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Immunity To Legislators On Bribery: सुप्रीम कोर्ट में 1998 के फैसले की समीक्षा के लिए 7-जजों की पीठ का गठन

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के गठन को अधिसूचित किया. यह पीठ 1998 के सुप्रीम कोर्ट के अपने फैसले पर सुनवायी करेगी. इसमें सांसदों को भाषण देने या वोट देने के लिए रिश्‍वत लेने पर आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट दी गई थी, चाहे संसद हो या राज्य विधानमंडल. पढ़ें पूरी खबर...

Immunity To Legislators On Bribery
प्रतिकात्मक तस्वीर
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 26, 2023, 7:27 AM IST

नई दिल्ली : भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को 'वोट के बदले नोट' मामले में सात न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया. यह पीठ पीवी नरसिम्हा राव मामले में 1998 की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार करेगी. इस मामले में तत्कालीन पीठ ने बहुमत ने माना था कि सांसदों को वोट के लिए रिश्‍वत मामले में मुकदमा चलाने से छूट दी जानी चाहिए. सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस एएस बोपन्ना, एम एम सुंदरेश, पी एस नरसिम्हा, जेबी पारदीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा भी शामिल होंगे.

पीठ ने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो हमारी राजनीति से संबंधित है : सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी एक नोटिस में कहा गया है कि पीठ 4 अक्टूबर, 2023 से मामले की सुनवाई शुरू करेगी. 20 सितंबर को, इस मामले की सुनवाई करने वाली सीजेआई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि हमारा विचार है कि पीवी नरसिम्हा राव के मामले में बहुमत के दृष्टिकोण की शुद्धता पर सात सदस्यीय न्यायाधीशों की बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए. पीठ ने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो हमारी राजनीति से संबंधित है.

स्वतंत्रता के माहौल में कर्तव्यों का पालन : इसमें कहा गया है कि बड़ी पीठ संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) की व्याख्या पर फैसले की शुद्धता के सवाल से निपटेगी जो क्रमशः संसद सदस्य और राज्य विधायिका के सदस्य को विशेषाधिकार प्रदान करता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सबसे पहले, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अनुच्छेद 105(2) और 194(2) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्य उस मामले में होने वाले परिणामों के डर के बिना स्वतंत्रता के माहौल में कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम हों.

आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट : सदन के पटल पर बोलने या अपने वोट देने के अधिकार का उपयोग करें. इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से विधायिका के सदस्यों को उन व्यक्तियों के रूप में अलग करना नहीं है जो देश के सामान्य आपराधिक कानून के आवेदन से प्रतिरक्षा के संदर्भ में उच्च विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं जो देश के आम के नागरिकों के पास नहीं है. शीर्ष अदालत ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 105 की पृष्ठभूमि के खिलाफ, सांसदों को सदन में अपने भाषण और वोटों के संबंध में आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है.

अनुच्छेद 105 संसद सदस्य को संसद या उसकी किसी समिति में उनके द्वारा कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के संबंध में छूट प्रदान करता है. इसी तरह की छूट राज्य विधानमंडल के सदस्यों को अनुच्छेद 194(2) द्वारा प्रदान की गई है.

झारखंड मुक्ति मोर्चा विधायक सीता सोरेन के खिलाफ मामला: यह सवाल राज्य की दो सीटों के लिए 2012 के राज्यसभा चुनाव के संबंध में झारखंड मुक्ति मोर्चा विधायक सीता सोरेन के खिलाफ रिश्वतखोरी के आरोप के संदर्भ में उठा. उन पर एक निर्दलीय उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए रिश्वत लेने का आरोप था.

सोरेन ने कहा कि उन्होंने अपना वोट कथित रिश्वत देने वाले के पक्ष में नहीं डाला और वास्तव में उन्होंने अपनी ही पार्टी के एक उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला था. यह तथ्य राज्यसभा सीट के लिए खुले मतदान से सामने आया चुका है. विचाराधीन मतदान का दौर रद्द कर दिया गया, और एक नया मतदान आयोजित किया गया जिसमें उन्होंने अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया.

उन्होंने अनुच्छेद 194 (2) के प्रावधानों पर भरोसा करते हुए अपने खिलाफ दायर आरोपपत्र और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए झारखंड न्यायालय का रुख किया, लेकिन हाईकोर्ट ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. इसके बाद सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां सितंबर 2014 में दो-न्यायाधीशों की पीठ ने राय दी कि इसे तीन न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के समक्ष रखा जाना चाहिए. 7 मार्च, 2019 को, 2019 में भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3-न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को एक बड़ी पीठ के पास विचार के लिए भेज दिया था.

भारत सरकार का पक्ष : अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि नरसिम्हा राव का फैसला मामले के तथ्यों पर लागू नहीं होता है क्योंकि छूट केवल सदन के कामकाज के संबंध में कार्रवाई के लिए है. उन्होंने तर्क दिया कि सोरेन के कथित कृत्य सदन के किसी भी कामकाज के संबंध में नहीं थे और इसलिए उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है और निर्णय की सत्यता की जांच करने की कोई आवश्यकता नहीं है.

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क्या हमें भविष्य में इसके उत्पन्न होने का इंतजार करना चाहिए : भारत सरकार की दलील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एकमात्र सवाल यह है कि क्या हमें भविष्य में इसके उत्पन्न होने का इंतजार करना चाहिए या कानून बनाना चाहिए? क्योंकि हमें इस बात को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि अगर यह हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों की सार्वजनिक नैतिकता को भी बढ़ावा देता है, तो हमें भविष्य में किसी अनिश्चित दिन के लिए अपना निर्णय नहीं टालना चाहिए, है ना?

नई दिल्ली : भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को 'वोट के बदले नोट' मामले में सात न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया. यह पीठ पीवी नरसिम्हा राव मामले में 1998 की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार करेगी. इस मामले में तत्कालीन पीठ ने बहुमत ने माना था कि सांसदों को वोट के लिए रिश्‍वत मामले में मुकदमा चलाने से छूट दी जानी चाहिए. सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस एएस बोपन्ना, एम एम सुंदरेश, पी एस नरसिम्हा, जेबी पारदीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा भी शामिल होंगे.

पीठ ने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो हमारी राजनीति से संबंधित है : सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी एक नोटिस में कहा गया है कि पीठ 4 अक्टूबर, 2023 से मामले की सुनवाई शुरू करेगी. 20 सितंबर को, इस मामले की सुनवाई करने वाली सीजेआई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि हमारा विचार है कि पीवी नरसिम्हा राव के मामले में बहुमत के दृष्टिकोण की शुद्धता पर सात सदस्यीय न्यायाधीशों की बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए. पीठ ने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो हमारी राजनीति से संबंधित है.

स्वतंत्रता के माहौल में कर्तव्यों का पालन : इसमें कहा गया है कि बड़ी पीठ संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) की व्याख्या पर फैसले की शुद्धता के सवाल से निपटेगी जो क्रमशः संसद सदस्य और राज्य विधायिका के सदस्य को विशेषाधिकार प्रदान करता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सबसे पहले, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अनुच्छेद 105(2) और 194(2) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्य उस मामले में होने वाले परिणामों के डर के बिना स्वतंत्रता के माहौल में कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम हों.

आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट : सदन के पटल पर बोलने या अपने वोट देने के अधिकार का उपयोग करें. इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से विधायिका के सदस्यों को उन व्यक्तियों के रूप में अलग करना नहीं है जो देश के सामान्य आपराधिक कानून के आवेदन से प्रतिरक्षा के संदर्भ में उच्च विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं जो देश के आम के नागरिकों के पास नहीं है. शीर्ष अदालत ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 105 की पृष्ठभूमि के खिलाफ, सांसदों को सदन में अपने भाषण और वोटों के संबंध में आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है.

अनुच्छेद 105 संसद सदस्य को संसद या उसकी किसी समिति में उनके द्वारा कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के संबंध में छूट प्रदान करता है. इसी तरह की छूट राज्य विधानमंडल के सदस्यों को अनुच्छेद 194(2) द्वारा प्रदान की गई है.

झारखंड मुक्ति मोर्चा विधायक सीता सोरेन के खिलाफ मामला: यह सवाल राज्य की दो सीटों के लिए 2012 के राज्यसभा चुनाव के संबंध में झारखंड मुक्ति मोर्चा विधायक सीता सोरेन के खिलाफ रिश्वतखोरी के आरोप के संदर्भ में उठा. उन पर एक निर्दलीय उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए रिश्वत लेने का आरोप था.

सोरेन ने कहा कि उन्होंने अपना वोट कथित रिश्वत देने वाले के पक्ष में नहीं डाला और वास्तव में उन्होंने अपनी ही पार्टी के एक उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला था. यह तथ्य राज्यसभा सीट के लिए खुले मतदान से सामने आया चुका है. विचाराधीन मतदान का दौर रद्द कर दिया गया, और एक नया मतदान आयोजित किया गया जिसमें उन्होंने अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया.

उन्होंने अनुच्छेद 194 (2) के प्रावधानों पर भरोसा करते हुए अपने खिलाफ दायर आरोपपत्र और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए झारखंड न्यायालय का रुख किया, लेकिन हाईकोर्ट ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. इसके बाद सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां सितंबर 2014 में दो-न्यायाधीशों की पीठ ने राय दी कि इसे तीन न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के समक्ष रखा जाना चाहिए. 7 मार्च, 2019 को, 2019 में भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3-न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को एक बड़ी पीठ के पास विचार के लिए भेज दिया था.

भारत सरकार का पक्ष : अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि नरसिम्हा राव का फैसला मामले के तथ्यों पर लागू नहीं होता है क्योंकि छूट केवल सदन के कामकाज के संबंध में कार्रवाई के लिए है. उन्होंने तर्क दिया कि सोरेन के कथित कृत्य सदन के किसी भी कामकाज के संबंध में नहीं थे और इसलिए उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है और निर्णय की सत्यता की जांच करने की कोई आवश्यकता नहीं है.

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क्या हमें भविष्य में इसके उत्पन्न होने का इंतजार करना चाहिए : भारत सरकार की दलील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एकमात्र सवाल यह है कि क्या हमें भविष्य में इसके उत्पन्न होने का इंतजार करना चाहिए या कानून बनाना चाहिए? क्योंकि हमें इस बात को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि अगर यह हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों की सार्वजनिक नैतिकता को भी बढ़ावा देता है, तो हमें भविष्य में किसी अनिश्चित दिन के लिए अपना निर्णय नहीं टालना चाहिए, है ना?

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