर्षा होगी और बर्फ का गिरना कम हो जाएगा. इससे ग्लेशियर पिघलकर खत्म हो जाएंगे. इससे पूरे हिमालयन बेल्ट पर पानी का संकट खड़ा हो जाएगा. इसका असर हमारे देश के पड़ोसी देशों में भी देखने को मिलेगा. वहीं, लंबे समय से ग्लेशियर और उस पर कार्बन डेटा पर कार्य कर रहे हैं.

साल दर साल बढ़ रहा कार्बन नैनोसोर्स: गढ़वाल विवि के भौतिक वैज्ञानिक आलोक सागर गौतम बताते हैं कि साल दर साल हिमालय रीजन में कार्बन नैनोसोर्स (Carbon Nano sources in the Himalayan Region) बढ़ रहा है. इसका कारण हिमालय के निचले इलाके ही हैं. निचले इलाकों से ही कार्बन हिमालय रीजन में आ रहा है. गौतम सागर द्वारा जुटाए गए डेटा के मुताबिक, 2.60 माइक्रो ग्राम प्रति मीटर से 3.60 प्रति मीटर पर कार्बन ग्लेशियर साइड पर मिल रहा है, जो चिंता का विषय है. इससे बारिश का पैटर्न भी बिगड़ रहा है. मार्च अप्रैल मई में बनने वाले बादल बनते थे. इससे बारिश जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर में होती है. इसका पैटर्न बदल रहा है. अब बारिश उन महीनों में भी हो रही, जिनमें नहीं होती थी.

हिमालयन मंत्रालय बनाने की मांग: 1 जनवरी से मई माह में पश्चिमी बिक्षोभ के कारण होने वाली बारिश अब कम या तो नहीं हो रही है. इसके कारण भी वातावरण में नमी कम हो रही है, जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं. हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्य वन संरक्षक प्रवीण थपलियाल कहते हैं कि हिमालय क्षेत्रों के लिए सरकार को अलग से नीति बनानी चाहिए. हो सके तो इसके लिए केंद्र सरकार को अलग से हिमालयन मंत्रालय होना चाहिए. सरकारे नदियों को बचाने के लिए जल संरक्षण, गंगा बचाओ योजना चला रही है, लेकिन इतने भर से काम नहीं चलेगा. मैदानी इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों की भी मॉनिटरिंग होनी चाहिए.

उत्तराखंड: ऐसा माना जा रहा है कि अगर तीसरा विश्व युद्ध (third world war) हुआ तो उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह जल संकट होगा. इसके पीछे वैज्ञानिक विश्व भर में तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर (fast melting glaciers) और उससे पड़ने वाले प्रतिकूल असर को मानते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेजी के साथ उच्च हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे (Glaciers of the High Himalayas are melting) हैं, उससे नदियों वाले हिमालय रीजन में आने वाले सालों में पानी का संकट गहरा सकता है. इसका असर हिमालयी राज्यों पर तो पड़ेगा ही साथ ही भारत के पड़ोसी देशों में भी इसका असर देखने को मिलेगा. इसके पीछे वैज्ञानिकों का अपना मत है. वैज्ञानिक मानते हैं कि इस संकट से बचने के लिए ठोस एक्शन लेने की जरूरत है.

जंगलों में अतिक्रमण से खतरा: हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय गढ़वाल विवि (Hemwati Nandan Bahuguna Central Garhwal University) का उच्च शिखरिय पादप शोध संस्थान (High Peak Plant Research Institute) उत्तराखंड के उच्च स्थानों में पादपों पर शोध कार्य करता है. इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. विजय कांत पुरोहित बताते हैं कि हिमालय रीजन में जंगलों की तरफ तेजी के साथ अतिक्रमण हुआ है. इसकी वजह पर्यटन है. लोग बड़ी संख्या में बुग्यालों, जंगलों में निर्माण कार्य कर रहे हैं. इस निर्माण से नई पौध नहीं बन पा रही है. ये हिमालय के लिए घातक है. वैज्ञानिकों का मानना है कि नियोजित विकास भी हमें विनाश की तरफ ले जा रहा है. समय आ गया है कि जीडीपी की तरह हिमालय को बचाने के लिए जीईपी (Gross Environment Product) पर ध्यान दिया जाए.

जल संकट को लेकर वैज्ञानिकों ने जताई चिंता.

हिमालय पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित: हिमालय में पानी के स्रोत (Water sources in the Himalayas) के लिए सबसे बड़ा कारक चौड़ी पत्ती वाले पेड़ होते हैं, लेकिन उनका पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हुआ है. इससे इस इलाके में पानी का संकट गहरा सकता है. स्रोत सूख रहे हैं. इसके साथ-साथ हिमालय रीजन में कार्बन उत्सजन (Carbon emissions in the Himalayan region) के कारण गर्मी भी बढ़ रही है. इससे हालात ये बन रहे हैं कि मध्य हिमालय में उगने वाले पेड़ पौधे उच्च हिमालय की तरफ अपने को शिफ्ट कर रहे हैं. जैसे देवदार का बीज स्वयम उड़ कर अपने को स्थापित करता है. उसी से यह तरह तरह का चेंज आ रहा है.
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तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर: आ रहे बदलावों का परिणाम ये होगा कि उच्च हिमालय में पेड़ पौधों का अतिक्रमण (encroachment of trees in the high himalayas) होगा. यहां वर्षा होगी और बर्फ का गिरना कम हो जाएगा. इससे ग्लेशियर पिघलकर खत्म हो जाएंगे. इससे पूरे हिमालयन बेल्ट पर पानी का संकट खड़ा हो जाएगा. इसका असर हमारे देश के पड़ोसी देशों में भी देखने को मिलेगा. वहीं, लंबे समय से ग्लेशियर और उस पर कार्बन डेटा पर कार्य कर रहे हैं.

साल दर साल बढ़ रहा कार्बन नैनोसोर्स: गढ़वाल विवि के भौतिक वैज्ञानिक आलोक सागर गौतम बताते हैं कि साल दर साल हिमालय रीजन में कार्बन नैनोसोर्स (Carbon Nano sources in the Himalayan Region) बढ़ रहा है. इसका कारण हिमालय के निचले इलाके ही हैं. निचले इलाकों से ही कार्बन हिमालय रीजन में आ रहा है. गौतम सागर द्वारा जुटाए गए डेटा के मुताबिक, 2.60 माइक्रो ग्राम प्रति मीटर से 3.60 प्रति मीटर पर कार्बन ग्लेशियर साइड पर मिल रहा है, जो चिंता का विषय है. इससे बारिश का पैटर्न भी बिगड़ रहा है. मार्च अप्रैल मई में बनने वाले बादल बनते थे. इससे बारिश जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर में होती है. इसका पैटर्न बदल रहा है. अब बारिश उन महीनों में भी हो रही, जिनमें नहीं होती थी.

हिमालयन मंत्रालय बनाने की मांग: 1 जनवरी से मई माह में पश्चिमी बिक्षोभ के कारण होने वाली बारिश अब कम या तो नहीं हो रही है. इसके कारण भी वातावरण में नमी कम हो रही है, जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं. हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्य वन संरक्षक प्रवीण थपलियाल कहते हैं कि हिमालय क्षेत्रों के लिए सरकार को अलग से नीति बनानी चाहिए. हो सके तो इसके लिए केंद्र सरकार को अलग से हिमालयन मंत्रालय होना चाहिए. सरकारे नदियों को बचाने के लिए जल संरक्षण, गंगा बचाओ योजना चला रही है, लेकिन इतने भर से काम नहीं चलेगा. मैदानी इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों की भी मॉनिटरिंग होनी चाहिए.

Last Updated : Sep 7, 2022, 10:30 PM IST
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