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संगम नगरी की अनूठी परंपरा है सावन मास में 'गहरेबाजी' का खेल

प्रयागराज में सावन के हर सोमवार को 'गहरेबाजी' होती है. इसका एक खास आकर्षण है. इसे देखने के लिए प्रदेश के कई जिलों से लोग आते हैं. ये तार्थपुरोहितों का पुराना शौक है.

सावन मास में 'गहरेबाजी' का खेल
सावन मास में 'गहरेबाजी' का खेल
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Published : Jul 11, 2023, 11:22 AM IST

प्रयागराज में 'गहरेबाजी' का खेल

प्रयागराज: सावन का महीना भोलेनाथ की आराधना के लिए जाना जाता है और सावन के सोमवार का धार्मिक दृष्टि से खास महत्व है. लेकिन, इस महीने प्रत्येक सोमवार को यहां होने वाली 'गहरेबाजी' का भी अपना एक खास आकर्षण है. प्रयागराज में हर साल सावन के सोमवार की शाम इक्कों और घोड़ों की टापों की टक-टक से गूजने लगती है. इक्का दौड़ की इस लोक परम्परा (गहरेबाजी) को देखने के लिए प्रदेश के कई जिलों से लोग शहर की सड़कों में जमा हो जाते हैं.

सावन के महीने में प्रयागराज की सड़कों पर इक्कों की रेस की अनोखी परम्परा है, जो देश के किसी कोने में देखने को नहीं मिलती. शहर की भीड़ भरी सड़कों पर सावन के हर सोमवार को शाम के समय तेज गति से दौड़ते इक्कों और घोड़ों की टाप की टक-टक ही सुनाई पड़ती है. इक्के और घोड़ों की दौड़ की इस अनोखी परम्परा को गहरेबाजी नाम दिया गया, जो शहर की सबसे अलग और सबसे पुरानी परम्परा है. शहर के नए यमुना पुल से पुराने यमुना पुल के बीच इस बार इस रेस का आयोजन किया गया. इक्कों की रफ्तार दिखी और घोड़ों की नजाकत भरी चाल भी.

कहते हैं सावन भगवान शंकर की पूजा और आराधना का महीना है. इसमें शिव के प्रतीक शक्ति की पूजा की जाती है. घोड़े भी शक्ति का प्रतीक हैं, जिनका एक लोक स्वरूप है. सावन के महीने में आयोजित की जाने वाली गहरेबाजी की लोक परम्परा को देखने के लिए कई जिलों से शौकीन यहां की सड़कों पर जमा होते हैं.

कटरा निवासी बदरे आलम बताते हैं कि सिंधी नस्ल के घोड़े सर्वोत्तम होते हैं. यह राजस्थान के बालोतरा जिले से लाए जाते हैं. इस नस्ल के घोड़े मूलरूप से सिंध प्रांत में मिलते रहे हैं, जो अब पाकिस्तान में है. उन्होंने बताया कि बालोतरा में रेत अधिक होती है. घोड़े रेत पर चलते हैं तो कदम-कदम गिनकर चलते हैं. यानी वह सरपट भाग नहीं पाते. वहीं, घोड़े जब गहरेबाजी के लिए प्रशिक्षित किए जाते हैं तो कदमबाजी के लिए उन्हें ज्यादा सिखाना नहीं पड़ता. साथ ही ये भी कहते हैं कि संगम नगरी में गहरेबाजी तीर्थपुरोहितों का पुराना शौक रहा है. गहरेबाजी आज के दौर में काफी मुश्किल शौक हो गया है. क्योंकि, आज के समय घोड़ों का रख-रखाव करने वाले लोग ही नहीं मिलते. बावजूद इसके पुश्तों के इस शौक से गहरेबाज अपने को अलग नहीं कर पाए हैं.

यह भी पढ़ें: ऐसा मंदिर जहां दिन में तीन बार रंग बदलता है शिवलिंग, अभी तक नहीं सुलझा रहस्य

प्रयागराज में 'गहरेबाजी' का खेल

प्रयागराज: सावन का महीना भोलेनाथ की आराधना के लिए जाना जाता है और सावन के सोमवार का धार्मिक दृष्टि से खास महत्व है. लेकिन, इस महीने प्रत्येक सोमवार को यहां होने वाली 'गहरेबाजी' का भी अपना एक खास आकर्षण है. प्रयागराज में हर साल सावन के सोमवार की शाम इक्कों और घोड़ों की टापों की टक-टक से गूजने लगती है. इक्का दौड़ की इस लोक परम्परा (गहरेबाजी) को देखने के लिए प्रदेश के कई जिलों से लोग शहर की सड़कों में जमा हो जाते हैं.

सावन के महीने में प्रयागराज की सड़कों पर इक्कों की रेस की अनोखी परम्परा है, जो देश के किसी कोने में देखने को नहीं मिलती. शहर की भीड़ भरी सड़कों पर सावन के हर सोमवार को शाम के समय तेज गति से दौड़ते इक्कों और घोड़ों की टाप की टक-टक ही सुनाई पड़ती है. इक्के और घोड़ों की दौड़ की इस अनोखी परम्परा को गहरेबाजी नाम दिया गया, जो शहर की सबसे अलग और सबसे पुरानी परम्परा है. शहर के नए यमुना पुल से पुराने यमुना पुल के बीच इस बार इस रेस का आयोजन किया गया. इक्कों की रफ्तार दिखी और घोड़ों की नजाकत भरी चाल भी.

कहते हैं सावन भगवान शंकर की पूजा और आराधना का महीना है. इसमें शिव के प्रतीक शक्ति की पूजा की जाती है. घोड़े भी शक्ति का प्रतीक हैं, जिनका एक लोक स्वरूप है. सावन के महीने में आयोजित की जाने वाली गहरेबाजी की लोक परम्परा को देखने के लिए कई जिलों से शौकीन यहां की सड़कों पर जमा होते हैं.

कटरा निवासी बदरे आलम बताते हैं कि सिंधी नस्ल के घोड़े सर्वोत्तम होते हैं. यह राजस्थान के बालोतरा जिले से लाए जाते हैं. इस नस्ल के घोड़े मूलरूप से सिंध प्रांत में मिलते रहे हैं, जो अब पाकिस्तान में है. उन्होंने बताया कि बालोतरा में रेत अधिक होती है. घोड़े रेत पर चलते हैं तो कदम-कदम गिनकर चलते हैं. यानी वह सरपट भाग नहीं पाते. वहीं, घोड़े जब गहरेबाजी के लिए प्रशिक्षित किए जाते हैं तो कदमबाजी के लिए उन्हें ज्यादा सिखाना नहीं पड़ता. साथ ही ये भी कहते हैं कि संगम नगरी में गहरेबाजी तीर्थपुरोहितों का पुराना शौक रहा है. गहरेबाजी आज के दौर में काफी मुश्किल शौक हो गया है. क्योंकि, आज के समय घोड़ों का रख-रखाव करने वाले लोग ही नहीं मिलते. बावजूद इसके पुश्तों के इस शौक से गहरेबाज अपने को अलग नहीं कर पाए हैं.

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